श्रद्धेय सुधीजनो !
"ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-63, जोकि नए वर्ष का प्रथम आयोजन था तथा दिनांक 09 जनवरी 2016 को समाप्त हुआ, के दौरान प्रस्तुत एवं स्वीकृत हुई रचनाओं को संकलित कर प्रस्तुत किया जा रहा है. इस बार के आयोजन का शीर्षक था – ‘खंजर’.
पूरा प्रयास किया गया है, कि रचनाकारों की स्वीकृत रचनाएँ सम्मिलित हो जायँ. इसके बावज़ूद किन्हीं की स्वीकृत रचना प्रस्तुत होने से रह गयी हो तो वे अवश्य सूचित करेंगे.
सादर
मिथिलेश वामनकर
(सदस्य कार्यकारिणी)
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1. आदरणीय समर कबीर जी
छन्न पकैया (सार छन्द)
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छन्न पकैया छन्न पकैया, सब ने देखा मंज़र
जब जब मेरे दिल में यारो उतरा दुःख का ख़ंजर
छन्न पकैया छन्न पकैया,उपमा दी कुछ ऐसी
उसकी बातों में होती है, तेज़ी ख़ंजर जैसी
छन्न पकैया छन्न पकैया ,नफ़रत मन में जागे
तेरा लहजा ख़ंजर जैसा, मेरे दिल को लागे
छन्न पकैया छन्न पकैया ,चहरा ऐसे दमके
सूरज की किरणों से जैसे, ख़ंजर कोई चमके
छन्न पकैया छन्न पकैया,पड़े न इन से पाला
दोनों ही इक जैसे घातक, ख़ंजर हो या भाला
छन्न पकैया छन्न पकैया, उसकी आँखे ऐसी
चाक़ू वाक़ू ,ख़ंजर वंजर, सब की ऐसी तैसी
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2. आदरणीय पंकज कुमार मिश्रा ‘वात्सायन’ जी
ग़ज़ल
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खंजर लेकर बैठे हो तो, क्यों न चला देते।
सौंप दिया है दिल तुमको लो, क्यों न मिटा देते।।
हुश्न के दरिया में उतरा है, मन पतवार बिना।
सौंप दिया कश्ती तुमको लो, क्यों न डुबा देते।।
गुस्ताखी की माफ़ी वाफ़ी, हमको नहीं आती।
ख़ता हुई है ग़र मुझसे तो, क्यों न सज़ा देते।।
बंधा हुआ है प्राण ये जाने कब से बन्धन में।
इन आँखों से मोह का पर्दा, क्यों न हटा देते।।
वैसे ही नाराज़ है किस्मत, तुम भी ख़फ़ा हो लो।
इस माटी को माटी में लो, क्यों न मिला देते।।
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3. आदरणीय डॉ टी. आर. शुक्ल जी
वाक् ख़ंजर (अतुकांत)
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वे जो पैर पड़ते हैं
पैर उखाड़नें के लिये ,
गले मिलते हैं वाक् खंजर से
गला काटने के लिये,
दूर नहीं आसपास होते हैं।
उनका न कोई अपना होता है न पराया
पर वे, सबके,
गैर नहीं, खास होते है।
मच्छर भी पहले,
गिरते हैं पैरों पर।
फिर करते हैं हमारा रक्तपान,
यह भी तब पता चलता है हमें ,
जब वे करते हैं-- ---
कान के पास गुणगान।
इन सब से बचने का
उपाय सोचते हम,
रोज इनके खंजर से कटते,
मिटते और लुटते हैं,
फिर भी ,
दूर होना या दूर करना तो दूर ...
दिन रात पास पास रहते हैं।
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4. मिथिलेश वामनकर
गीत (दोहा छंद आधारित)
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यारा अब तो छोड़िये,
तीखा यह व्यवहार
ऐसे तो मत कीजिये, खंजर दिल के पार
शंकायें निर्मूल हैं,
संबंधों के साथ.
प्रतिदिन बढ़ती दूरियाँ,
कब खुशियाँ फिर हाथ.
कहिये सच्ची प्रीत में, कब होता व्यापार?
ऐसे तो मत कीजिये, खंजर दिल के पार.
