डॉ गोयल ने चिकित्सा व साहित्य दोनों ही क्षेत्रों में अपना सम्यक व महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है | शल्य चिकित्सा से जुड़े रहने के बावजूद आपका साहित्य के प्रति जुड़ाव एक सुखद व प्रेरणास्पद एहसास देता है | आपने इन दोनों ही क्षेत्रों में अपनी मौलिक प्रतिभा व मेहनत की सीमा के शीर्ष को स्पर्श किया है | भौतिकता की चकाचौंध के बीच जिस प्रकार संतुलित ढंग से आपने अपने सम्पूर्ण जीवन को सुव्यवस्थित किया, वह काबिले तारीफ है | आपकी ‘डाउन टू अर्थ’ क्वालिटी आपको महानतम व्यक्तियों की श्रेणी में खड़ा करती है, बस इससे ज्यादा मैं आपके बारे में क्या कहूँ !
प्रस्तुत पुस्तक अपने समय का न सिर्फ एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज है बल्कि इसकी प्रासंगिकता वर्तमान समय में भी उतनी ही है जितनी कि लेखक के समय में | इसे साहित्य की किस विधा के अंतर्गत रखा जाय इसमें विद्वानों को मतभेद हो सकता है परन्तु मेरे हिसाब से इसे आत्मकथा कहना ज्यादा समीचीन होगा |
पुस्तक की शुरुवात में ही लेखक का आत्मनिवेदन उसे पाठक के साथ खड़ा कर देता है और फिर ऐसा आत्मिक जुड़ाव गंठ जाता है कि पाठक उसे पूरा पढ़े बिना नहीं रह पाता | लेखक और पाठक के बीच की खाई को पाटने में सिद्धहस्त लेखक की यही विशेषता उसे समकालीन लेखकों की परंपरागत श्रेणी से अलग खड़ा करती है |
सम्पूर्ण पुस्तक तीन खण्डों में विभाजित है | उ.प्र. के जिला बुलंदशहर (अब गौतमबुद्धनगर) के एक छोटे से कसबे दनकौर से शुरू हुआ लेखक का जीवन क्रमिक व सहज रूप से विकसित हुआ | गाँव का सरकारी स्कूल, वहां के गुरुजनों की सुखद यादें, माता-पिता के संग खेलता बचपन, शैतानियाँ, संस्कार व परिवारी जनों का लाड़प्यार ! लेखक ने इन सब बीती बातों की सुखद स्मृतियों को बड़ी सटीक व मार्मिक अभिव्यक्ति दी है | उसके बाद अपनी सघन मेधा व मेहनत के बल पर उसका चयन पीएमटी में हो गया तत्पश्चात किंग जॉर्ज मेडिकल कॉलेज, लखनऊ में लेखक के छात्र जीवन का रोचक वर्णन पाठकों को आनंदित करता है | जिंदगी के लगभग हर पहलू को समेटते हुए लेखक ने अपने जीवन में घटने वाले छोटे-बड़े सभी प्रसंगों को बड़ी ईमानदारी व सच्चे मन से प्रकट किया है |
लेखक की भाषा-शैली प्रवाहपूर्ण है जो कि पाठक के मन पर सीधा प्रभाव डालती है | संक्षेप में इस पुस्तक में न सिर्फ लेखक बल्कि मानवमात्र की स्मृतियों, अनुभवों व भारतीय संस्कृति के अनुपम संस्कारों को बड़े अच्छे तरीके से संजोया गया है | सद्विचारों से परिपूर्ण लेखक की गहरी मानवीय संवेदनाएं पाठकजन के हृदयस्थल पर अपनी अमिट पहचान बनाती चली जाती हैं |
प्रस्तुत पुस्तक का अध्ययन हमें आशा व उल्लास से परिपूर्ण एक नया जीवनदर्शन देता है | पांच विशिष्ट सम्मानों से अलंकृत इस जीवनोपयोगी कालजयी कृति का हिंदी के अतिरिक्त अन्य भाषाओँ में अनुवाद अपेक्षित है, जिससे कि ज्यादा से ज्यादा पाठकजन इससे लाभान्वित हो सकें |
समीक्ष्य पुस्तक- दनकौर से लखनऊ तक (तृतीय संस्करण)
लेखक- डॉ टी. सी. गोयल
समीक्षक- राहुल देव
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
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किसी पुस्तक की समीक्षा मात्र कथ्य या आत्मपरक वर्णन न हो कर उस पुस्तक के सांगोपांग गुणों को समुचित ढंग रखने की लेखकीय कला है. यह लेखन किसी सचेत पाठक द्वारा समीक्ष्य पुस्तक का परिचय हुआ करता है.
उ.प्र. के जिला बुलंदशहर (अब गौतमबुद्धनगर) के एक छोटे से कसबे दनकौर से शुरू हुआ लेखक का जीवन क्रमिक व सहज रूप से विकसित हुआ | गाँव का सरकारी स्कूल, वहां के गुरुजनों की सुखद यादें, माता-पिता के संग खेलता बचपन, शैतानियाँ, संस्कार व परिवारी जनों का लाड़प्यार ! लेखक ने इन सब बीती बातों की सुखद स्मृतियों को बड़ी सटीक व मार्मिक अभिव्यक्ति दी है | उसके बाद अपनी सघन मेधा व मेहनत के बल पर उसका चयन पीएमटी में हो गया तत्पश्चात किंग जॉर्ज मेडिकल कॉलेज, लखनऊ में लेखक के छात्र जीवन का रोचक वर्णन पाठकों को आनंदित करता है | जिंदगी के लगभग हर पहलू को समेटते हुए लेखक ने अपने जीवन में घटने वाले छोटे-बड़े सभी प्रसंगों को बड़ी ईमानदारी व सच्चे मन से प्रकट किया है
उपरोक्त वाक्य स्पष्ट रूप से साझा करते हैं कि प्रस्तुत पुस्तक संस्मरणात्मक है या आत्मकथ्य, जिसके अपने उद्येश्य हैं. उद्येश्य के उन विन्दुओं के अंतर्गत लेखन सदा से किसी पुस्तक को मिली मान्यता का कारण हुआ करती है.
फिर समीक्षा-लेखक द्वारा यह कहना कि इसे साहित्य की किस विधा के अंतर्गत रखा जाय इसमें विद्वानों को मतभेद हो सकता है परन्तु मेरे हिसाब से इसे आत्मकथा कहना ज्यादा समीचीन होगा, अनावश्यक रूप से पुस्तक की संज्ञा के अर्थों में ’कुछ विशेष समझ’ में आ जाने के रूप में समीक्षा-पाठकों सामने आता है. ऐसी किसी ’समझ’ की क्या आवश्यकता हो सकती है यह सदा से प्रश्नों के दायरे में रहेगी.
बहरहाल, एक नये पुस्तक को सामने लाने के लिए समीक्षा-लेखक भाई राहुल देव को अनेकानेक शुभकामनाएँ.. .
शुभ-शुभ
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