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सत्य ! सम्यक ! बहुत सही आदरणीय शेख शहज़ाद उस्मानीजी !!
सबसे बड़ी बात कि मन भर जाने पर या ऑप्शन उपलब्ध हो जाने पर ’ज्ञान बघारना’ घृणित टुच्चई है. इसे पुरुष-महिला के वज़ूद के दरम्यान प्रतिद्वंद्विता की तरह न लिया जाय.
शुभ-शुभ
आदरणीय सौरभ जी यह सब फिर भी हो रहा है । सभी एकदूसरे का इस्तेमाल कर रहे है ।
सादर ।
जी सही कहा आपने आदरणीय. इसे आज विशिष्ट प्रगतिशीलता मानी जाती है.
हा हा हा.............
जय हो.. :-)))
ऐसे रिश्तों का ऐसा ही अंत होता है ... बढ़िया कथा आ० ओम प्रकाश जी...
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