आदरणीय सुधीजनो,
दिनांक -9 मई’ 2015 को सम्पन्न हुए “ओबीओ लाइव महोत्सव अंक-55” की समस्त स्वीकृत रचनाएँ संकलित कर ली गयी हैं. सद्यः समाप्त हुए इस आयोजन हेतु आमंत्रित रचनाओं के लिए शीर्षक “अपेक्षाएं” था.
यथासम्भव ध्यान रखा गया है कि इस पूर्णतः सफल आयोजन के सभी प्रतिभागियों की समस्त रचनाएँ प्रस्तुत हो सकें. फिर भी भूलवश यदि किन्हीं प्रतिभागी की कोई रचना संकलित होने से रह ,गयी हो, वह अवश्य सूचित करें.
विशेष: जो प्रतिभागी अपनी रचनाओं में संशोधन प्रेषित करना चाहते हैं वो अपनी पूरी संशोधित रचना पुनः प्रेषित करें जिसे मूल रचना से प्रतिस्थापित कर दिया जाएगा
सादर
डॉ. प्राची सिंह
मंच संचालिका
ओबीओ लाइव महा-उत्सव
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आ० अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव जी (* संशोधित रचना )
प्रथम प्रस्तुति - अपेक्षाएँ [ दोहे ] *
मस्ती खाना खेलना, बच्चों के कुछ साल।
हँसी खुशी औ’ प्यार से, बचपन मालामाल॥
मानव मन चंचल बहुत, देखे अपना स्वार्थ।
लोभ मोह बढ़ता गया, भूल गया परमार्थ॥
अफसर नेता देश के, काम करें सब नेक।
तन के सौदे से मिली, उसे नौकरी एक॥
भ्रष्ट फरेबी लालची, ये सब की औकात।
इनसे न उम्मीद करें, झूठे सब ज़ज्बात॥
कुटिल चाल चलते गए, खूब बनाये माल।
क्या शिक्षा संस्कार है, शर्म नहीं न मलाल॥
आस बँधी जिस पुत्र से, होगा श्रवण कुमार।
आश्रम खुद पहुँचा गया, माँ से कितना प्यार॥
सब हैं इसी जुगाड़ में, भौतिक सुख मिल जायँ।
इच्छायें मरती नहीं, जब तक मर ना जाय़ँ॥
दूसरी प्रस्तुति - आयुर्वेद से अपेक्षाएँ कुछ ज़्यादा बढ़ गईं *
सभी धर्म के लोगों में, नई आस जगाने आया है।
अब गूँजेगी किलकारी, विश्वास दिलाने आया है॥
चारो धाम सारे तीरथ, हम दो- दो बार हो आये हैं।
व्रत उपवास किये बरसों, कई रात भभूत लगाये हैं।।
चांदी के झूले दान किए, चादर भी हमने चढ़ाये हैं।
क्या कुछ नहीं किया हमने, तिरुपति में बाल दे आये हैं॥
शादी की सिल्वर जुबली हो गई, पिता नहीं बन पाये हैं।
संतान सुख पाने के लिए, बाबा की शरण में आये हैं॥
धन्यवाद सब नेताओं को, बीज की बिक्री बढ़ गई।
पुत्र जीवक दवा निराली, सब की नज़र में चढ़ गई॥
युवा प्रौढ़ बुजुर्ग सभी, अपनी किस्मत चमकायेंगे।
उम्र में दादा दादी की, मम्मी- पापा बन जायेंगे॥
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आ० श्री सौरभ पाण्डेय जी
अपेक्षाएँ : पाँच क्षणिकाएँ
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१.
कुछ न कुछ तो पाता है
आधार-भूमि उर्वर न हो / तब भी
बीज अँकुर जाता है.
२.
क्या रोना ?
क्यों रोना ?
न होने से बेहतर है होना
इसे ही कहते जीवन बोना.. .
३.
बैलों जैसे खटते हैं
गर्म तवा पर फटते हैं
फिर भी, उनकी रातें हैं
उनके भी दिन कटते हैं
४.
महज़ आदमी नहीं
पूरा समाज झल्लाया दिखता है
बौखलाया हुआ जीता है
सभ्यता का जंगल
ऐसे में,
बदलने लगते हैं दृष्टिकोण
चढ़ने लगती हैं अपेक्षाओं की बेलें
किसी और दरख़्त पर..
५.
उगे थे, उगाये गये थे - पूर्वज
पूर्वजों ने निर्धारित कीं वंश की क्रमबद्ध अवलियाँ.
बोया गया था उसे भी
उसने बोया मुझे
अब मैंने भी बो दिये हैं बीज !
अपेक्षाओं की परम्परा दुर्निवार चलती है..
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आ० श्री गिरिराज भंडारी जी
अपेक्षायें - अतुकांत
अपने हाथों की पहुँच तो देख लेते
चादर और पैर का हिसाब भी गड़बड़ा गया लगता है आपका
छोड़िये पैर को, सर ही ढाँक लीजिये अब , यही सही रहेगा
निराश और रोनी सूरत का पता न चल पायेगा दूसरों को
बिना खुद मरे स्वर्ग मिला है क्या किसी को ?
अब बने बनाये , चलते फिरते रिश्ते भी ख़राब कर लेंगे आप
शिकायतें जो पाल रहे हैं आप , सभी अपनों से
कि , कोई सहरा नही देते , स..ब ऐसे ही हैं .... स्वार्थी
किसने कहा था ?