हर पल बस अभिमान की,
यूँ मत छेड़ो तान.
ये छीने सुख चैन भी,
दे केवल अपमान.
आपस में बस जोड़िये, दिल से दिल के तार
ऐसे तो मत कीजिये, खंजर दिल के पार
रिश्तों में विश्वास है,
सबसे पक्की डोर.
ये टूटे तो जानिये,
छूटे सारे छोर.
प्रियवर निश्छल प्रेम तो, जीवन का उपहार
ऐसे तो मत कीजिये, खंजर दिल के पार
सुखमय जीवन की सखा,
सीधी-सी है रीत.
मुख पर इक मुस्कान हो,
नयनों में हो प्रीत.
दिल की नफरत मारिये, इतनी सी दरकार
ऐसे तो मत कीजिये, खंजर दिल के पार
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5. आदरणीया प्रतिभा पाण्डे जी
'नया साल वो कब आएगा'(गीत)
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नए पुराने ज़ख्मों को जब
मरहम कोई मिल जायेगा
नया साल वो कब आएगा
इधर उधर टेबल में फिरता
फटी बाहँ से नाक है मलता
गुमा कहाँ उसका है बचपन
ढाबे में जो बालक पिसता
जिस दिन ये रोजी का खंजर
बचपन को ना तड्पाएगा
नया साल वो कब आएगा
अम्मा की वो रानी बिटिया
पापा की वो सोन चिर्रैया
हर आहट से अब है डरती
नचती थी जो ता ता थैया
वहशी की नीयत का खंजर
बेटी को ना सिहरायेगा
नया साल वो कब आएगा
मंदिर मज़्जिद दोनों रोते
नहीं किसी को आंसू दिखते
एक ख़ुदा के घर ये दोनों
फिर क्यों इनके बंदे लड़ते
कट्टरता का मारक खंजर
नहीं दिलों में घुस पायेगा
नया साल वो कब आएगा
शाल मिठाई मेल मिलाई
बुरी नहीं है प्रेम कमाई
हिस्से अपने आँसू हरदम
बहुत हो गया अब तो भाई
गलबहियों के साथ पीठ में
खंजर ना घोंपा जाएगा
नया साल वो कब आएगा
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6. आदरणीया कांता रॉय जी
वो पीठ का खंजर याद आया (छंद मुक्त कविता)
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चलते -चलते कदम ठिठके
फिर वो फ़साना याद आया
छाती पर खुदे दरख्तों की
नाम तुम्हारा याद आया
साथी तेरी सौगातें सारी
दिलकश वो मंज़र याद आया
वो पीठ का खंज़र याद आया
इंद्रधनुषी सतरंगी
सुख से विहलाती बातें थी
हम थे तुममें तुम थे हममें
जुगनू से चक मक राते थी
उन रातों का मंजर याद आया
वो पीठ का खंजर याद आया
तुम्हारा ठंडा स्वेद-रक्त
देख मुझे एहसास हुआ
रौंदने वाला मेरा अपना
सरे आम आज स्वान हुआ
स्वानों का मंजर याद आया
वो पीठ का खंजर याद आया
तुम छुद्र छुधा से आतुर थे
नग्न रूप अवलोकित था
संग मेरे ये जड़-बंधन
बंधन का अनुबंधन था
अनुबंधन का मंजर याद आया
वो पीठ का खंजर याद आया
मेरे नयनो के संयम को
जल की अभिसिंचन दी है
जख्म अब नासूर बन गये
खंज़र ने चिंगारी दी है
वो चिंगारी का मंजर याद आया
वो पीठ का खंजर याद आया
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7. शेख शहजाद उस्मानी जी
अतुकांत तथा हाइकू
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[क] अतुकांत
बचपन से बुढ़ापे तक
घर-बाहर, संसार तक
मानसिक, शारीरिक और आर्थिक
संघर्षों के मंजर
यातनाओं के ख़ंजर।
मोह-माया, सुख-संसाधन
वासनाओं के समुंदर
वर्जनाओं के ख़ंजर।
बालक-बालिका, नर-नारी
