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"ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-71 में प्रस्तुत रचनाओं का संकलन

श्रद्धेय सुधीजनो !

"ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-71, जोकि दिनांक 10 सितम्बर 2016 को समाप्त हुआ, के दौरान प्रस्तुत एवं स्वीकृत हुई रचनाओं को संकलित कर प्रस्तुत किया जा रहा है.

इस बार के आयोजन का विषय था – "कर्म".

 

पूरा प्रयास किया गया है, कि रचनाकारों की स्वीकृत रचनाएँ सम्मिलित हो जायँ. इसके बावज़ूद किन्हीं की स्वीकृत रचना प्रस्तुत होने से रह गयी हो तो वे अवश्य सूचित करेंगे.

 

सादर

मिथिलेश वामनकर

मंच संचालक

(सदस्य कार्यकारिणी)

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1.आदरणीय अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव जी

प्रथम प्रस्तुति - कर्म ( दोहा छंद)

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ज्ञान बिना है कर्म क्या, भक्ति बिना क्या ज्ञान।

भगवत् बिनु है भक्ति क्या, बिन गुरु क्या भगवान॥

नित्य धर्म से जोड़कर, करते रहिए कर्म।                           

परमात्मा को पा सकें, यही जीव का धर्म॥

सिर्फ किताबी ज्ञान से, आत्मिक सुख ना चैन।                                 

भक्ति बिना ना मुक्ति हो, जीव रहे बेचैन॥

 

‘मैं’ को पहले जानिए, फिर कीजै सब काम।

सार्थक मानव जन्म हो, भक्ति करें निष्काम॥

मन पर काबू है नहीं, बिगड़ गया हर काम।                                        

माया आई पास तो, दूर हो गए राम॥

 

मनुज अकर्मा ना रहे, जब तक तन में जान।                                               

फल की चिंता छोड़िए, रहे लक्ष्य पर ध्यान॥

उल्टे सीधे कर्म से, होगा बेड़ा गर्क।

स्वर्ग मिले ना ये धरा, मिले एक बस नर्क॥

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2. आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी

कर्म (गीतिका छंद)

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पल नहीं कोई हुआ, बिन कर्म के बीता कभी ।

इस जगत में हर फलाफल का यही कारण तभी ॥

ज्ञानियों के ज्ञान का जो मर्म है वह जान लें ।

साथ ही, क्या कर्म है, इस अर्थ का संज्ञान लें ॥

 

कर्म का कारण सदा हो धर्म के शुभ से ढला ।

राष्ट्र का, परिवार का, हर गाँव-घर का हो भला ॥

लोक-संग्रह, लोक-हित हो, मान्य लौकिक कर्म हो ।

मूल्य तार्किक, स्वेद-सम्मत, भाव-पोषित धर्म हो ॥

 

कर्म से नाते परस्पर, कर्म से भाते सभी ।

कर्म ही से इस जगत में नाम-धन पाते सभी ॥

स्वार्थ की उपलब्धियाँ उत्पाट दें हम चाह से ।

ओज औ’ ऊर्जा भरे हम रत रहें उत्साह से ॥

 

जो करे हर काम को बस स्वार्थ-पोषित भाव से ।

क्षुद्र है वह नर घृणित, सद्भाव भरता घाव से ॥

कर्मजीवी की सदा आदर करें, जो सभ्य हैं ।

सभ्यता की हो कसौटी, कर्म-रत क्या लभ्य हैं !

 

पेट या परिवार के हित कर्म तो करते सभी ।

सत्य है, उपकार हित शुभ-कार्य से तरते सभी ॥

क्या करें क्या ना करें, निर्णय कठिन होता सदा ।

किन्तु सुखकर जो सभी को, मान्य है वह सर्वदा ॥

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3. आदरणीय समर कबीर जी

दोहा छंद

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इधर उधर की सोच मत, करता जा तू कर्म

ये ही तेरा काम है ,और यही है धर्म

 

आते हैं तुमको नज़र ,ख़ाली मेरे हाथ

तुम देखोगे हश्र में ,कर्म रहेगा साथ

 