बेहिसाब इच्छायें पालने के लिये
इच्छाओं को जीवन मरण का प्रश्न बनाने के लिये
और वो भी दूसरों के भरोसे
क्या मैनें पहले भी ते बात नहीं कही है , कि
पर आश्रित इच्छायें अंत में दुख ही देतीं हैं
आपका अहम टूटता है वो अलग
क्योंकि इच्छायें जिस समय अंकुरित होतीं है उसी समय से
आपके अहम का हिस्सा हो जातीं हैं
मेरी इच्छायें ! मेरे.. इसकी, मेरे... उसकी इच्छायें
इच्छायें टूटने के दुख में , अहम टूटने की तकलीफ और जुड़ जाती है
दर्द दोहरा हो जाता है
अब एक सवाल पूछिये अपने आप से
क्या ये सच नहीं है ? कि आपकी अपेक्षा ही निराशा का कारण बन रही है
और अब, रिश्तों के बीच गहराती उन लकीरों का कारण भी बनती जा रही है
एक मात्र कारण ॥
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आ० डॉ० विजय शंकर जी
प्रथम प्रस्तुति : जीवन हैं तो अपेक्षाएं हैं
जिसने सब कुछ त्याग दिया
उसे शान्ति की अपेक्षा है ,
मोक्ष की अपेक्षा है ,
चाँद सूरज से अपेक्षाएं किसे नहीं हैं ,
ये धरती, ये आकाश किसे नहीं चाहिए ,
जिंदगी है तो हवा, पानी, आग भी चाहिए ,
यही तो जिंदगी है,
जिंदगी को और क्या चाहिए ,
चाँद को खुद सूरज से अपेक्षाएं हैं,
ब्रम्हांड को सूरज से प्रति क्षण अपेक्षाएं हैं ,
हवा को पानी से, पानी को हवा से ,
आग को दोनों से पल पल अपेक्षाएं हैं ,
धरती जो क्या कुछ देती है ,
सबसे अपना अंश चाहती है,
सब एक दूसरे पर आश्रित हैं ,
सबकी इक दूसरे से अपेक्षाएं हैं ,
.........फिर मैं कैसे कह दूँ कि
मैं पूर्ण हूँ तुम बिन , खुश हूँ ,
या तुम, मेरे बिन पूर्ण हो ,
सब की कुछ न कुछ सबसे अपेक्षाएं हैं
क्योँकि जीवन हैं तो अपेक्षाएं हैं ,
अपेक्षाएं हैं , तो जीवन हैं।
द्वितीय प्रस्तुति : उनकी अपेक्षाएं , इनकी इच्छाएं
तुम्हारी इच्छा थी
जनता तुम्हें सत्ता पे ले आये ,
तुम्हारा वादा था कि
पूरी कर दोगे तुम उनकीं अपेक्षाएं ,
सारी अपेक्षाएं,
अब तक अधूरी रह गयी अपेक्षाएं ,
कितनी अच्छी लगती थी तुम्हारी
ये ऊंची ऊंची, गगन - चुम्बी बातें ,
ऊंचे पर्वत शिखरों जैसे
दृढ़ तुम्हारे इरादे ,
क्षितिज तक जाते
तुम्हारे लुभावने वादे ,
पर न जाने कहाँ गुम हो जाते ,
तुम्हारे साथ सत्ता में नहीं आते ,
याद नहीं रह जाती तुम्हें
जनता की अपेक्षाएं
ऊपर आ जाती तुम्हारी
दबी हुयी इच्छाएं ,
अजीब संघर्ष होता , रोज होता ,
हार जातीं ,फिर अधूरी रह जातीं ,
जनता की अपेक्षाएं ,
खिखिलाती ,
पूरी हो जातीं तुम्हारी इच्छाएं ॥
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आ० डॉ० विजय प्रकाश शर्मा जी
करकता दर्द
बीतते समय के उदास उजाले में
ढूंढता हूँ
विकृत रिश्तों का सही अर्थ
व्यर्थ ही.
रिश्तों को जीवित
रखने की अपेक्षाएँ
रह जाती हैं, दिवास्वप्न.
काश !
पुराने को गले लगाकर
रो पाते,
चैन की नींद सो पाते.
नहीं होता आज
काँच की चुभन सा
करकता दर्द.
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आ० मिथिलेश वामनकर जी
प्रथम प्रस्तुति
अपेक्षाएँ, सभी को बड़ी होती है
यद्यपि मुंह बांये खड़ी होती हैं
इस जनता को सरकार से, सब प्रेमियों को प्यार से
एक बनिया को उधार से, और नदिया को धार से
सूखी धरती को आकाश से, घने अँधेरे को प्रकाश से
अवसरवादी को विनाश से, नौकरीपेशा को अवकाश से
अपेक्षाएँ, सभी को बड़ी होती है
जो केवल स्वप्न सी जड़ी होती है
हर रात को सहर से, एक गाँव को नगर से
भटके पथिक को डगर से, कामचोर को मगर से
हरेक घर को द्वार से, हर व्यक्ति को संसार से
एक भक्त को उद्धार से और अफसर को लाचार से
अपेक्षाएँ, सभी को बड़ी होती है
सिर्फ तीखी नज़र गड़ी होती है
द्वितीय प्रस्तुति
अकारण ही पाल बैठे हैं अपेक्षाएँ,
जबकि अपेक्षाएँ सदैव रही है त्रिभंगी मुद्रा में,
प्रवेश-निर्गमन में दुष्कर,
यथा एक असाध्य व्याधि,
सर्वशक्तिमान भी इच्छामय है...
जैसे ईश्वर होने में,
ईश्वर भी मरता है तिल-तिल कर.
पता नहीं क्यों ?
तीव्रतम हो जाता है-
जर्जरित पंजर के नीचे धड़-धड़ का स्वर....
जबकि आये है इस जग में
जन्म के समय से ही मृत्यु की घंटी बांधे.
यद्यपि मृत्यु शाश्वत है,
चिरंतन सत्य है,
लेकिन अवश्य दिए जाते है घटित के कारण,
ढूंढें जाते है कितने ही बहाने.
क्या ऐसा सच में नहीं कि-
एक मानव के असंतुलित मस्तिष्क का
परिणाम होती है अपेक्षाएँ.
जब सर्वव्यापी है
सर्वशक्तिमान है
तो फिर
उसके प्रीतिपूर्ण या निष्ठुर खेल पर क्या हँसाई-रुलाई ?
