For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

      

                  हिन्दी-विक्षनरी के अनुसार विभावन-व्यापार रसविधान में वह मानसिक व्यापार है जिसके कारण पात्र में प्रदर्शित   भाव    का श्रोता  या पाठक भी साधारणीकरण  द्वारा    भागी   होता है I साधारणीकरण का प्रथमोल्लेख आचार्य भट्टनायक  ने ‘काव्य प्रदीप’ में रस-सूत्र की व्याख्यान्तार्गत किया है I रस निष्पत्ति का विश्लेषण करते हुए उन्होंने विभावन-व्यापार की तीन क्रियाये स्वीकार की है I वे तीन प्रक्रियाये निम्न प्रकार है –

 

1-अभिधा क्रिया

2-भावकत्व क्रिया

3-भोजकत्व क्रिया

 

               उक्त अभिधा क्रिया द्वारा काव्य के शब्दार्थ का बोध होता है I   भावकत्व क्रिया में पाठक या श्रोता का भाव, विभाव आदि से साधारणीकरण हो जाता है I भोजकत्व क्रिया में प्रमाता रस का आस्वादन करने लगता है I ‘काव्य प्रदीप’   में    भट्टनायक   कहते   है –

 

 ‘ भावकत्वं साधारणीकरणम्  I तेन ही व्यापारेण विभावादयः स्थाई च साधारणीक्रियन्साधारणम् चेतदेवयत्सीतादि     विशेषाणाम्  कामानीत्वादि सामान्येनोपस्थितः I स्थार्य्यनुभावादीनांच सम्बंधविशेषानवच्छिन्नत्वेन I '    

    

                अर्थात,   भावकत्व व्यापार ही साधारणीकरण है I  क्योंकि इसी   से विभावादि   से    लेकर स्थायी-भाव तक साधारणीकृत हो जाते है I  साधारण   हो जाने   का तात्पर्य सीता जैसा  विशिष्ट पात्र भी सामान्या नारी सा भासित होने लगता है I ऐसा   इसलिए    होता  है क्योंकि स्थाई भाव और  अनुभाव उन    विशिष्ट पात्रो से विछिन्न होकर साधारण एवं अपने बीच के पात्रो से संवाहित होकर प्रमाता तक पहुचते है और उसे रस का आस्वाद करते है I एक उदाहरण है, जब वन मार्ग में सीता को   ग्राम -बधूटियां मिलती है तो   वे उनसे    पूंछती है  कि  राम-लक्ष्मण उनके कौन है ? लक्ष्मण के बारे में तो सीता बता देती है पर प्रिय के बारे में कैसे कहें ? यही पात्र का साधारणी- करण होता है i सीता सामान्य नारी बन जाती है I वर्णन है –

 

                              ‘बहुरि   वदन    विधु    अंचल   ढाँकी I पिय  तन  चितय  भौंह  करि बांकी I

                              खंजन मंजु तिरीछे नयनन्हि I निज पति कहेव तिनहि सिय सयनन्हि II’

 

                 यहाँ पात्र   का   वैशिष्ट्य    विछिन्न   है I   यही   साधारणीकरण है I  यहाँ   ध्यान देने   की बात यह है कि भट्टनायक की दृष्टि से साधारणीकरण रस आस्वादन से पूर्व की प्रक्रिया है I पहले प्रमाता शब्द का अर्थ समझता है , फिर भाव बोध होता है I इसके उपरांत भाव, विभाव और व्यभिचारी भाव का साधारणीकरण होता है तब रस का आस्वाद मिलता है I

 

                  आचार्य अभिनव गुप्त उक्त से सहमत तो है पर वे स्थायी-भाव के साधारणीकृत हो जाने की भी बात करते है I स्थाई भाव के साधारणीकरण तात्पर्य यह है कि व्यक्ति अपनी  वर्तमान भौतिक अवस्था, देश-काल एवं परिस्थिति को भूलकर विशिष्ट पात्रो की साधारणीकृत भाव दशा में पहुंचकर अपना तादात्म्य उस चरित्र के साथ स्थापित कर ले और  कुछ समय  के लिया अपना  निजी सुख-दुःख यहाँ तक  कि  अस्तित्व भी   विस्मृत कर दे I अभिनव गुप्त का मत भी उपेक्षणीय   नहीं   है I हमने प्रायः अनुभव किया है कि जब हम कोई कांटे का मैच या भावपूर्ण मूवी देखते है तो   अपनी    सुध- बुध भूल जाते है I अभिनव गुप्त इसी को स्थाई भाव का साधारणीकरण कहते है I

 