कर्म बिना कुछ भी नहीं ,सुन ले मेरी बात

उस दिन तू पछतायेगा,जिस दिन होगी मात

 

अमरीका ,जापान हो,भारत हो या चीन

ताक़त मिलती कर्म से,इतना मुझे यक़ीन

 

इक शय है बेकार सी,कहीं न आये काम

कर्म नहीं तो आदमी,बिकता है बेदाम

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4.आदरणीया प्रतिभा पाण्डेय जी

तेरे अपने कर्मों के फल (गीत)

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जो बोया वह बीज फूटकर

घना वृक्ष बन जाएगा कल

खुलकर झाँकेंगे उसमे से

तेरे अपने कर्मों के फल

 

बेल चढ़ाई स्वार्थ की  और

आसमान में झाँक रहा है

जमा घटा की बही बनाकर 

जीवन को तू आँक रहा है

 

है हिसाब उसका भी पक्का

देख रहा जो तुझको पल पल

 

तूने सपनों की उड़ान में

छोड़े बापू और महतारी

पुत्र बसा है जा विदेश में

अब आँसू की तेरी बारी

 

फसल लगाई खुद बबूल की

कहता दुख को किस्मत के छल

 

द्वितीय प्रस्तुति

 

‘सुनों कृष्ण’ (अतुकांत)

 

सामने कैलेंडर में खड़े

हाथ उठाये कृष्ण

चरणों में उनका परम मित्र पार्थ

भ्रमित और आर्त

हो रही हैं बातें कर्म की, धर्म की

 पीछे हैं

 सहस्त्रों सैनिक लड़ते हुए

कर्म और धर्म के ज्ञान से अनजान

बस एक ही काम

देनी है राजा के लिए जान

 

अर्जुन जान गया है

कि  ये सारा खेला

तुम ही ने रचा है

आदि और अंत भी तुम्हे पता है

मरना मारना सब भ्रम है

उनपर करना  शोक

महज एक श्रम है

 

पर उनका क्या ???

वो जो सहस्त्रों  सैनिक पीछे खड़े हैं

जिनकी नियती

बस करना कर्म है

फल की इच्छा  और मोह

करने  की सामर्थ्य

उनमे ना तब थी

और ना ही अब है

 

वो सब आज भी वहीँ खड़े हैं

कृष्ण ....पीछे

कर्म करते हुए 

मरते हुए  जीने के लिए

धर्म का सार बस इतना

ही है इनके लिए

स्वर्ग के सुखों के वादे

तो आज भी हैं

पर उन तक क्यों कभी

 नहीं पहुँच पाया

कोई स्वर्ग ?

पूछ रहे हैं पीछे खड़े सैनिक

ऐसे ढेरों अनुत्तरित प्रश्न

क्या सुन रहे हो कृष्ण?.

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5.आदरणीय तस्दीक अहमद खान जी

ग़ज़ल

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शायद किसी जुनून में यह कर्म कर गया ।

यूँ ही नहीं वो इश्क़ की हद से गुज़र गया ।

 

यह अपना अपना कर्म है गर्दाबे इश्क़ में

कोई गया है डूब तो कोई उभर गया ।

 

लगता है अपने कर्म का फल मिल गया मुझे

इक अजनबी के साथ मेरा हम सफर गया ।

 

महफ़िल में तब्सरा तो हुआ मेरे कर्म पर

हैरत मगर है चेहरा तुम्हारा उतर गया ।

 

कर्मों का फूटना इसे कहते हैं दोस्तो

कतरा के मुझसे यार पड़ोसी के घर गया ।

 

दौलत नहीं वो लेके गया कर्म साथ में

दुनिया को छोड़ मुल्के अदम जो बशर गया ।

 

जिसका था कर्म चलना मुहब्बत की राह पर

तस्दीक़ वह भी आज ज़माने से डर गया ।

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6.आदरणीय डॉ. विजय शंकर जी

कर्म का मान कर , सम्मान कर (अतुकांत)