ये अभागिन धरती,
जिस सर्जना का कारण हुआ करती है..
हो जाती है उसी के विनाश का कारण,
और विलाप से ही लेकिन समा लेती है हृदय में.
क्या अब भी नहीं हो रहे है-
हृदय में अनुरणित समवेत स्वर ?
किसे मिली है कोई दृढ़ प्रतिश्रुति,
है तो सब विधि निर्दिष्ट न ?
तब भी / फिर भी
अपेक्षाएँ...
आखिर जिजीविषा है न !
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आ० महिमा श्री जी
उसे अपेक्षाएँ हैं मुझसे
कुछ कहने ,कुछ सुनने की
साथ में सपने बुनने की
पर है कितनी सच्ची ?
प्रश्न मुंह बाये खड़ा है
सफलताओं-असफलताओं के मापदंड पर
खुद को खंगालते हुए जाना
कितना कुछ छूट गया
अपेक्षाओं के अंतहीन जंगल में
उम्र के इस मोड़ पर,
मुझे ही रुसवा करेगीं,मेरी अपेक्षाएँ
कोई भ्रम पालने से अच्छा है
चुपचाप चलते रहना
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आ० सत्यनारायण सिंह जी
अपेक्षाओं के बिना
मानव के व्यक्तित्व का विकास
अधूरा है
क्योंकि अपेक्षाएं ही
जीवन के लक्ष्य को निर्धारित करतीं हैं
और लक्ष्य कर्मों की दिशा
एक अपेक्षा हीन व्यक्ति का जीवन
सर्वथा लक्ष्य हीन
तथा सहज अकर्मण्य होता है
यही अवस्था
व्यक्तित्व विकास के लिए
बाधक होती है
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आ० जितेन्द्र पस्टारिया जी
प्रथम प्रस्तुति....अतुकांत
बिन बाती के
दीप का
नही है, कोई भी अस्तित्व
और दीप बिना
बाती कैसी..?
बाती, नित जलकर बिखेरती है रोशनी
दीप के काँधे पर
और दीप समेट लेता है, अपने अंदर
सारी तपन
बिन बाती के दीप, पात्र है
और बाती, सूत.
कभी, कहीं न कहीं
एक-दूजे की अपेक्षायें
अधिक ही होगी
तभी तो शायद, अमावस की
बस! एक ही रात
दीपावली है
शेष, अमावस ही बनी हुई है.
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आ० मोहन सेठी ‘इंतज़ार’ जी
प्रथम प्रस्तुति :.ऐ ख़ुदा
ऐ ख़ुदा
तू क्या कर रहा है वहाँ सुनसान में
उस खुले और खाली आसमान में
जहाँ हवा तक नहीं
देख इस ज़मीं पर
हवा है मौसम है
फूल है पत्ती है
खुशबु है मुहब्बत है
पहाड़ है घाटी है
कितना ख़ुशगवार हर लम्हा है
आ तू भी आ ज़मीन पे
ऊपर तू बहुत अकेला हो जाता होगा
चल आज तुझे मैं
इस हसीन दुनियाँ की सैर करा लाता हूँ
तूने ये खिलोने बनाये हैं
तो कभी जमीं पे आ के खेला करो
खिलोनों को अच्छा लगता है
जब तेरी गोद में खेलें
अब तू हमारा है तो
तुझसे अपेक्षा भी है
कि कल का दिन भी कुछ ऐसा ही हसीं देना
और हो सके तो मेरे महबूब को मिला देना !!
द्वितीय प्रस्तुति
वक़्त की मिट्टी में
दफ़न तेरी यादें
कब्र से निकलने की
गुस्ताख़ी जब कर बैठती हैं
मैं तनहा अपनी तनहाइओं से
इस्तकबाल-ए-महबूब
कर लिया करता हूँ
बस यूँ ही
जी लिया करता हूँ
हाँ अपनी मीठी यादों से बार बार
आने की अपेक्षा करता हूँ
नहीं नहीं तुमसे नहीं ...
कोई अपेक्षाएँ नहीं तुमसे
वो तो अपनों से हुआ करती हैं
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आ० रमेश कुमार चौहान जी
शक्ति छंद
अपेक्षा नही है किसी से मुझे ।
खुदा भी नही मुफ्त देते तुझे ।।
भजन जो करेगा सुनेगा खुदा ।
चखे कर्म फल हो न हो नाखुदा ।।
पड़े लोभ में लोेग सारे यहां ।
मदद खुद किसी का करे ना जहां ।।
अपेक्षा रखे दूसरों से वही ।
भरोसा उसे क्या कुुबत पर नही ।।
मदद जोे करे दूसरो का कहीं ।
अभी भी बचा आदमीयत वहीं ।
कभी सांच को आंच आवे नही ।
कुहासा सुरूज को ढकें हैं कहीं ।।
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आ० नीरज कुमार ‘नीर’ जी
जब मैं जन्मा तो था एक झरना
कल कल करता उछल कूद मचाता हुआ
अशांत पर निश्चिन्त ।
फिर हुआ एक चंचल, अधीर नदी
अनवरत आगे बढ़ने की प्रवृति, उतावलापन
मुझे नियंत्रित करती रही मजबूत धाराएँ ।
और अब सागर बनने की राह पर हूँ
ऊपर ऊपर धाराएँ
अब भी नियंत्रित करने का प्रयास करती हैं
पर भीतर शांत
मेरी अपेक्षा है
धीरे धीरे मैं बन जाऊं हिम सागर
बिलकुल ठोस
जिसकी प्रकृति एक सी होगी
अंदर बाहर सघन शांत ।
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आ० निलेश ’नूर’ जी
अतुकांत-छंदमुक्त प्रस्तुति
जज़्बात
फसल है,
याद की उन बीजों की
जिन्हें बरसों पहले कभी
बो दिया था
दिल की मिट्टी में
बहुत गहरें.