दुर्बल-सबल, छूत-अछूत
निर्धन और धनाढ्य
बहुरूप प्रबल
भेदभाव के ख़ंजर।
अंग-भंग, शील-भंग
देह-दांव के मंजर
मानव तस्करी के ख़ंजर।
प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष
दक्ष या यक्ष
सेंध लगाकर, भेद जानकर
क्रय-विक्रय का खेल
घर के ही अन्दर
देशद्रोही से ख़ंजर।
[ख] हाइकू
[1]
तीन ख़ंजर
वर्षा, शीत, गरमी
निर्धन हश्र
[2]
ये प्रदूषण
सुनहरा ख़ंजर
चीर हरण
[3]
ख़ंजर वार
सुख-शान्ति समृद्धि
आतंकवाद
[4]
ये भ्रष्टाचार
तन-मन व्यापार
ख़ंजर तुल्य ...... (संशोधित)
[5]
तर्क-कुतर्क
संसदीय रुझान
ख़ंजर वार
[6]
विदेशी माल
आस्तीन के ये सांप
ख़ंजर चाल
[7]
ये भेदभाव
है स्वार्थपरकता
ख़ंजर वार
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8. आदरणीय अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव जी
ख़ंजर (दोहा छंद) (संशोधित)
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खंजर साथ रखें सदा, सस्ते इनके दाम।
गुन्डे गृहणी चोर भी, लेते इनसे काम॥
खंजर वंजर काटते, जोड़े प्यार दुलार।
कहीं रक्त की धार है, कहीं प्रेम रस धार॥
प्यार नहीं बस वासना, फिर खंजर से वार।
निम्न स्तर का कर्म हो, घटिया जब संस्कार॥
खंजर के कुछ जख्म से, मिले न कुछ दिन चैन।
नयन बाण जिस पर चले, रहे सदा बेचैन॥
चार बरस का हो गया, अब तो चाकू थाम।
केक काटकर सीख ले, करना काम तमाम॥
घर से निकला रात में, छुरिया बगल दबाय।
जब तक मिले न नौकरी, घर यूँ ही चल जाय॥
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9. आदरणीय तस्दीक अहमद खान जी
ग़ज़ल
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इतना न आस्तीनों को अपनी चढ़ाइये
ख़ंजर दिखाई देने लगा है छुपाइये
एहसान आप लेते हैं ख़ंजर का किस लिए
लेनी है मेरी जान अगर मुस्कराइये
कब तक सुनूँ मैं बातें तुम्हारी जली कटी
बेहतर यही है सीने पे ख़ंजर चलाइये
तलवार का धनी हूं किसी से भी पूछ लें
ख़ंजर दिखाके आप न मुझको डराइये
उनकी हराम ख़ोरी ही लाई है क़ैद में
बेजान ख़ंजरों पे न तोहमत लगाईये
ख़ंजर पे तो निशान नहीं ख़ून के मगर
दामन पे जो हैं दाग़ लहू के छुड़ाइये
तस्दीक़ आप जानिबे ख़ंजर न देखिए
अपना क़लम ख़िलाफ़ सितम के उठाइये
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10. आदरणीया राजेश कुमारी जी
आल्हा या वीर छंद
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खाद हवा या पानी,किस्मत, दिल में ना था क्या सद्भाव
खेतों में उग आये खंजर, बिगड़ा कैसे रक्ख़ रखाव
गुल्लर पर गुल्लर ही लगते,बोलो आम कहाँ से खाय
तिक्त करेला नीम चढ़ेला, फिर कैसे मीठा हो जाय
मात पिता रहते थे पहले, लालन पालन में आसक्त
भाग दौड़ की आज जिंदगी,पास कहाँ अब उनके वक़्त
दादा दादी नाना नानी, कौन पढाये नैतिक ज्ञान
मैं औ मेरे मम्मी पापा ,याद नहीं गीता कुरआन
आक्रोशित नव युग की पीढ़ी, बदल गया उनका व्यवहार
एक जेब में खंजर रखते, दूजी में रखते तलवार
नाबालिग कहते हैं जिनको,बालिग़ से करते अपराध