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जीवन है तो इच्छायें हैं ,

इच्छायें हैं तो कर्म है ,

कर्म है तो फल है।

कर्म-काण्ड से ज्ञान-काण्ड

तक सम्पूर्ण धर्म-दर्शन का सार ,

सत्कर्म है ,

ये जीवन ही कर्म भूमि है ,

धर्म भूमि है ,

जीवन का कर्म-योग ही

धर्म-योग है।

इच्छा , कर्म और फल का

द्वन्द ही जीवन है ,

इन तीनों का सुसँयोग ही

जीवन का सुखद भोग है।

अन्यथा , कष्ट , विषाद

का दुःखद का योग है।

वेद , वेदांत , कृष्ण योगेश्वर ,

प्लेटो , न्यूटन सब ने कर्म

का महात्म सुनाया है ,

अतः हे कर्मवीर ,

हे धर्म वीर ,

तू कर्म कर ,

तू धर्म कर ,

तू स्व कर्म को प्रणाम कर , मान कर ,

तू दूसरे के कर्म का सम्मान कर ,

सम्मान कर ,

सम्मान कर।

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7.आदरणीय कालीपद प्रसाद मण्डल जी

कर्म (अतुकांत)

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भाग इंसान भाग

तेरा भाग्य तभी उठेगा जाग,

सुस्त पड़ा सोता रहेगा

यह जग तेरे आगे निकल जायगा |

यह शरीर मिला है तुझे

इसका कुछ कर्म है

हर अंग का कुछ धर्म है

उसका तू पालन कर |

श्रीकृष्ण ने कहा,

“बिना फल की इच्छा

तू कर्म कर .......”

किन्तु बिना फल की इच्छा,

तेरी कर्म करने की इच्छा जायगी मर |

इसीलिए तू फल की इच्छा कर

और कुछ तो कर्म कर !

 

जगत में .....

तू एक विद्यार्थी है

एक शिक्षार्थी है,

पढ़ना, लिखना, सीखना

फिर हर परीक्षा में पास होना

यही तेरी नियति, तेरा काम है |

 

परीक्षा कक्ष में ...

जब तक कापी कलम

तेरे हाथ में हैं,

सब कुछ तेरे वश में हैं |

जो मन करे तू लिख

न मन करे न लिख

पर ध्यान रख

जैसा लिखेगा

वैसा फल मिलेगा,

कापी तूने निरीक्षक को दे दिया,

तेरे हाथ से सब कुछ निकल गया |

अब सब कुछ परीक्षक के हाथ में है

जितना अंक देता है

परीक्षा कक्ष में किये

वही तेरा कर्मफल है |

गलत मत समझ तू

श्रीकृष्ण ने सही कहा है,

सबको अपने कर्मों का

सही फल मिलता है

“जैसा कर्म करता इंसान

वैसा फल देता भगवान् ”

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8.आदरणीय डॉ. टी.आर. शुक्ल जी

कर्म (अतुकांत)

===============================

जगरूकता सीखकर,

करने या मरने आगे बढ़े थे ।

एकता के मंत्र को लेने या देने कर्तव्य मार्ग पर ऐसे डटे थे कि ,

विरामदायनी संध्या ने, गहन निद्रा में पुनः धकेल दिया।

स्वतंत्रता दिवस के सत्तरवें जनम पर

निद्रा की मुद्रा में पशु जीवन व्याप्त स्वतंत्र मानव मन में,

उत्सव मनाने का संकल्प आया। और,

उत्सव की देवी ने अपना स्वरूप ले ,

भारतीय नकलचियों को मस्तक झुकाया।

दर्शन किये !!

सुन्दर सुन्दर मुखड़ों पर लटकते, विखरे , लम्बे लम्बे बालों के ,

गोरी गोरी पिडुलियां डुलाते मटकते हुए नैनों के,

अर्धवस्त्रधारी इस अर्धनग्नता के।

आश्चर्य चकित हो कर सोचने लगी कि ,

इतनी सब नर्तकियां मेरे सुस्वागत को

इस छुद्र मुद्रा में ऐसे ही आईं हैं ???

मिलन के लोभ से आगे बढ़ी. . .