और तैनात कर दी थी
एक जोड़ी आँखें
जिन्हें सींचने के लिए.
.
आकर देखो
कितने चेहरे उग आए हैं.
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आ० राजेश कुमारी जी
बीज बोये थे
भुरभुरी आशाओं के
फल लगे
मगर निराशाओं के
टीहूँ टीहूँ कर
ढूँढती टिटहरी अंडे
जो हुए शिकार
कभी ओलों के
कभी उमसभरी
दुपहरी के
बिछी हैं लाशें
खेतों में फसलों की
कफ़न सिलता
कही कोई दर्जी
इंसानों के
चिथड़े-चिथड़े हुई
अपेक्षाएँ
बस रंगे गए
पन्ने अखबारों के
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आ० कान्ता रॉय जी
प्रथम प्रस्तुति
छोटा सा बच्चा
पीठ पर टाँगे
अपेक्षाओं का बस्ता
अँगुली थामे माँ की
बढ़ चला था
स्कूल की गली
नजर मैदान पर पडी
मैले से कुछ मासूम
मगन हो मस्ती में अपने
बेफिक्र हो खेल रहे थे
बचपन के मजे लूट रहे थे
वो नन्हा सा बच्चा
जिसके पीठ पर लदा था
अपेक्षाओं का बस्ता
भारी महसूस हुआ उसे
सहसा पीठ पर टंगा
अपेक्षाओं का बस्ता
वो खेलना चाहता था
उसी मैदान में
खाली पीठ के साथ
मासूम था उदास
अब बोझिल हो
उठा था वह भार से
रो पडा था सहसा
माँ की अंगुली छुड़ा कर
गिरा कर अपेक्षाओं का बस्ता
दौड़ पडा मैदान की ओर
बचपन की छाँव की ओर
जहाँ बेफिक्र होकर
बचपन खेल रही थी
सहसा वह चौंक उठा
माँ ने फिर से टाँग दिया
पीठ पर उसके
अपेक्षाओं का बस्ता
वो मायूस हुआ
वो हताश हुआ
सड़क पर चलते हुए
कुछ सोच रहा था
अपेक्षाओं के बस्ते को
वह तौल रहा था
एक दिन बडा होकर
अपेक्षाओं से निवृत्त होकर
दुनिया एक बनायेगा
उतार फेंकेगा एक दिन
बच्चों के पीठ से
वह अपेक्षाओं का बस्ता ।
द्वितीय प्रस्तुति
शक्ति - प्रकृति बन जाऊँ
ना रहू अब पद - तल में
ना करूं विनम्र विश्राम
हो सुरभित अनंत में
सह कर मन की पीड़ा
हो उठी मै धरा अक्रांत
आज तिरोहित हो कुंज भी
मन माँगे अबके विश्रांत
देव बने आप अपने में
क्यों मुझसे की अपेक्षाएँ
माफ करो स्वंय भार सहो
ना दो मुझे और आपदाएँ
रूदन आहत मै धरा
मन जंगल हृदय जले
तुम बने उन्मुक्त विलासी
धरा जीवन स्वप्न भूले
अपेक्षा की उपेक्षा किये
अपने मद तुम चूर रहे
हो उन्मुक्त और विलासी
धरा ही जीवन भूल गये
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आ० तनुजा उप्रेती जी
वह गया
वह गया I
कई खंड हृदय के
करके चला गया
आशाएं थी उससे
अपेक्षाएं थीं कई
पर अब निराशा है
सभी आशाएं मिट गयी
विश्वास था कि उन्नति का
जो कार्य है अपूर्ण
अपनी पूर्ण शक्ति से
करेगा उसे पूर्ण
पर डूब चुका था वह
अँधेरे कुँए में
हार गया जीवन
नशे से जुए में
अपने जीवन का तामस
युवाओं अब हरो
राह निश्चित मिलेगी
साहस तो तुम करो
निमग्न होकर गरल में सुधा कहाँ से पाओगे
व्यर्थ बीता जो यौवन वो यौवन कहाँ से लाओगे I
कुछ स्वप्न शेष हैं अभी जो सँवारने हैं
जननी जन्मभूमि के कुछ ऋण उतारने हैं I
तुम राष्ट्र की हो शक्ति तुम समाज का आधार
जागो अब इस निद्रा से चेतना करती आर्त पुकार I
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आ० डॉ० गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी
प्रथम प्रस्तुति
कब छोड़ कर गई माँ
नहीं जानते मेरे देवता
जब समझ ने आँख खोली
सामने थे पिता
पिता कहते थे
जब यह था अबोध अयाना
तब भी माँ के पास न रुकता
मेरी गोद में आकर चुप होता
मैं सोचता यह प्रकृति विपर्यय क्यों ?
