यह मान कर आगे बढ़ रहा हूँ कि पाठकगण और जागरुक छंद-प्रशिक्षु छंद विषयक मूलभूत जानकारी भाग - १, भाग - २ प्राप्त करने के क्रम में वर्ण और गण सम्बन्धी जानकारियाँ प्राप्त कर लिये हैं.
किसी एक गण को, जो क्रमशः लघु और गुरु को मिला कर तीन वर्ण बनाते हैं, यथा, यगण, सगण, भगण आदि-आदि, की सात आवृतियों के साथ आवश्यकतानुसार गुरु या लघु वर्ण या एक या अधिक कोई अन्य यथोचित गण से बनी आवृति को जो एक पद का निर्माण करते हैं, ऐसे चार पदों के समूह को सवैया कहते हैं. इसतरह से स्पष्ट है कि सवैया वर्णिक छंद होते हैं. एक सवैया में अमूमन चार पद होते हैं और उनका स्वरूप तुकांत होता है. यानि एक सवैया छंद चार पदों का होता है.
वर्णिक पंक्तियों --इसे वृत्त भी कहते हैं-- में 22 से 26 वर्ण के चरण अथवा पद वाले जाति-छन्दों को सवैया कहा जाता है. यहाँ पद और चरण दोनों की क्यों बात की गयी है यह सवैया के विभिन्न प्रारूपों को पढने के बाद स्वयं ज्ञात हो जायेगा.
कवित्त-घनाक्षरी के समान ही हिन्दी रीतिकाल में विभिन्न प्रकार के सवैया प्रचलित रहे हैं. कई विद्वान हिन्दी के सवैया को भी कवित्त की तरह मुक्तक की तरह गिनते हैं.
जिस प्रकार कवित्त एक विशेष लय पर चलता है, उसी प्रकार सवैया भी लयमूलक ही है.
सवैया चूँकि एक वर्णिक छंद है, जिसमें गणों के अनुसार शाब्दिकता स्थान प्राप्त करती है, अतः इसके पद आज की हिन्दी के रूप को सहज स्वीकार नहीं करते. या कहा जाना चाहिए कि कठिनता से स्वीकार करते हैं.
हिन्दी का आंचलिक रूप इस छंद को अधिक संतुष्ट करता है. या, यह भी सत्य है कि आंचलिक भाषाओं, यथा, अवधी, ब्रज,भोजपुरी आदि भाषाओं में सवैया छंद में रचनाकर्म अधिक सरल है.
कारण कि, वाचन-प्रवाह के क्रम में कई शब्दों की मात्राएँ गणों के अनुसार बरतनी पड़ती है. इस से होता यह है कि शब्दों में निहित गुरु मात्राएँ उच्चारित तो होती हैं लेकिन उन पर स्वरघात का समय गण के तयशुदा लघु वर्ण के हिसाब से कम हो जाता है और वे लघु के अधिक सन्निकट हो जाती हैं. दूसरे, हमें शब्द और गण आधारित पद में अंतर समझना चाहिये. यहाँ ध्यातव्य है कि यह पद ऐसे शब्द जो गण के अनुरूप ढल जाते हैं. जैसे, मन शब्द है जबकि मनहिं पद है, जिसका अर्थ है मन में.
पुनः, एक शब्द लिया जाय सारे. यहाँ रे पर यदि बलाघात कम कर दिया जाय तो ’रे’ का लघु रूप उच्चारित होगा. इसी तरह नहीं शब्द है. इसे नहिं की तरह लिखा भी जाता है. ही को हि कर दिया जाता है. या, है को भी कभी-कभी ह की तरह या कम स्वरबल लगा कर लघु रूप में उच्चारित करते हैं.
अब प्रश्न उठता है कि शब्द सारे के सा पर बलाघात कम किया जा सकता है क्या ? इस का उत्तर इस शब्द की बुनावट में छुपा है जहाँ सा का लघु होना इस शब्द के रूप को ही बिगाड़ कर रख देगा. और सारे सरे की तरह उच्चारित होगा. इस तरह तो शब्द ही बदल गया. यह तो शब्द की आत्मा से ही खिलवाड़ होना हो गया. है न ?
एक बात और, जो सभी प्रकार के शास्त्रीय छंदों में मान्य है, वह यह है कि कारक की विभक्तियों के एक शाब्दिकचिह्न लघु की तरह व्यवहार में लाये जा सकते हैं.
जैसे,
कर्ता - ने को न की तरह उच्चारित किया सकता है.
कर्म - को. इसे क पढ़ा जा सकता है.
करण - से स की तरह पढ़ सकते हैं.
अपादान - से. इसे स की तरह लिया जा सकता है.
सम्बन्ध - का, के, की के लिए भी मात्र क कहा जा सकता है.
अधिकरण - में, पे आदि क्रमशः मँ और प की तरह उच्चारित हो सकते हैं.
उच्चारण के कारण ही कारक विभक्तियों के चिह्न छंद रचना के समय लघु रूप में व्यवहृत होते हैं.
सवैया के निम्नलिखित विभिन्न प्रकार अत्यंत प्रचलित हैं.