तो, लगे असंख्य लोग रोने चिल्लाने

भूख से संत्रस्त, पानी से आक्रान्त, आशाओं से उद्भ्रांत,

लोग, जिन्हें दिनरात जुटे रहने पर भी मुट्ठी भर दानों को,

अनगिनत अबोधों,हजारों स्नातकों पढ़े लिखों को....

पंक्ति में खड़े, एक कोनें में विलखते हुए देखा।

उत्सव की देवी ने अपना मुख मोड़ा,

आंचल सम्हालती, उदास चेहरे को ढांकती उघारती ,

रोते हुए नैनों को खोलते मूंदती,

कर्तव्यहीनता पर, इस अर्धनग्नता पर,

इस परावलंबी देश को थूकती धिक्कारती स्वदेश चली गयी !!!

फिर भी ये बहुरूपिये ! !

उन्माद लेकर, यश गाथा खोकर ,

मानवता बेचकर, अधमरे शरीरों को अग्नि में झोंककर,

ऐसे रंगोत्सवों को,

स्वतंत्रता की इस खुशी में शाश्वत मनायेंगे।

 

द्वितीय प्रस्तुति

कर्म (गीत)

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कहाँ पहुँच गया, कहाँ पहुँचना था,

तेरी कृपा बिन सच , सबकुछ सपना था।

 

काँटों को जोड़ा फूलों को छोड़ा

चन्दन सी कलियों से भी मुँह को मोड़ा,

बनाया पराया भले ही जो अपना था।

तेरी कृपा बिन...

 

अवलोकन ग्रन्थों का,दर्शन सुसन्तों का

अनुपम था सान्निद्य तीर्थों में पन्थों का,

फिर भी न पाया कुछ माला ही जपना था।

तेरी कृपा बिन...

 

आँखों को खोला, बस मन ही मन डोला,

लोभा प्रकृति ने यह संसार बोला,

दुनिया के मेले से हमको कब बचना था।

तेरी कृपा बिन...

 

कर्मों कुकर्मों अकर्मों को जाना,

गंभीर गति कर्म की यह भी माना

समर्पित है तुझको ही तेरा जो धरना था।

तेरी कृपा बिन...

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9.आदरणीय लक्ष्मण धामी जी

कर्म  (दोहा छंद)

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बड़बोले ही नित रहे, रंग जाति औ’ धर्म

पीड़ा सबकी हर रहे,  मानव के सद्कर्म।2।

 

जाने कब किस मोड़ पर, किस्मत करे अनाथ

मानव को हर लोक में,  मिले  कर्म का साथ।3।

 

कर्मों  से जगती  रहे, बोझिल  मन  में आस

बिना ओक के कब बुझे, नदिया के तट प्यास।4।

 

कर्महीन  के  वास्ते,  बंजर   उर्वर  खेत

जहाँ पसीना नित बहे, कनक उगलती रेत।5।

 

अधरों पर यदि प्यास है, जा नदिया के तीर

सूखे पनघट बैठ  कर, किसे  मिला है नीर।6।

 

बोता  है  जो पेड़ इक, बाटे  सबको छाँव

वट काटे जो रात दिन, जलते उसके पाँव।7।

 

काठ न  सीला हो जहाँ, धुआँ न देती आग

गए न काजल  कोठरी, किसे  लगा है दाग।8।

 

बोने जिस युग सब लगें, कीकर और बबूल

अर्थी,  पूजा,  प्रीत को, मिलें  न  ढूँढे   फूल।9।

 

जीवन भर हर घाट पर, कचड़ा  करे अथाह

अंत समय  में  पर रहे, गंगा जल की चाह।10।

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10.आदरणीय लक्ष्मण रामानुज लडीवाला जी

विषय आधारित गीत

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भाग्य चमकता सदा कर्म से, कर्मों पर विश्वास करें

कर्म योग में सुख है सच्चा, इसका हम आभास करें |

 

पंख लगाना उम्मीदों के, जब खुद पर विश्वास करे

उड़े गगन में पक्षी सारे,  उड़ने का जब यत्न करे |

कर्म सभी जीवों को करना, जीव जगत ये सिखलाये

तिनका तिनका जोड़ें पक्षी, तभी घोंसला बन पाये |

कर्म करे से जगे चेतना, इसका हम अहसास करे,

भाग्य चमकता - - - - - -

 