आज सोचता हूँ
मुझे ही पालना था इसे
इसके मूत्र से था भीगना
मेरे लिये पिता ही थे सर्वस्व
माँ भी वही तात भी वही
मेरी अपेक्षाओं के मूल थे वे
पूरी करते थे मेरी मांगे
देते थे मेरे अटपटे प्रश्नो के
रहस्यमय उत्तर
मैं समझता था
उसे सारा सच
रात को सोता था
उनके वपुष से लिपट
नन्हा सा मैं
अपने सारे द्वन्द भूलकर
किसी से होता कभी
यदि असंतोष तो
कहता विश्वास से –‘पापा से कह दूंगा’
मानो पापा भगवान थे
अपेक्षा नहीं, समाधान थे
धीरे-धीरे बड़ा हुआ
पिता की सीमायें जानी
उनका संघर्ष देखा
मेरे उत्कर्ष में उनका अपकर्ष देखा
फिर देखा उनकी अक्षमताएं
उनका वार्धक्य
उनकी परवशता
उनकी बीमारी और अपना कर्तव्य
उनकी अपेक्षाएं उन का मंतव्य
उनकी बीमारी में
मुझे दिखी सीमा
अपने कर्तव्य की
श्रम की सामर्थ्य की
और घटते द्रव्य की
क्या किया पता नहीं
कर सका पता नहीं
मेरी सामर्थ्य क्या
सच तो घटित हुआ
वह छोड़ कर चले गए
मुख मोड़ कर चले गए
कोई अपेक्षा नहीं कोई अवसाद नहीं
कोई कामना नहीं कोई प्रतिवाद नहीं
अब मैं बूढा हूँ , बेटे जवान है
कर्तव्य का बोध कम
अपेक्षाएं महान हैं
और मैं जानता हूँ
उनकी मजबूरियां
उगते और अस्त होते सूरज की दूरियां
पर मुझे गिला नहीं
स्नेह सम्बन्ध है प्रस्तर शिला नहीं
वत्स, घबराओ मत
मैंने पूरे जीवन में तिल-तिल जोड़कर
जो भी सहेजा उसे जाऊंगा छोड़कर
तुमसे यदि हो सके तो
घाट तक आना तुम
मेरे प्यारे बच्चों पर
अश्रु न बहाना तुम
यह तो होता ही है
होता रहेगा I
द्वितीय प्रस्तुति
अच्छा अच्छा कर्म कर, शीघ्र और तत्काल
नेकी कर फिर तू उसे, दे दरिया में डाल
.
अधिक अपेक्षा मत करो, होगा कष्ट विशेष
असंतोष विक्षोभ का हो जाएगा श्लेष
गीता में भी कृष्ण ने कही अमर यह बात
त्याग अपेक्षा सुफल की, कर्म करो तुम तात
बिना अपेक्षा कर्म का है सिद्धांत निगूढ़
समझ नहीं पाते उसे जो उद्भट मतिमूढ़
समझो उसको इस तरह छोड़ सभी प्रतिकार
फल पर अपना वश नहीं किन्तु कर्म अधिकार
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आ० ज्योत्सना कपिल जी
प्रथम प्रस्तुति
माँ का जग में नाम बहुत,
ऊँचा है स्थान बहुत,
माँ की ममता,उसके फ़र्ज,
सबका ही गुणगान बहुत।
माँ क्या सोचे,माँ क्या चाहे
देता नहीं है कोई ध्यान,
नहीं चाहती तुमसे बच्चों,
कोई अनूठा सा बलिदान।
तुम पढ़ जाओ,कुछ बन जाओ,
मेरे लिए यही है अर्जन।
तुमसे केवल आस यही,
हो जाऊँ निर्बल,असहाय
हाथ का मुझे सहारा देना,
टूटे जब भी चश्मा मेरा,
बिना बहाने बनवा देना।
डगमगाऊँ जब चलने में तो,
हाथ में लाठी पकड़ा देना,
अधिक नहीं बस,दिन में एक बार,
कैसी हो माँ ? ये पूछ लेना।
नहीं चाहिए छप्पन भोग,
बस प्रेम निवाला मुझको देना।
कभी पडूँ बीमार अगर मैं,
स्नेह से माथा सहला देना,
और चाहूँ अंत में ये कहना,
अवहेलना,प्रताड़ना का दंश न देना।
द्वितीय प्रस्तुति ; अपेक्षा बेटी की
गर्भ से बेटी की चीत्कार ।
सुनो माँ मेरी करुण पुकार ।।
मुझे दुनिया मेँ आने दो ।
गीत जीवन का गाने दो ।।
मुझे भी जीने का अरमान ।
मारने का न करो सामान ।।
मैँ अपनी सुंदर आँखेँ खोल ।
आपको दूँगी मीठे बोल ।।
सुनो पापा मेरी यह बात ।
मचलते हैँ मेरे जज़वात ,
थके-हारे घर आओगे ।
मुझे जब हँसती पाओगे ।।
देख कर मेरी मृदु मुस्कान ।
आपकी होगी दूर थकान ।।
माँ तुम्हेँ नहीँ सताऊँगी ।
काम मेँ हाथ बटाऊँगी ।।
सहारा इतना सा देना ।
मुझे भी शिक्षित कर देना ।।
आत्मरक्षा कर लूँगी मैँ ।
किसी से नहीँ झुकूँगी मैँ ।।
मुझे अपने सँग पाओगी ।
तुम फूली न समाओगी ।।
ध्यान तुम्हारा धरूँगी मैँ ।
सहारा सदा बनूँगी मैँ ।।
गर्भ से बेटी की चीत्कार ।
सुनो माँ मेरी करुण पुकार ।।
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आ० पंकज जोशी जी
प्रथम प्रस्तुति
जीवन की आपाधापी में
छूट गए संगी साथी
कर्मक्षेत्र में उतर पड़े जो
जायेंगे जीत वही बाजी ,
क्या होगा कल , किसको चिंता
हार जीत है रणक्षेत्र यह
कर्म अपेक्षित कर्मभूमि में
जीवन पावन यह कर्म क्षेत्र
जीवन लक्ष्य करो निर्धारित
और कूद पड़ो इस समर भूमि में
‘नर हो ना निराश करों मन को ‘
यह मंत्र अभीष्ट करो धारण
जब लगे श्वांस उखड़ी उखड़ी
करना प्रयत्न अपना दुगना
यह जीवन समर भूमि अर्पित
हे प्रभु अपनी छाया रखना
मेरी कविता पढ़ने वालों
है यही अपेक्षा मेरे मन में
जीवन सार्थक कर दे सबका
ओज भरे सबके मन में
द्वितीय प्रस्तुति
अंतर्मन से रह रह कर
है उठाती आवाज यही
भारत को फिर से
सोने की चिड़िया कहलाना ,
क्या यह संभव हो पायेगा
मुझ अकेले मानव से
साथ चाहिए मुझे सभी का
राष्ट्र के निर्माण में ,
नव निर्माण के इस युग में
रिश्तों ने रिश्तों को त्याग दिया
माँ – बाप रहते वृद्ध।श्रम में
और बच्चे फाइव स्टार में ,
यह कैसी संस्कृती है पनपी
कैसे इसका जन्म हुआ
कैसे भूले हम अपना वैभव
आज देश फिर पराधीन हुआ ?