धूम्र पान मदिरा का सेवन,बिन अंकुश करते निर्बाध
प्रारम्भिक शिक्षा पर उनकी, देना होगा ध्यान विशेष
पाकर उन्नत ज्ञान हृदय से, दूर फेंक दे ईर्ष्या द्वेष
मीठी वाणी मीठे आखर, हर ले दिल की बहती पीर
चूर दर्प हो जाए सबका , खंजर खुखरी या शमशीर
तीखे ताने तीखे आखर, कड़वी बातें कड़वे भाव
खंजर से ज्यादा देते हैं,अन्तःउर तक गहरे घाव
मात्र भूमि के तन पर डाले,द्रष्टि अगर कोई नापाक
हाथों में तब लेना खंजर, कर देना दुश्मन को चाक
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11. आदरणीया ममता जी
ख़ंजर (अतुकांत)
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मुझे लगता है कि मेरे अंदर
एक नए से शख्स का
जन्म हो रहा है ।
जो ना हँसता है,ना रोता है ,
बस हर समय शून्य में देख - देख
नये से कुछ सपने सजाये आँखों में
खुली आँखों से सोता रहता है,
कभी -कभी चौंक भी पड़ता है ,
कुछ टटोलता सा रहता है।
फिर जाने क्यों ,
दरवाजे की सांकल खोल
चौखट पे खड़े हो
स्वयं ही बड़बडा कर
मुख पे उंगलियों को रोल
विक्षिप्तता की स्थिति में
स्वयं को तोलता सा,
बदहवास सा अन्दर आ
किवाड़ बन्द कर ,
ताला लगा कर फिर,
उन्हीं शून्य की गलियों में ड़ोल,
तड़पता - परेशान होता ही रहता है ।
कभी कभी तो खुद से
बोलता ही रहता है।
कुछ लोग जो मुझे जानते हैं
मेरे पास आते डरते हैं और
कई जिनको मैं खटकता था
मुझे देख ऊपरी सहानुभूति दिखा,
ज़रा आगे निकलते ही हँसते हैं ।
और ये नया मानुष
इस सब से अनभिज्ञ ,
अपनी परिस्थिति में डूबा हुआ सा,
अन्दर बाहर की सारी,
गतिविधियों से ऊबा हुआ सा,
कई बार मुझ पर हावी होना चाहता है
और मेरी शख्सियत को दबा ,
मेरी मिल्कियत को साफ कर
मुझ पर ही रोब जमा,
मुझ से ही भारी होना चाहता है।
आज तो इसने हद ही कर दी।
पड़ौसी के घर जा
उसकी भी रंगत ,
अपने जैसी ही कर दी,
और देखते ही देखते
इसने अपनी माया फैला ,
सबको लपेटना चाहा,
मगर मैंने भी अपने हाथ में ,
विवेक का खंजर
ले ही लिया
घोंप अपने अन्दर पनपते शख्स को
सारे आलम से दुख समेटे ही लिया।
हाँ एक बार तो कष्ट बहुत हुआ
मगर फिर भी संतुष्टि है
मैंने सब को बचाया है,
मुझे चाहे फाँसी लगे
मैंने तो स्वयं की ही इति की है।
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12. आदरणीय प्रदीप कुमार पाण्डेय जी
दोहा छंद
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अन्दर बाहर हैं तने,खंजर कितने यार
भय सबका होता जनक ,कायर करता वार
खंजर उसके हाथ में ,पर मन है भयभीत
यार समझ ये बात तू ,होती ताक़त प्रीत
उसने देखा यूं मुझे ,आँखों में भर नूर
खंजर जब से ये घुसा ,हुए दर्द काफूर
प्रेम प्यार संसार है ,प्रीत गली इस ओर
खंजर गुस्से के दिखा ,नहीं इश्क पे ज़ोर
ताक़त पर अपनी तुझे ,ज़ालिम कितना नाज़
खंजर वक़्त का इक दिन,खींच न ले ये ताज
चालें सरहद पार की ,समझें हम भरपूर
खंजर देना पीठ में ,है इनका दस्तूर
खंजर सुन लो काल का ,नहीं जानता भेद
पोथी बांच कुरान की ,पढ़ ले चाहे वेद
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13. आदरणीय नादिर खान जी