पालन पोषण, सृजन साधना, सद्कर्मों का मान करें,

धर्म निभाता मनुज सदा ही, कर्त्तव्यों का भान करें |

खेती करता सदा कृषक ही, हलधर की पूजा करता

सीमा पर दुश्मन को मारे,  उसका धर्म यही कहता |

जिसपल साधे काम आदमी, ह्रदय सफलता रास करें,

भाग्य चमकता - - - - - - -

 

पालन पोषण कर बच्चों का, धर्म निभाती माँ अपना,

कर्त्तव्यों का भान जिसे है,  पूर्ण करे अपना सपना |

श्रमजीवी का आदर करते, वह भी तो निर्माता है

भला करे ये सभी देश का, भारत भाग्य विधाता है |

सार्थक श्रम से वक्त बदलता, ये आशा मन वास करें,

भाग्य चमकता - - - - -- -

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11.आदरणीय गिरिराज भंडारी जी

ग़ज़ल

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वे सत्य का फल शुभ मिला कहते तो हैं

लेकिन उन्हें सब सरफिरा कहते तो हैं

 

हाँ ठीक बदियों से ही पाया ताज वो

लेकिन उसे सब बादशा कहते तो हैं

 

दुष्कर्म की पायी सजा जो मर गया

लेकिन सड़क का हादिसा कहते तो हैं

 

हर झूठ को कांधे नहीं, सर भी मिले

सच पाँव की जूती रहा , कहते तो हैं

 

हर कल्पना टकरा के सच से जो मरी  

वे कर्म फल को कल्पना कहते तो हैं 

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12. आदरणीय बोधिसत्व कस्तूरिया जी

विषय आधारित प्रस्तुति

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मानव दानव बन बैठा, उसे कोई नही है शर्म!

पर पुश्तैनी की अनदेखी, कर रहा दूजौ के कर्म!!

शर्मा जी जूते बनाते, कर्दम जी की है फर्म!!

गुणवत्ता कैसे आए ? मनुवाद का येही धर्म!!

समाजवाद, साम्यवाद, कब समझेगे यह मर्म!!

कोई बुरा नहीं होता, कैसा भी मानव कर्म?

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13. आदरणीया राजेश कुमारी जी

कर्म (दोहा छंद)

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ज्यों तन जीवन के लिए, होय जरूरी कर्म|

त्यों मन आत्मा के लिए ,आवश्यक सत्कर्म||

 

धर्म बड़ा या कर्म है, जान मनुज ये सार|

राह सुझाता धर्म है, कर्म लगाता  पार||

 

डूबी आशा की किरण,बैठा माथा टेक|

जीवन में होगा सफल,कर्म करे जो नेक||

 

बाँचो कर्म कुकर्म में, पाप पुण्य का फर्क|

एक भेजता स्वर्ग में, दूजा भेजे नर्क||

 

खुशियाँ अच्छे कर्म दें,बुरे कर्म संताप|

करने से पहले गुणें ,हो ना पश्चाताप||

 

द्वितीय प्रस्तुति

ग़ज़ल

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बिन किये बस  हार मिलती जीत हासिल कर्म से

रास्ते आसन होते ज्ञान के इस मर्म से

 

काम क्या अच्छा बुरा है जान लें इस फर्क को

कर्म से संतुष्ट तनमन रूह होती धर्म से

 

साफ़ मन हो पाक़ दिल हो ख़ास फ़ितरत चाहिए

फ़र्क क्या पड़ता बशर के काले गोरे चर्म से

 

दाग़ दामन पे लगे बेशर्म को क्या हो असर

फिक्र इज्जत की जिन्हें वो डूब मरते शर्म  से

 

खो गई तेरी तबस्सुम अब्र क्यूँ आये उमड़

क्यूँ ग़ज़ल अशआर तेरे आज इतने नर्म से

 