                  साधारणीकरण के सम्बन्ध में आचार्य मम्मट का कथन थोडा भिन्न है I  अपने ‘काव्य प्रकाश’ नामक ग्रन्थ में वे कहते है कि- ममैवैते शत्रोरेवैते तटस्थस्यैवैते  न ममैवैते न शत्रोरेवैते न तटस्थस्यैवैते इतिहास सम्बन्ध विशेष  स्वीकार, परिहार नियमावध्यवसायात साधारण्येन प्रतीतेर- भिव्यक्तिः I   अर्थात, ‘ ये मेरे है, ये शत्रु के है, ये तटस्थ के है ’  के      ममत्व    परत्व    वाले    भाव  ‘न ये मेरे है,   न ये शत्रु के है,   न ये तटस्थ के है ’ के रूप में साधारणीकृत   हो जाते है और   इतिहास     से संबंध विशेष    की स्वीकार्यता   को त्याग देते है तभी साधारणता के कारण रस की निष्पत्ति  होती है I

 

                   मम्मट   यह   भी     कहते    है   कि – ‘तत्काल विगलित परिमित्त प्रमातभाववशोनिम्षित देशांतर संपर्क शून्यापरिमित्त भावेन I’ अर्थात, साधारणीकरण होने पर प्रमाता का परिमित भाव-बोध तत्काल विगलित हो जाता है  और उसके स्थायी भाव जाग्रत हो जाते है  I  ऐसी स्थिति में व्यक्ति अपनी निजता में होकर भी सर्वतोभावेन नहीं होता I प्रमाता का ह्रदय भाव के चरम उन्मेष की अवस्था में देशांतर संपर्क शून्य हो जाता है I तब वह पूर्ण रूप से साधारणीकृत स्थाई भाव में समाविष्ट होता है और रस का आस्वादन करता है I

 

                  आचार्य विश्वनाथ ने  विभावो के साधारणीकरण के फलस्वरूप प्रमाता का काव्य में रस के आश्रय के साथ जो तादात्म्य बनता है , उसे साधारणीकरण माना है I ‘साहित्य दर्पण’ में वे कहते है कि - 

   

                                     व्यापारोSस्ति विभावादीनाम्  वा साधारणीकृतः I

                                       तत्प्रभावेण   यस्यासंयाथोदधि   प्लावालादयः I 

                                        प्रमाता   तदभेदेन    स्वत्मानं   प्रतिपद्यते I

 

               अर्थात  (हनुमान जब  समुद्र लंघन कर रहे होते है तो)   वीर-रसात्मक स्थायी –भाव   यानि   कि ‘उत्साह’ हनुमान के ह्रदय में उत्पन्न होता है पर विभाव आदि के साधारणीकरण के व्यापार से प्रेक्षक, पाठक, प्रमाता आदि भी उस उत्साह का किंचित अनुभव करते है और विभाव से अभेद जैसी स्थिति आती है I

 

               आचार्य विश्वनाथ मम्मट के ममत्व और परत्व वाली विचारधारा से भी सहमत नहीं है, उनका कहना है -   

                                             परस्य  न   परस्येति  ममेति  न ममेति च  I

                                         तदाववादे : विभावावे : परिच्छेदो न विद्यते I

 

                अर्थात,  वे मेरे है या मेरे नहीं है I  दूसरे के है अथवा    दूसरे के नहीं है,  इस भावना से विभाव आदि का परिच्छेद नहीं होता I यानि कि पात्र से सम्बन्ध विशेष का न स्वीकार होता है और न परिहार होता है I   आचार्य केशव प्रसाद मिश्र अभिनव गुप्त से प्रभावित लगते है I उनका कहना है कि साधारणीकरण पाठक या प्रमाता की चित्तवृत्ति से सम्बन्ध रखता है I   मम्मट के विचार से  इनका विचार विशेष मेल नहीं खाता क्योंकि आचार्य केशव विभाव को सीमित एवं बद्ध तथा भाव को असीमित एवं मुक्त मानते है I अतः भाव का साधारणीकरण ही पूर्ण चित्त को एकरस करने वाला है I

 

               उक्त सभी आचार्यो के विचार को समष्टिगत रूप से देखे तो भट्टनायक विशेष (पात्र) के साधारणीकरण की  बात  कहते  है I  अभिनवगुप्त   आश्रय   के ह्रदय  में   उठने वाले स्थाई भाव के साधारणीकरण के पक्षधर है I

आचार्य मम्मट ममत्व और परत्व के संबंधो के   साधारणीकरण  के हिमायती है I   इस क्रम में आचार्य विश्वनाथ विभाव के साधारणीकरण की वकालत करते है I  अंत में  आचार्य केशव विभाव को सीमित व् बद्ध मानकर भाव के साधारणीकरण का समर्थन करते है I

 