क्यों भारतीय संस्कृति का निरंतर
हो रहा है आज हृास
रोती निर्भया आज भी
मांगती फिर रही इन्साफ ,
अर्धनग्न शरीर लिए
इठलाती फिरती भारतीय नारी
कैसे शहीद अपेक्षा रखे
विकसित हो परंपरा सनातनी ,
यही अपेक्षा है सबसे
मत भागो आधुनिकता के पीछे
तोड़ो बेड़ियाँ संकीर्णता की
आओ राष्ट्र निर्माण करें ,
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आ० छाया शुक्ला जी
कई बार ढहा
महल स्वप्न का ,
कई बार
दीवार उठ गई है |
शत शत प्रमाण हैं लेकिन
विनाश को भूल
विकास की लहर
दौड़ गई है |
उम्मीदें टूटी
अपेक्षाएं सर गई हैं ,
पर
हारा कब है मानव
पकड़कर नई भीति
महल खड़ा किया है |
लगाकर पैबंद
सिलता है फटा
सपनों के महल को
फिर फिर है गढ़ा
किया है साकार
उसने जो देखा
लांघकर
सभी सीमा रेखा ||
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आ० लक्ष्मण रामानुज लड़ीवाला जी
इस पर थोड़ा करों विचार
मानव चाहे सुख से रहना, करता पर वह अत्याचार
गला काटकर औरों का ही, पालें वह खुद का परिवार |
मानव हित में सोच सभी की, इस पर आओ करे विचार
अभी समय है सोचें अब तो, तभी रहेगा यह संसार |
सुविधाएं तो सभी चाहते, सजग कहाँ है मानव आज,
नहीं बचाते बिजली पानी, गिर सकती है कल फिर गाज |
वृक्ष काटकर शहर बसातें, पर्वत पर कर रहे प्रहार
जलधारा फिर कहाँ बहेगी, जो है जीवन का आधार |
बिन रिश्वत के काम न करते, लूटें धन पर करते नाज,
जनता से जो वादें करते, नहीं निभाते नेता आज |
आशाओं पर खरें न उतरें, सुविधाओं के वे हकदार
देश बचाना है यदि हमको, इस पर थोड़ा करों विचार |
हो विवाह सुंदर कन्या से, इसी चाह से करे जुगाड़,
पर कन्या को मार कोख में, भावी जीवन करे उजाड़ |
भावी बेटा रहे कँवारा, बिना बहूँ कैसा परिवार,
अभी समय है समझें इसको, तभी बचेगा ये घरबार |
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आ० समर कबीर जी
प्रथम प्रस्तुति
तेरे दिल की अपेक्षाएँ सब
अब हैं मेरी अपेक्षाएँ सब
शब में देती हैं दस्तकें दिल पर
झूटी सच्ची अपेक्षाएँ सब
दाल रोटी के गिर्द घूमती हैं
अब तो अपनी अपेक्षाएँ सब
एक दिन मार दीं मिरे मुंह पर
उसने मेरी अपेक्षाएँ सब
दिल प इक बोझ बन गईं देखो
प्यारी प्यारी अपेक्षाएँ सब
आज कांधों पे लेके घुमते हैं
अपनी अपनी अपेक्षाएँ सब
रास्ता रोक कर खड़ी हैं "समर"
छोटी छोटी अपेक्षाएँ सब
द्वितीय प्रस्तुति
हर अपेक्षा से
दूसरी अपेक्षा का जन्म होता है
सिलसिला
ख़त्म ही नहीं होता,
दिल में
कितनी अपेक्षाएँ हैं,
कर रहा हूँ बयाँ
मैं सदियों से
सिलसिला
ख़त्म ही नहीं होता
थक गई है,
मेरी ज़बान भी अब
अब क़लम भी
मेरा कराहता है
मेरे दिल से
पनाह माँगता है
दिल,
किसी तौर
मानता ही नहीं
ये कोई बात
मानता ही नहीं
सिलसिला
ख़त्म ही नहीं होता
और न ये
ख़त्म होने वाला है
ये तो इंसान की
सरिश्त में है
सिलसिला
इन अपेक्षाओं का
ख़त्म हो जाएगा
जब आएगा
आख़री प्रलय !
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आ० सुशील सरना जी
प्रथम प्रस्तुति :अपने अस्तित्व को
दूर हो जाओ ….
हाँ,हाँ …..
मुझसे दूर हो जाओ //
मुझे बेवजह के सहारों से …..
बहुत डर लगता है //
मैं उजालों की भयानकता से ....
अंधेरों की व्यापकता से .......
और छद्म वेश में छुपी दरिन्दगी से डरती हूँ //
क्यों अपनी दया का पैबंद …..
मेरे नुचे हुए क्षत-विक्षत से आँचल पर …..
लगाने का प्रयास करते हो //
मेरे आंसू पोंछ कर ….
क्योँ अपना कीमती रुमाल खराब करते हो //
तुम पुरुष हो ….
मेरे आंसू पोंछ कर ….
समाज में अपनी सहृदयता का …..
परचम फहराओगे //
दिखावे के लिए …
फिर और किसी नारी के ….
आंसू पोंछने चले जाओगे //
लेकिन सच कहती हूँ ….
जब तक समाज में ….
घिनौनी सोच वाले दुशासन …..
अपने नुकीले नाखूनों ….
से पाक अंचलों को ….
नापाक करते रहेंगे ....
तब तक ……
नारी देह का ……
वासना की बलिवेदी पर ….
शोषण होता रहेगा //
जब तक …..
नारी के सिर से ….
चुनरी के मान का ….
चीर हरण होता रहेगा ....
तब तक ..
