: कृतिचर्चा :
चित्रगुप्त मीमांसा : श्रृष्टि-श्रृष्टा की तलाश में सार्थक सृजन यात्रा
चर्चाकार: आचार्य संजीव 'सलिल'
(कृति विवरण: नाम: चित्रगुप्त मीमांसा, विधा: गद्य, कृतिकार: रवीन्द्र नाथ, आकर: डिमाई, पृष्ठ: ९३, मूल्य: ७५/-,आवरण: पेपरबैक, अजिल्द-एकरंगी, प्रकाशक: जैनेन्द्र नाथ, सी १८४/३५१ तुर्कमानपुर, गोरखपुर २७३००५ )
श्रृष्टि के सृजन के पश्चात से अब तक विकास के विविध चरणों की खोज आदिकाल से मनुष्य का साध्य रही है। 'अथातो धर्म जिज्ञासा' और 'कोहं' जैसे प्रश्न हर देश-कल-समय में पूछे और बूझे जाते रहे हैं। समीक्ष्य कृति में श्री रविन्द्र नाथ ने इन चिर-अनुत्तरित प्रश्नों का उत्तर अपनी मौलिक विवेचना से देने का प्रयास किया है।
चित्रगुप्त, कायस्थ, नारायण, ब्रम्हा, विष्णु, महेश, सरस्वती, इहलोक, परलोक आदि अबूझ प्रश्नों को तर्क के निकष पर बूझते हुए श्री रवींद्र नाथ ने इस कृति में चित्रगुप्त की अवधारणा का उदय, सामाजिक संरचना और चित्रगुप्त, सांस्कृतिक विकास और चित्रगुप्त, चित्रगुप्त पूजा और साक्षरता, पारलौकिक न्याय और चित्रगुप्त, लौकिक प्रशासन और चित्रगुप्त तथा जगत में चित्रगुप्त का निवास शीर्षक सात अध्यायों में अपनी अवधारणा प्रस्तुत की है।
विस्मय यह कि इस कृति में चित्रगुप्त के वैवाहिक संबंधों (प्रचलित धारणाओं के अनुसार २ या ३ विवाह), १२ पुत्रों तथा वंश परंपरा का कोई उल्लेख नहीं है। यम-यमी संवाद व यम द्वितीया, मनु, सत्य-नारायण, आदि लगभग अज्ञात प्रसंगों पर लेखक ने यथा संभव तर्क सम्मत मौलिक चिंतन कर विचार मंथन से प्राप्त अमृत जिज्ञासु पाठकों के लिए प्रस्तुत किया है।
पुस्तक का विवेच्य विषय जटिल तथा गूढ़ होने पर भी कृतिकार उसे सरल, सहज, बोधगम्य, रोचक, प्रसादगुण संपन्न भाषा में अभिव्यक्त करने में सफल हुआ है। अपने मत के समर्थन में लेखक ने विविध ग्रंथों का उल्लेख कर पुष्ट-प्रामाणिक पीठिका तैयार की है। गायत्री तथा अग्नि पूजन के विधान को चित्रगुप्त से सम्बद्ध करना, चित्रगुप्त को परात्पर ब्रम्ह तथा ब्रम्हा-विष्णु-महेश का मूल मानने की जो अवधारणा अखिल कायस्थ महासभा के हैदराबाद अधिवेशन के बाद से मेरे द्वारा लगातार प्रस्तुत की जाती रही है, उसे इस कृति में लेखक ने न केवल स्वीकार किया है अपितु उसके समर्थन में पुष्ट प्रमाण भी प्रस्तुत किये हैं।
यह सत्य है कि मेरी तथा लेखक की भेंट कभी नहीं हुई तथा हम दोनों लगभग एक समय एक से विचार तथा निष्कर्ष से जुड़े किन्तु परात्पर परम्ब्रम्ह की परम सत्ता की एक समय में एक साथ, एक सी अनुभूति अनेक ब्रम्हांश करें तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं। 'को जानत, वहि देत जनाई'... सत्य-शिव-सुंदर की सनातन सत्ता की अनुभूति श्री मुरली मनोहर श्रीवास्तव, बालाघाट को भी हुई और उनहोंने 'चित्रगुप्त मानस' महाकाव्य की रचना की है, जिस पर हम बाद में चर्चा करेंगे।
'इल' द्वारा इलाहाबाद तथा 'गय' द्वारा गया की स्थापना सम्बन्धी तथ्य मेरे लिए नए हैं. कायस्थी लिपि के बिहार से काठियावाड तक प्रसार तथा ब्राम्ही लिपि से अंतर्संबंध पर अधिक अन्वेषण आवश्यक है। मेरी जानकारी के अनुसार इस लिपि को 'कैथी' कहते हैं तथा इसकी वर्णमाला भी उपलब्ध है. संभवतः यह लिपि संस्कृत के प्रचलन से पहले प्रबुद्ध तथा वणिक वर्ग की भाषा थी।
लेखक की अन्य १४ कृतियों में पौराणिक हिरन्यपुर साम्राज्य, सागर मंथन- एक महायज्ञ, विदुए का राजनैतिक चिंतन आदि कृतियाँ इस जटिल विषय पर लेखन का सत्पात्र प्रमाणित करती हैं। इस शुष्ठु कृति के सृजन हेतु लेखक साधुवाद का पात्र है ।
- दिव्यनर्मदा .ब्ला