पुछल्ला --जीतते हैं देख कछुए होंसलों के कर्म से

हारते खरगोश लेकिन सुस्तता के जर्म से

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14. आदरणीय सुशील सरना जी

भज ले कर्म की माला (गीत)

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भज ले कर्म की माला मनवा

भज ले कर्म की माला

 

कुछ न होगा, लाख तूं जप ले,

राम नाम की माला

भगवे से क्या होगा तेरा

जब तक मन है काला

मन में तेरे मथुरा काशी

मन में तेरे शिवाला

सद्कर्मों से भर ले अपनी

साँसों का तू प्याला

कर्म ही देंगे मुक्ति तुझको

कर्म की फेर ले माला

व्यर्थ गंवा न जीवन अपना

अंत मिलेगी ज्वाला

तो

भज ले कर्म की माला मनवा

भज ले कर्म की माला

मुट्ठी में ले राख तू चाहे

बदन पे जितनी मल ले

अपने माथे को तू चाहे

पूरा तिलक से रंग ले

मिलेगी मुक्ति

तुझे न हरगिज़

चाहे चोटी लम्बी कर ले

भर के पेट किसी गरीब का

दुआ से झोली भर ले

तन के मैल की चिंता न कर

कर्म को रंग न काला

तो

भज ले कर्म की माला मनवा

भज ले कर्म की माला

मीरा ने पी जहर का प्याला

दरस प्रभु के पाए

श्रवण कुमार ने मात पिता की

सेवा में श्वास गंवाये

पितृ वचन की खातिर

वन में प्रभु राम हो आये

सत्य कर्म पर हरिश्चन्द्र ने

धर्म अजब निभाये

हर मनके में कर्म धर्म है

अलग नहीं कोई माला

बाद मिटने के कर्म दे जीवन

कर्म ही करे उजाला

तो

भज ले कर्म की माला मनवा

भज ले कर्म की माला

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15. आदरणीया कल्पना भट्ट जी

कर्म (अतुकांत)

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कर्म कर बखान करते

खुद अपना गुणगान करते

कर्म को क्या फ़र्ज़ समझते

या कर्म को बोझ समझते

सूर्य- के उदय से अस्त होने तक

फिर अस्त से उदय तक

निरंतर चलता एक क्रम है

बहेना नदी का पहाड़ो से

सागर में विलिन्न हो जाना

निश्चित अपना एक क्रम है

मनु रूप में जन्म लिया जो

शिशु से वृद्ध होने तक का

समय चक्र चलता रहेगा

कर्म अपनी गति पायेगा

चलता रहा है बस चक्र यह

हर दम चलता रहेगा |

जन्म मनु के कर्म के लिए है

चक्र की तरह चलता रहेगा

यूँही बस चलता रहेगा |

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16.आदरणीय सतीश मापतपुरी जी

गीत

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कर्म की गुदड़ी में है लाल

हाथ - कुण्डली लाख दिखाओ , लिखा नहीं कुछ भाल

कर्म की गुदड़ी में है लाल

 

भाग्य भरोसे खोज रहा क्या ?

जीवन - समर में सोच रहा क्या ?

हिम्मते मरदा देख के अक्सर , डर जाता है काल

कर्म की गुदड़ी में है लाल

 

लूट - खसोट को कर्म ना समझो

झूठ - पाखण्ड को धर्म ना समझो

धर्म - कर्म शुभ का संवाहक , खुशियों की टकसाल

कर्म की गुदड़ी में है लाल

 

कर्म करो जो  हाथ मिला है

मानवता का साथ मिला है

प्रेम - दया की बांटो दौलत , क्यों बनते कंगाल ?

कर्म की गुदड़ी में है लाल

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17.आदरणीया डॉ. प्राची सिंह जी

गीत

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छोटी सी यह गुरुबानी पर बात बड़ी अनमोल रे

कर्मों की चाबी से बन्दे, द्वार भाग्य के खोल रे

 

जख्म बहुत गहरे अपनों पर

शब्दों की तलवार के,

मरहम मीठी लेकर लेकिन

सम्मुख है संसार के,

संग कभी अपनों के भी कह, मुख से मीठे बोल रे....