ऐ मेरे हमदर्द …
तुम्हारा हर प्रयास …
रजनी के तम में …
लुप्त होता रहेगा //
तुम्हारी दया के मरहम से …
नारी हृदय का घाव …
न सूख पायेगा //
अँधेरा कहकहे लगाएगा //
धीरे धीरे ये अँधेरा …
उजाले को भी निगल जाएगा //
तुमसे कोई भी अपेक्षा रखना व्यर्थ है //
तुम अपने पुरुषत्व से ....
नारीत्व के अंतर्द्वंद को न मिटा पाओगे //
मैं अपनी अपेक्षाओं को …
अपने दामन में समेट कर ....
कैसे भी जी लूंगी ....
मगर अपने अस्तित्व को ....
अपेक्षाओं के भ्रमजाल में ....
खोने न दूंगी //
द्वितीय प्रस्तुति : दो बूंदों में डूब के रह गयी ....
थक जाते हैं चलते कदम पर
राह कभी भी थकती नहीं
अभिलाषाओं की गठरी बांधे
हृदय की गागर भरती नहीं
आरम्भ की होती सबको चाहत
अंत किसी को भाता नहीं
बिन भानु तो कभी जीवन में
आशा का प्रभात आता नहीं
मिथ्या में भी आशा ढूंढें
जीव के स्वप्न निराले हैं
क्यों जीता है भ्रम में जाने
हाथों में यथार्थ के निवाले हैं
आता है वो वक्त के जब
चश्मे से भी नज़र नहीं आता
जीवन भर की अपेक्षाओं का
कोई मोल समझ नहीं पाता
दो बूंदों में डूब के रह गयी
हर अपेक्षा जीवन की
अंजलि को सौगात मिली बस
दर्दीली उपेक्षा जीवन की
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आ० अविनाश बागडे जी
प्रथम प्रस्तुति : कुछ हाइकु !
जो अपेक्षाएँ
कद से ऊँची उठी
है समस्याएं
अपेक्षा करो
शर्मिंदा न हो लाला
सामनेवाला
मेरी अपेक्षा
अनदेखा करती
तेरी उपेक्षा
माँ की अपेक्षा
सलामती बेटे की
बेटी ! उपेक्षा !!
अपेक्षा हुई
मन जुड़ नहीं पाये
उपेक्षा हुई
जीवन रंग
मिला तो खूब मिला
अपेक्षा भंग
अपेक्षा दान
ना ही बेटी ना बेटा
स्वस्थ संतान
बेटे की अपेक्षा
घर बसा बेटे का
माँ की उपेक्षा
पत्थर मारा
पूरी फल की आशा
पेड़ बेचारा
मानी मनौती
मै बच गया पूरा
कटा बकरा
माँ क्या बताये
अनंत अपेक्षाएँ
बच्चे मुस्काएं
द्वितीय प्रस्तुति
अपेक्षाएँ
परछाइयों की तरह
होती है
सुबह
हमारे कद से बड़ी
दोपहर तक
घटती जाती
मध्यान्ह में
लगभग ख़त्म
शाम होते होते
अपेक्षाएं
फिर
परछाइयों की तरह
हम से
बड़ी होने लगती है
रात की
अपेक्षाएं तो
पूरी तरह
चाँद के
मूड पर
टिकी होती हैं
अपेक्षाएं
समय की गुलाम
होती है !
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आ० दिनेश कुमार जी
'दुख का मूल हैं अपेक्षाएँ'
भगवद्गीता का सार है यह।
फल प्राप्ति की उम्मीद के बिना कर्म
मोक्ष की ओर ले जाएगा।
अन्यथा मानव, पुनः जन्म ही पाएगा।
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आ० श्री अरुण कुमार निगम जी
दोहे – अपेक्षायें
मन-आँगन में पल्लवित , चुभती बन कर शूल
सदा अपेक्षा दु:ख का , बनती कारण मूल |
नेकी कर संसार में , और नदी में डाल
इसी तरह से काट ले , जीवन के जंजाल |
कर्म किये जा बावरे , फल की इच्छा त्याग
जो तेरा है ही नहीं , उससे क्यों अनुराग |
मँडराती रहती सदा , सम्मुख कभी परोक्ष
जहाँ अपेक्षा है वहाँ , सम्भव कैसे मोक्ष |
त्याग अपेक्षायें अरुण , मन को कर ले शुद्ध
अपना मध्यम - मार्ग को , तुझे मिलेंगे बुद्ध |
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आ० नादिर खान जी
क्षणिकाएँ
(एक)
चमचमाती
मुँह चिड़ाती
बड़ी - बड़ी इमारतें
बड़े - बड़े मॉल .........
चीखते चिल्लाते अब भी हैं
नीचे दबा दिये गये
झोपड़ियों, खलिहानों के अंश ......
गरीबों की अपेक्षाएं दम तोड़ रही हैं
मगर सुना है
विकास ज़ोरों पर है ।
(दो)
जनता की आवाज़
लौट आती है टकराकर
साउंड प्रूफ दीवारों से
अंदर के लोग डरे हुये है
(तीन)
जाना तो हम सबको है
आने वाले का रिटर्न टिकिट
कन्फ़र्म है
एक्सपयरी डेट निर्धारित है
फिर क्यों उद्देश्यहीन, दिशाहीन भाग-दौड़ ...
कुछ मै सोचूँ कुछ तुम सोचो
एक बेहतर कल
एक खूबसूरत विरासत
अपने बच्चों के लिए
कि आने वाली पीढ़ी
हम पर नाज़ करे
और हम ले सकें शुकून के साथ
अंतिम साँस ......
(चार)
प्रकृति का नियम है
हम जो देते है
उसी का रिटर्न पाते हैं
कभी कभी तो
इण्टरेस्ट के साथ भी ....
ईश्वर जानता है
हमारी अपेक्षाओं को
हमारी नियत को भी
और बरकत वैसी ही देता है
फिर शिकवा शिकायत किस बात का ....