              आचार्यो   के उपरांत हिन्दी   के अन्य मूर्धन्य  विद्वानो  के विचारो पर भी ध्यान देना समीचीन है I  डा0 श्यामसुन्दरदास के अनुसार  साधारणी-करण न   तो आलंबन   का होता है और  न आश्रय का अपितु यह कवि की अनुभूति का होता है  I    अर्थात   साधारणीकरण    में    तीन   तत्व     सम्मिलित है – कवि,   प्रमाता   और   कवि   की भावभिव्यक्ति I यह कथन आचार्य लोल्लट  द्वारा समर्थित है i  डा0 नगेन्द्र भी लगभग यही बात कहते है I उनके अनुसार काव्य के पाठन द्वारा पाठक या श्रोता का  भाव सामान्य भूमि पर पहुँच जाना, साधारणीकरण है I हिंदी–शब्द–सागर के   अनुसार     रस-निष्पत्ति की   वह स्थिति जिसमें दर्शक या पाठक कोई अभिनय देखकर या काव्य पढ़कर उससे तादात्मय स्थापित करता हुआ उसका पूरा-पूरा रसास्वादन करता है, साधारणीकरण कहलाता है I

 

              उपर्युक्त  सभी मंतव्यो पर विचार कर   साधारणीकरण   का   जो   सर्वमान्य रूप उभरता है वह यह है कि साधारणीकरण   सदैव    कवि  की अनुभूति   का होता है,   वह   रचना    में अपने    भाव    इस      प्रकार    रखता है कि

सभी के ह्रदय में  समान अनुभूति जगती है I काव्य में वर्णित विशेष पात्र विभिन्न मनोभावों से गुजरते है I पाठक या प्रमाता को काव्यानंद या रसानुभूति तब होती है जब वह   विशिष्ट पात्रो के भावो को आत्मसात करता है या उससे तादात्म्य   स्थापित  करता है I  पात्र के रूप में किसी काव्य के अंतर्गत  राम  के ह्रदय  में क्या चल रहा है, लक्ष्मण क्या सोच रहे है , इसका ज्ञान हमें कवि करता है I दर्शक या पाठक का सम्बंध पात्र से नहीं होता क्योंकि पात्र तो विशिष्ट होते है , प्रमाता की आत्मा तो केवल उन भावो,  अनुभावों   एवं संचारी भावो को ग्रहण करती है जो पात्रो के ह्रदय में कथा प्रसंगवश स्फुरित होते रहते है I इस प्रकार प्रेक्षक या पाठक की भाव भूमि भी वही हो जाती है जो काव्य या नाटक में विशिष्ट पात्रो की होती है I विशिष्ट से सामान्य जन का यह तादात्म्य उतना ही प्रगाढ़   होगा  जितनी   भावपूर्ण    कवि     की रचना    होगी,   यही तादात्म्य कवि की अनुभूति का साधारणीकरण है I साधारणीकरण को और सहजता से समझने के लिए एक काव्य-प्रसंग पर चर्चा की जानी प्रासंगिक जान पड़ती है I मानस का  चित्रण इस प्रकार है –

 

 

                             कंकण किंकिणि नूपुर  धुनि सुनि I कहत लखन सन  राम ह्रदय गुनि I

                             मानहु    मदन   दुन्दुभी     दीन्ही  I  मनसा    विश्व    विजय   कंह    कीन्ही I

                             अस कहि फिरि चितये तेहि ओरा I सिय मुख  शशि भये नयन चकोरा I

                             भये    विलोचन    चारू   अचंचल I  मनहु    सकुचि    निमि   तजेउ दृगंचल I

                             देखि    सीय     शोभा    सुख    पावा I  ह्रदय    सराहत     वचन   न   आवा I

 

                उक्त काव्य पंक्ति में अदृश्य रूप से विद्यमान स्वयं कवि तुलसी है I नायक-नायिका  राम और सीता है I प्रमाता के रूप में पाठक, श्रोता या दर्शक है I रस-व्यंजना की भाषा में सीता आलंबन है I राम आश्रय है I जनक-वाटिका का वासंतिक वैभव उद्दीपन है ,जिसको बढाने वाला विभाव सीता के कंकण, किंकिणि व नुपुर है जिनसे मदन का वीर-घोष सुनायी  देता प्रतीत होता है I   इसे सुन कर राम का पुलकायमान होना और लक्ष्मण से चर्चा करना अनुभाव है I  यहाँ     सीता  के बारे   में सोचना, फिरकर उस ओर देखना, नैनों का चकोर होना, अचंचल होना, सीता को    देखकर सुख पाना और   ह्रदय में सराहना करना   ये सब संचारी भाव है I   कुछ संचारी छिपे रूप में है जैसे - मोह, आसक्ति, श्रम, गति, उत्सुकता, हर्ष ,तर्क ,ब्रीड़ा आदि I इन सब के साथ स्थायी-भाव ‘रति‘ तो है ही I इन सभी   से    श्रृंगार रस     की निष्पत्ति   हो रही है और   सभी   विवरण    कवि-कर्म   के     प्रतिफल    है     अतः सभी का साधारणीकरण होना अपेक्षित है I   यहाँ आश्रय राम है और आश्रय के साधारणीकरण का तात्पर्य है राम का राम न रह जाना I   इस प्रसंग में वे एक  ऐसे सामान्य मानव के रूप में चित्रित किये गए है जो एक सुन्दरी के रूप-राशि पर हठात मुग्ध हो गया है   और   उसके ह्रदय   में वही सब   क्रियाये हो रही है जो   एक सामान्य मानव में होती है I   यहाँ आलंबन का साधारणीकरण   भी है क्योकि    सीता भी    इस स्थल    पर जगज्जननी न होकर एक सामान्य रति-पीड़िता नारी के रूप में चित्रित है I अनुभवों के साधारणीकरण का तात्पर्य है कि राम और सीता की चेष्टाये उनके विराट व्यक्तित्व से सम्बंधित न   होकर सामान्य परस्पर लुब्ध   मानवीय चेष्टाये हो गयी है I जहाँ तक स्थायी-भाव रति की बात है तो वह राम और सीता की    स्वकीय भावना     होकर भी केवल उन तक सीमित नहीं रही है इसकी भरपूर व्याप्ति प्रमाता पर है, अतः वह भी साधारणीकृत है I