 

मंदिर में मूरत लगवा दी

शिलापट्ट पर नाम भी,

भण्डारे वो ही करवाये

हो जिनमें यशगान भी,

कहो पुण्य या ख्याति कमाई, नीयत में जब झोल रे....

 

निश्छल हों यदि भाव हृदय के

कर्म अगर परमार्थ हों,

फल इच्छा से युक्त न हो कर

कर्म अगर निःस्वार्थ हों,

भाग्योदय निश्चित करते हैं, दिल को ज़रा टटोल रे....

 

मर्म भुला कर क्षणिक स्वार्थ से

किया कर्म अज्ञान है,

धर्म समझ कर शुद्ध भाव से

हुआ कर्म वरदान है,

मझधारों में कश्ती वरना, चलती डाँवाडोल रे....

 

कर्म सदा से भाग्य रचयिता

पुण्य इन्ही से पाप भी,

इनसे ही साम्राज्य सुखों का

इनसे ही संताप भी,

कर्म सदा करने से पहले, मन में अपने तोल रे....

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18. आदरणीय सुरेश कुमार ‘कल्याण’

दोहा छन्द

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पार्थ सखा को कृष्ण ने, दिया कर्म का ज्ञान।

जग की चिंता छोड़ तुम, कर्म करो निष्काम।1।

 

कर्म करन को दाम है, कर्म बिना सब धूल।

कर्म बिना कछु ना मिलै, कर्म सृष्टि का मूल।2।

 

साथी तेरा कर्म है, ऐसा मीत न कोय।

धन माया सब पड़ी रह, कोई साथ न होय।3।

 

पाप कर्म धन जोड़कर, क्यों करते अभिमान।

नेक कर्म को छोड़कर, कैसे हो 'कल्याण'।4।

 

कर्म तराजू तोल कर, देख कहाँ हैं आप।

दया धर्म सद्कर्म से, मिटे पाप संताप।5।

 

लोहा मान विज्ञान का, मिटा अंधविश्वास।

अग्नि कर्म की जलत ज्यों, जलती सूखी घास।6।

 

द्वितीय प्रस्तुति

कर्म

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कर्म ही शक्ति कर्म ही पूजा

कर्म ही है अभिमान।

कर्म ही भक्ति कर्म ही ऊर्जा

कर्म ही है अरमान।

कर्म की खातिर मुनियों ने

योग मार्ग को अपनाया।

कर्म की खातिर देवव्रत ने

ब्रह्मचर्य व्रत निभाया।

कुरूक्षेत्र की पावन भूमि का

कर्म ने मान बढ़ाया।

सखा कृष्ण ने वीर पार्थ को

कर्म का पाठ पढ़ाया।

निष्काम कर्म करे जा पार्थ

इसमें ही सबका मान है।

सबको तो मैं मार चुका

बस होना तेरा नाम है।

हे कर्मवीर हे शूरवीर

तुम कर्म को अपने पहचानो।

रंग भेद और नस्ल जाति को

शत्रु अपना तुम मानो।

देख लो भंवरा कर्म की खातिर

अपनी जान लुटाता है।

दीपक को निज कर्म की खातिर

खुद जलना भी भाता है।

मानव तेरे कुकर्म देखकर

खुदा भी शरमा जाएगा।

बीज बोया है जैसा तूने

तेरे ही आगे आएगा।

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19.आदरणीय शेख शहजाद उस्मानी जी

विषय आधारित (अतुकांत)

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परिभाषायें, मुहावरे बदले,

धर्म, कर्म के चोले बदले,

मनचाहे फल की चाह में,

स्वर्ग-नरक के मार्ग बदले।

कर्म, कुकर्म, अकर्म, दुष्कर्म के

देखो कैसे नित रूप बदले।

नकारात्मक चिंतन-मंथन,

तो हो गया कुरीति- आमंत्रण।

 

मंदिर-मस्जिद आना-जाना

जमीर बेच जोड़ ख़ज़ाना,

दान-कर्म भी करते जाना,

तो हो गया सत्कर्म।

 