नियत साफ़ हो तो डर काहे का
न दुनिया का, न आखिरत का ...
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आ० सूर्य कान्त गुप्ता जी
अपेक्षायें अपि पालिये, रख मन किंचित त्याग.
गति अति की पहचानकर, कभी न छेड़ें राग.
कभी न छेड़ें राग, ध्यान संतान न देते.
भड़कावें वे आग, मित्र मजे जो लेते.
कर्तव्य बोध के साथ आज सब निभे निभायें.
मिले न गम का साथ, हों न यदि अपेक्षायें
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आदरणीया डॉ प्राची सिंह जी,
आयोजन की सफलता हेतु हार्दिक बधाई एवं इतने कम समय में संकलन के श्रमसाध्य कार्य को पूर्ण कर संकलन प्रस्तुत करने के लिए हार्दिक आभार.
आयोजन की सफलता का श्रेय प्रतिभागियों की उत्साही साथ ही साथ संयत व सजग प्रतिभागिता को भी जाता है.. प्रदत्त विषय पर उत्कृष्ट प्रस्तुतियों से महोत्सव को सफल बनाने के लिए सभी सहभागी रचनाकार साथियों का और आपका हार्दिक धन्यवाद आ० मिथिलेश जी
आदरणीया डा.प्राची जी. सादर नमन
इस सफल आयोजन की हार्दिक बधाई व् शुभकामनाये. इस बार का विषय काफी संवेदनशील था, जिस पर सभी रचनाकारों ने भावपूर्ण प्रस्तुतियां दी . सभी रचनाकारों को बधाई , आपके द्वारा रचनाओं के संकलन कार्य को पूर्ण किया गया , आपका बहुत-बहुत आभार
सादर!
प्रदत्त विषय पर जिस प्रकार से सभी रचनाकार साथियों नें गंभीर रचनाकर्म किया है.. उसे देख बहुत संतोष हुआ है..प्रसन्नता हुई है..
संकलन कर्म को मान देने के लिए धन्यवाद आ० जितेन्द्र जी
आदरणीया प्राचीजी, जैसी कार्यालयी व्यस्तता तथा आपके कॉलेज-परिसर में तारी जिन परिस्थितियों में आपने इस संकलन को तैयार कर नियत समय में प्रस्तुत किया है वह आपके अदम्य समर्पण का ही परिचायक है. विश्वास है, आप अपने कार्यालयी एवं व्यावसायिक दायित्वों के निर्वहन के साथ-साथ इस मंच की अन्यान्य अपक्षाओं के प्रति भी शीघ्र ही संलग्न होंगीं.
शुभेच्छाएँ.
आदरणीय सौरभ जी,
मुझे भी इस चीज़ का भान है... कि मंच के प्रति अपने दायित्वों के निर्वहन में मेरी कार्यालयी, व्यावसायिक, निजी व्यस्तताएं आड़े आ रही हैं... कोइ रास्ता तो निकालना ही होगा अब मुझे :))) आपने मेरी परिस्थितियों को समझते हुए इस संकलन कर्म को मान दिया आपकी आभारी हूँ आदरणीय
सादर.
आदरणीया प्राचीजी,
महोत्सव के सफल आयोजन और संकलन के लिए हार्दिक आभार।
दोनों प्रस्तुति में संशोधन है अतः पूरी रचना पुनः पोस्ट कर रहा हूँ। संकलन में कृपया स्थान दीजिए।
सादर
प्रथम प्रस्तुति - अपेक्षाएँ [ दोहे ]
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मस्ती खाना खेलना, बच्चों के कुछ साल।
हँसी खुशी औ’ प्यार से, बचपन मालामाल॥
मानव मन चंचल बहुत, देखे अपना स्वार्थ।
लोभ मोह बढ़ता गया, भूल गया परमार्थ॥
अफसर नेता देश के, काम करें सब नेक।
तन के सौदे से मिली, उसे नौकरी एक॥
भ्रष्ट फरेबी लालची, ये सब की औकात।
इनसे न उम्मीद करें, झूठे सब ज़ज्बात॥
कुटिल चाल चलते गए, खूब बनाये माल।
क्या शिक्षा संस्कार है, शर्म नहीं न मलाल॥
आस बँधी जिस पुत्र से, होगा श्रवण कुमार।
आश्रम खुद पहुँचा गया, माँ से कितना प्यार॥
सब हैं इसी जुगाड़ में, भौतिक सुख मिल जायँ।
इच्छायें मरती नहीं, जब तक मर ना जाय़ँ॥
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दूसरी प्रस्तुति - आयुर्वेद से अपेक्षाएँ कुछ ज़्यादा बढ़ गईं
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सभी धर्म के लोगों में, नई आस जगाने आया है।
अब गूँजेगी किलकारी, विश्वास दिलाने आया है॥
चारो धाम सारे तीरथ, हम दो- दो बार हो आये हैं।
व्रत उपवास किये बरसों, कई रात भभूत लगाये हैं।।
चांदी के झूले दान किए, चादर भी हमने चढ़ाये हैं।
क्या कुछ नहीं किया हमने, तिरुपति में बाल दे आये हैं॥
शादी की सिल्वर जुबली हो गई, पिता नहीं बन पाये हैं।
संतान सुख पाने के लिए, बाबा की शरण में आये हैं॥
धन्यवाद सब नेताओं को, बीज की बिक्री बढ़ गई।
पुत्र जीवक दवा निराली, सब की नज़र में चढ़ गई॥
युवा प्रौढ़ बुजुर्ग सभी, अपनी किस्मत चमकायेंगे।
उम्र में दादा दादी की, मम्मी- पापा बन जायेंगे॥
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यथा निवेदित तथा प्रतिस्थापित
प्रिय प्राची जी,महोत्सव के संकलन हेतु बहुत- बहुत आभार एवं महोत्सव की सफलता के लिए आपको तथा समस्त रचनाकारों को हार्दिक बधाई |
आवश्यक सूचना:-
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