सवाल सिर्फ पीठ पे खंज़र का नहीं (अतुकांत)
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ज़रूरी है लड़ाई
इंसानियत के लिए
इंसानियत के दुश्मनों के साथ
ताकि बची रहे इंसानियत
बचा रहे विशवास
इंसानों का
इंसानों के साथ
ज़रूरी है कार्यवाही
ताकि ख़ुशी के रंग पर
हावी न हो जाये
दहशत का रंग
शांति का सफ़ेद रंग
ख़ून - खून न हो जाये
ज़रूरी है पहचानना
दुश्मन की शातिर चालें
उसके नापाक इरादे
हमें मालूम है
लाइलाज नहीं है बीमारी
ज़रूरी है
समय रहते उचित इलाज
ज़रूरी है काटना
दुश्मन की जड़ें
उसे घेरना / उसी के बिल में
नेस्तनाबूद करना
उसके इरादों को
मानवता विरोधी मिशन को
बचने न पाये इस बार
पक्का हो इंतेज़ाम
कारगर हो रणनीति
सवाल सिर्फ पीठ पे खंज़र का नहीं
मांग से उजड़े हुए सिन्दूर का है ।
माँओ की उजडी हुयी कोख का है ।
हर बार टूटती हुयी उम्मीद का है ।
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14. आदरणीया शान्ति पुरोहित जी
हाइकू
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1
दिल के पार
वाक बाणो का वार
शब्द खंजर
2
यादे खंजर
ह्रदय गलियारा
भाव के घाव
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15. आदरणीया नयना(आरती)कानिटकर जी
अतुकांत
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चहूँ ओर नफ़रत
नाहक ग़ैरो पर वार
क्रोधाग्नि के घाव
प्रतिशोध की चिंगारी
निंदा और धिक्कार
व्यर्थ की उलझन
तेजाब छिड़कते
मटमैले मन
दौलत का लालच
बिकने को तैयार
सब बैठे
अंगार बिछा कर
जिस ओर देखो
द्वेष,घृणा के खंज़र
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16. आदरणीय सुशील सरना जी
बेवफाई के खामोश खंजर (अतुकांत)
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वो आएगा
वो नहीं आएगा
बस इन्ही लफ़्ज़ों को दोहराती
मैं एक अजीब सी
हाँ और न के झंझावात में
हाथ के गुलाब की एक -एक पंखुड़ी को तोड़ती
और एक अनुत्तरित जवाब की चाह में
धीरे धीरे अपने शब्दों को दोहराती जाती
आखिर अंतिम पंखुड़ी को भी
मेरी उँगलियों ने
नहीं आएगा के शब्द के साथ तोड़ कर
फर्श के हवाले कर दिया
मुझे अपनी साँसों में उसकी सांसें
अजनबी लगने लगी
उसका हर फ़रेबी वादा
मेरे अरमानों के सीने में
बेवफाई के खामोश खंजर के
अनबोले ज़ख़्म दे गया
मेरे लम्हों को जीने से पहले
मौत की सजा दे गया
मुहब्बत का वो गुलाब
जो ताज बन कर आया था
टूटते टूटते
टूटे वादों की तरह
बिखर गया
प्यार के सागर में बस
खारा पानी रह गया
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17. आदरणीय विजय जोशी जी
मुक्तक (छंद मुक्त कविता)
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1.
दिल दहल जाये,था वही मंजर
अस्मत थामे,बैठी थी नीची नजर
प्यार,दोस्ती लहूलुहान हुवे रिश्तें
प्यार के नाम पीठ में मारा ख़ंजर।।1।।
2.
लूट गए घर सारे,धरा बंजर
जाने कौन बिखेर रहा पंजर
दहशत के साये में है बस्तियाँ
आतंकी हाथों में देख ख़ंजर।।2।।
3.