उत्तेजक रसायन, दवायें,

अश्लील चित्र, चलचित्र,

अस्थिर चित्त, एकांत मित्र,

तो हो गया दुष्कर्म।

 

ज़माने की दौड़ में,

दौलत की होड़ में,

दूसरों का शोषण,

परिवार, फ़ैशन का पालन-पोषण,

तो हो गया भ्रष्टाचार-रोपण।

 

स्वार्थ-पूर्ति के खेल में,

दिखावे की होड़ में,

दूसरों का अवरोहण,

निज छवि का आरोहण,

एक 'आदत' का 'बीजारोपण',

तो हो गया 'वृक्षारोपण'।

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20. आदरणीय नादिर खान जी

विषय आधारित (अतुकांत)

================================

तौलते  रहिये अपने कर्म

कहीं बिगड़ न जाये बैलेंस

हावी न हो जाये

कर्मों पर विचार शून्यता

कुंद न हो जाये सोचने समझने की शक्ति ...

 

तौलते  रहिये अपने कर्म

कहीं बन न जाये

छणिक  फ़ायदा

दीर्ध कालीन नुक्सान का कारण ....

 

तौलते  रहिये अपने कर्म

इससे पहले कि

खुद पर, खुद का, कॉन्ट्रोल ही न रहे

 

तौलते  रहिये

क्योंकि ढोना खुद को ही पड़ता है

अपने कर्मों का बोझ

आज नहीं तो कल ….

------------------------------------------------------------------------------------------------------------

21. आदरणीय मोहम्मद आरिफ़ जी

कर्म (अतुकांत)

===========================

कर्म जीवन की

आधारशिला

कर्म जीवन की धुरी

कर्म में हैं

हम सब लीन

कर्म से पहचान

कर्म से हमारी शान

बिना कर्म के

जीवन कैसा

जैसे बिन जल के मीन

कर्म से रहता अभिमान

कर्म का मिला हमें वरदान

कर्म से चेतना

कर्म से चरित्र निर्माण

गीता का संदेश

‘कर्मण्यवादिकारस्य

मा फलेषु कदाचनम्’

कर्म से बना मोहनदास

महात्मा गाँधी

कर्म से बना कलाम

मिसाइलमैन

सदा स्मरण रहे

कर्म ही धर्म

धर्म ही कर्म

-------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------

समाप्त 

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सादर हार्दिक बधाई संकलन प्रकाशित करने पर। मेरी रचना को स्थान देने के लिए तहे दिल से बहुत बहुत शुक्रिया मोहतरम जनाब मंच संचालक महोदय। सभी रचनाकारों को हृदयतल से बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएँ।

हार्दिक धन्यवाद आपका 

धन्यवाद आदरणीय मिथिलेश भाईजी, अति व्यस्तता के बाद भी संकलन के लिए आभार शुभकामनायें।

अनुरोध -  तीन दोहों में संशोधन है . मूल से प्रतिस्थापित करने की कृपा करें।

ज्ञान बिना है कर्म क्या, भक्ति बिना क्या ज्ञान।

भगवत् बिनु है भक्ति क्या, बिन गुरु क्या भगवान॥

 

नित्य धर्म से जोड़कर, करते रहिए कर्म।                           

परमात्मा को पा सकें, यही जीव का धर्म॥

 

 सिर्फ किताबी ज्ञान से, आत्मिक सुख ना चैन।                                 

 भक्ति बिना ना मुक्ति हो, जीव रहे बेचैन॥

 

‘मैं’ को पहले जानिए, फिर कीजै सब काम।

सार्थक मानव जन्म हो, भक्ति करें निष्काम॥

 

 

मन पर काबू है नहीं, बिगड़ गया हर काम।                                        

माया आई पास तो, दूर हो गए राम॥

 

 

मनुज अकर्मा ना रहे, जब तक तन में जान।                                               

फल की चिंता छोड़िए, रहे लक्ष्य पर ध्यान॥

उल्टे सीधे कर्म से, होगा बेड़ा गर्क।

स्वर्ग मिले ना ये धरा, मिले एक बस नर्क॥

.............................................................

 यथा निवेदित तथा प्रतिस्थापित

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