भगणाश्रित मुख्यतः छः सवैये हैं -
1) मदिरा 2) मत्तगयन्द 3) चकोर 4) किरीट 5) अरसात 6) मोद [भगण X 5 + मगण सगण गुरु]
सगणाश्रित मुख्यतः चार सवैये हैं -
1) दुर्मिल 2) सुन्दरी 3) अरविन्द 4) सुखी और सुख
जगणाश्रित मुख्यतः चार सवैये हैं -
1) सुमुखि 2) मुक्ताहरा 3) वाम 4) लवंगलता [जगण X 8 +गुरु]
तगणाश्रित मुख्यतः तीन सवैये हैं -
1) मंदारमाला 2) सर्वगामी [तगण X 7 + गु्रु गुरु] 3) आभार [तगण X 8]
रगणाश्रित मुख्यतः एक सवैया है -
1) गंगोदक
यगणाश्रित मुख्यतः दो सवैये हैं -
1) महाभुजंगप्रयात 2) वागीश्वरी [यगण X 7 +लघु गुरु]
मगणाश्रित (मगण - दीर्घ दीर्घ दीर्घ यानि सभी गु्रु वर्ण) और नगणाश्रित (नगण - ह्रस्व ह्रस्व ह्रस्व यानि सभी लघु वर्ण) स्वरानुसार (गेयता के हिसाब से) आवृतियाँ उचित नहीं होतीं. हुईं भी तो इनका वृत अरुचिकारक ही होगा.
आगे यथासंभव एक समूह से कमसेकम एक सवैया की प्रक्रिया पर अवश्य चर्चा करेंगे.
उपजाति सवैया का भी खूब प्रचलन रहा है. कहते हैं उपजाति सवैया स्वामी तुलसीदास से प्रारंभ हुआ है. माना जाता है कि तुलसीदास ने 'कवितावली' में सर्वप्रथम इनका प्रयोग किया था. उपजाति का अर्थ है जिसमें दो भिन्न सवैया एक साथ प्रयुक्त हुए हों. केशवदास ने भी इस दिशा में बखूब प्रयोग किये हैं.
निम्नलिखित सारिणी - 1 भगणाश्रित, सगणाश्रित और जगणाश्रित सवैयों की आवृतियों को दर्शाती है. इनके पदांत में साम्य होना विशेष रूप से द्रष्टव्य है.
सारिणी - 1
निम्नलिखित सारिणी - 2 तगणाश्रित, यगणाश्रित और रगणाश्रित सवैयों की आवृतियों को दर्शाती है. इनके पदांत में साम्य होना विशेष रूप से द्रष्टव्य है.
सारिणी - 2
इन दोनों सारिणियों से सवैयों के प्रारूपों की आवृतियों से संबंधित सटीक जानकारियाँ मिल जाती हैं.
ज्ञातव्य :
प्रस्तुत आलेख प्राप्त जानकारी और उपलब्ध साहित्य पर आधारित है.
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छंदों के विधानों को सरल शब्दों और सहज भाषा में साझा करने का हमारा प्रयास आपको रुचिकर लगा, यह हमारे लिए भी संतोष की बात है. तदनुरूप सीख कर आप अभ्यास के लिए प्रेरित हों, यह अधिक महत्वपूर्ण है.
//मैं घनाक्षरी छन्द को लयबद्ध ढंग से नहीं पढ पाता हूँ। इसकी लय मुझे समझ में ही नहीं आती है। यदि इसकी कहीं जानकारी है तो उपलब्ध कराने की कृपा करें।//
आप इस मंच पर नये आये हैं, बंधुवर. खूब खंगालिये. .. जो खोजा तिन पाइयाँ के लहज़े में .... हा हा हा हा.. ..
ख़ैर, घनाक्षरी को गाते हुए गणेश बाग़ीजी ही मिल जायेंगे. लिंक दे रहा हूँ -
http://www.openbooksonline.com/group/bhojpuri_sahitya/forum/topics/...
(यह सद्यः समाप्त हुए ओबीओ भोजपुरी काव्य प्रतियोगिता, अंक - 1 का लिंक है)
शुभ-शुभ
आदरणीय, गुरूवर सौरभ जी, सुप्रभात व सादर प्रणाम! जी सर, मैं सीख रहा हूं। छन्दो पर विशद व व्यवहारिक ज्ञान का मंथन अथ अमृत वर्षा। अतुलनीय सराहनीय कार्य तथा आपके सार्थक प्रयास, असीम कृपा एवं उदार व्यक्तित्व के फलस्वरूप मुझे ही क्यों यह तो ओ0बी0ओ0 के समस्त सदस्यो के लिये भी अतिदुर्लभ ज्ञान की प्राप्ति हुई। आपका तहेदिल से कृतज्ञता व आभार प्रकट करता हूं। कोटिश नमन। सादर,
आपका स्वागत है, भाई केवल प्रसादजी.. किन्तु, अबतक कहाँ थे भाई ?.. .
शुभ-शुभ
इस अमूल्य जानकारी के लिए आदरनीय सौरभ जी को , आभार ... एक बहुत ही छोटा सा प्रश्न की जिज्ञासा है की चन्द्र कला छंद भी यही है क्या ?
उपलब्ध जानकारी के अनुसार चंद्रकला छंद दुर्मिल सवैया का ही दूसरा नाम है.यानि दुर्मिल सवैया को चंद्रकला छंद भी कहते हैं.
इस आलेख में आपने पढ़ा ही कि गणों के अनुसार सवैया कई होते हैं, यथा, दुर्मिल सवैया, मदिरा सवैया, चकोर सवैया, मत्तगयंद सवैया, सुन्दरी सवैया आदि-आदि.
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