चेहरे पर न झलका कभी अजर
थी उसकी बड़ी ही पारखी नजर
मुसीबत को कांपनेका था हुनर
जाने कौन दे गया तोहफे में ख़ंजर।।3।।
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18. आदरणीया सीमा शर्मा मेरठी जी
दोहे खंजर पर (दोहा छंद)
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मीठे फल की हो गयी,मुश्किल में अब जान
खंजर लेकर हाथ में ,खड़ा हुआ इंसान।
गिर कर फिर कैसे उठे,वक्त करे जब वार
हाथों में कुछ भी नहीं,खंजर या तलवार।
दुर्योधन का कर दिया ,अँधा कह अपमान
द्रुपद सुता की बन गयी ,खंजर हाय जुबान।
बदले मंजर गाँव के,पेड़ न अब चौपाल
लेके खंजर काट दी,झूलों वाली डाल ।
पत्थर से क्यों हो गए ,हम सबके जज्बात
खंजर भी करता नहीं ,करे जुबां जो घात।
गोरे गोरे गाल हैं, खंजर जैसे नैन
देखूं जिसको एक पल,खो दे वो सुख चैन।
बदले मंजर गाँव के,पेड़ न अब चौपाल
लेके खंजर काट दी,झूलों वाली डाल।
सीमा हो सर पे अगर,खुदा बंद की ढाल
बाल न बांका कर सकें, खंजर और कुदाल।
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19. आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी
गीत (सार छंद आधारित)
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चिर विछोह ने बना दिया है मुझको धरती बंजर
चमक रहा है देखो नभ में अब भी दाहक खंजर
काल खा गया है यौवन का
सारा परिमल सौरभ
मैं ढोती फिरती अभागिनी
अस्थि मात्र यह पंजर
चमक रहा है देखो नभ में अब भी दाहक खंजर
याद कभी आता है मुझको
प्रिय परिणय का आंगन
अधर हमारे प्रिय लगते थे
तुमको रसमय जंजर
चमक रहा है देखो नभ में अब भी दाहक खंजर
मरी विरह मे सब इच्छाये
सूखा तरु सा जीवन
जाने कब आये ले जाये
प्राण पखेरू संजर
चमक रहा है देखो नभ में अब भी दाहक खंजर
धरती के सब अचरज देखे
पावन और अपावन
चलूं वहां के भी सुख देखूं
जन्नत के कुछ मंजर
चमक रहा है देखो नभ में अब भी दाहक खंजर
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20. आदरणीय सतविंदर कुमार जी
हाइकू
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प्रेम गद्दार
खोंप देते अपने
जब खंज़र।।
हम लाचार
सुलह की बिसात
भारी खंज़र।।
हर पहल
गद्दारी के खंज़र
के आगे फेल।।
फिर कोशिश
अमन की चाहत
भुला खंज़र।।
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21. आदरणीय रवि शुक्ल जी
सार छंद
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छन्न पकैया छन्न पकैया भइया जी वामनकर
संचालक बनते ही देखो लेकर आये खंज़र
छन्न पकैया छन्न पकैया सार छंद सुपुनीता
अबकी बारी काट दिया है समर साब ने फीता
छन्न पकैया छन्न पकैया कैसा गड़बड़ झाला
तोप मिसाइल के टाइम में चाकू खंजर भाला?
छन्न पकैया छन्न पकैया नौकर हूँ सरकारी
समय नही है पढ़ कर कह दू सबका हूँ आभारी
छन्न पकैया छन्न पकैया शौक यही है अपना
सब की रचना पढ़ ली सादर इतना ही है कहना
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22. आदरणीया कल्पना भट्ट जी
खंज़र (छंद मुक्त कविता)
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भावनाओं का हनन कर
खेलते वो होली हैं
आँसूं देकर आँखों में
कहते खुद को हमजोली हैं।
बेगानों में अपने बनते
कहते खुद को मोहिनी हैं
प्रेम प्रित की देते दुहाई
मारते दिल में खंज़र हैं।
बहते लहू को देख मुस्काते
ऐसे होते मन मौजी हैं
रास्ते दिखाकर मुँह मोड़ लेते
पीठ पर करतें वार हैं।
मीठी बातों में है घोलते
अपनी ज़हर भरी बोली हैं
खंज़र मार तमाशा देखते
कैसे होते यह अपने हैं।
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समाप्त
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आदरणीय मिथिलेश जी त्वरित संकलन हेतु बहुत बहुत बधाई ।मेरे प्रयास को संकलन में स्थान देने के लिए हार्दिक आभार।
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