परम आत्मीय स्वजन,
ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरे के 70 वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है| इस बार का मिसरा -ए-तरह शायर-ए-इन्किलाब जनाब जोश मलीहाबादी साहब की ग़ज़ल से लिया गया है|
"जिसे हो जुस्तजू अपनी वो बेचारा किधर जाए"
1222 1222 1222 1222
मुफाईलुन मुफाईलुन मुफाईलुन मुफाईलुन
मुशायरे की अवधि केवल दो दिन है | मुशायरे की शुरुआत दिनाकं 22 अप्रैल दिन शुक्रवार को हो जाएगी और दिनांक 23 अप्रैल दिन शनिवार समाप्त होते ही मुशायरे का समापन कर दिया जायेगा.
नियम एवं शर्तें:-
विशेष अनुरोध:-
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मुशायरे के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है....
मंच संचालक
राणा प्रताप सिंह
(सदस्य प्रबंधन समूह)
ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम
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कहो ख़ामोश आईनों को उन तक ये ख़बर जाये
अगर हों दाग़ चहरे पर तो क्यूँ दरपन सुधर जाये
कभी चौखट न लांघे याद रखना बात कमरे की
जो घर से बात निकली तो, न जाने फिर किधर जाये
जो लम्हा शादमाँ निकले उसे भर लो निगाहों में
अगर ग़मगीन हो लम्हा तो कह उससे, ग़ुज़र जाये
मैं सीने में हवा भर, पूरे दम से, फूँक ही दूँगा
रुकूँ मैं क्यूँ ? चढ़ा तूफ़ाँ उतरता है, उतर जाये
तू रोना सीख ले, तो दर्द के क़िस्से बहुत से हैं
धुले अश्क़ों से तो शायद तेरा नग़्मा निखर जाये
ख़मोशी की सदा अलफ़ाज़ से भी तेज़ होती है
वो समझेंगे मेरी हालत अगर मुझ पर नज़र जाये
हरिक सच, अपने क़दमों के निशाँ कुछ छोड़ देता है
हबीब अपना सचाई से मुकरता है , मुकर जाये
अगर तय है बिखर कर बीज वृक्षों में बदलते हैं
दुआ करता हूँ मैं, मेरी वफ़ा टूटे, बिखर जाये
किसी की चाह हो दिल में तो रस्ते भी बुलाते हैं
“ जिसे हो जुस्तजू अपनी वो बेचारा किधर जाये’’
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
कभी चौखट न लांघे याद रखना बात कमरे की
जो घर से बात निकली तो, न जाने फिर किधर जाये
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वाह वाह वाह ..क्या ख़ूब बात कही है आदरणीय..ढेरों दाद लें इस शेर पर ओर पूरी ग़ज़ल पर..
आ. नीलेश भाई , आपका हृदय से आभार सराहना के लिये ।
बहुत अच्छे अशआर कहे हैं आपने आ0 गिरिराज जी..... शानदार ग़ज़ल !!!
तू रोना सीख ले, तो दर्द के क़िस्से बहुत से हैं/धुले अश्क़ों से तो शायद तेरा नग़्मा निखर जाये---- लाजवाब !!!
आदरणीय अजीत भाई , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया आपका
आदरणीय समर भाईसाहब, सच्चाई सही शब्द है. किन्तु, सचाई भी स्थानापन्न हुआ करता है. जैसे उम्मीद को उमीद कर लेते हैं. इसी तरह, ख़ामोशी को ख़मोशी कर लिया जाना एक सहज प्रक्रिया है.
ऐसा किया जाना ’ग़ज़ल’ कहने की कोशिश करने वालों की दुनिया शायद आसानी से मान्य हुआ करता है.
कृपया, इस विषय पर रोशनी डालें, आदरणीय.
सादर
आदरणीय सौरभ भाई , बात साफ करने के लिये आपका हार्दिक आभार ।
जनाब सौरभ पांडे जी,आप सही फ़रमा रहे हैं,'सचाई' भी ठीक है,याद आ गया ।
"होटों पे सचाई रहती है...."
बहुत दिनों के बाद तरही मुशायरा अपने पूरे शबाब पर है,अच्छी चर्चाऐं हुईं ।
जी जी, जब दिलमें सफ़ाई हो तो सचाई सीधे समझ में आ जाती है. हा हा हा..
विन्दुओं को स्पष्ट करने केलिए आपका सादर धन्यवाद, आदरणीय समर साहब.
आपने सही कहा हम सभी ’सीखने-सिखाने’ की प्रक्रिया में संलग्न हों. यह अत्यंत आवश्यक है
सादर धन्यवाद आदरणीय
आदरणीय समर भाई , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया । वैसे सचाई और सच्चाई दोनो सही हैं फिर भी आपका इस्लाह मुझे स्वीकार है , आपका बहुत बहुत शुक्रिया , ऐबे तनाफुर वाला मिसरा भी मै अपने फाईल मे सुधार लिया हूँ , यहाँ पर संकलन मे सुधार लूँगा , आपका बहुत शुक्रिया ।
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