 

                 साधारणीकरण   की व्याख्याओ  में   उलझ  कर हम प्रायशः यह भूल जाते है कि कवि  की अनुभूति के साधारणीकरण के साथ ही प्रमाता की चेतना का भी साधारणीकरण होता है I भट्टनायक ने जिस भावकत्व क्रिया की परिकल्पना  की   थी   वह  वस्तुतः प्रमाता की चेतना के धरातल पर दृश्यमान विभाव, अनुभाव, संचारी भाव व स्थायी-भाव के  साधारणीकरण   के    साथ    ही    प्रमाता   की    व्यैक्तिक   चेतना का  वैशिष्ट्य समाप्त कर उसे भी साधारणीकृत  कर   देती   है I   इसका   परिणाम   यह होता है कि   व्यक्ति    कुछ   समय के लिए अपने व्यक्तिगत सुख-दुःख भूलकर काव्य के दृश्य या श्रव्य विभावादि  को अपनी आत्मा के धरातल पर स्वीकार कर लेता है I इसे आत्मीकरण कहते है I   भट्टनायक   ने   ‘भावकत्वम् साधारणीकरणम’   के बाद   भोजकत्व   तत्व   की   परिकल्पना इसीलिये की थी कि रसोद्रेग केवल साधारणीकरण से नही होगा बल्कि साधारणीकरण से प्रोद्भूत आत्मीकरण के बाद होगा I  इसीलिये आचार्य भट्टनायक कहते है -  

 

                                ‘भोजकत्वम् आत्मीकरणम् रस ग्रहणं आत्मना’

 

 

                                                                                                                        ई एस -1/436, सीतापुर रोड योजना

                                                                                                                                   सेक्टर-ए, अलीगंज, लखनऊ I

                                                                                                                                         मो0   9795518586

 (मौलिक व अप्रकाशित )

 

Views: 9540

Replies to This Discussion

बडी अच्छी जानकारी देने के लिये धन्यवाद ... सादर

आदरणीय वर्मा जी

आपसे आज फोनिक वार्ता भी हुयी i इस लेख को आपने पसंद किया i एतदर्थ बहुत बहुत आभार i  सादर i

आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव सर साधारणीकरण का उल्लेख और संकेत कई समीक्षाओं और आलोचनाओं में मिला है किन्तु इसे आज समझ पाया हूँ. इस विशिष्ट आलेख के लिए हृदय से आभारी हूँ. सादर नमन 

RSS

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

अजय गुप्ता 'अजेय commented on बृजेश कुमार 'ब्रज''s blog post गीत-आह बुरा हो कृष्ण तुम्हारा
"ब्रजेश जी, आप जो कह रहें हैं सब ठीक है।    पर मुद्दा "कृष्ण" या…"
yesterday
बृजेश कुमार 'ब्रज' commented on Ravi Shukla's blog post तरही ग़ज़ल
"क्या ही शानदार ग़ज़ल कही है आदरणीय शुक्ला जी... लाभ एवं हानि का था लक्ष्य उन के प्रेम मेंअस्तु…"
Monday
बृजेश कुमार 'ब्रज' commented on बृजेश कुमार 'ब्रज''s blog post गीत-आह बुरा हो कृष्ण तुम्हारा
"उचित है आदरणीय अजय जी ,अतिरंजित तो लग रहा है हालाँकि असंभव सा नहीं है....मेरा तात्पर्य कि…"
Monday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on Ravi Shukla's blog post तरही ग़ज़ल
"आदरणीय रवि भाईजी, इस प्रस्तुति के मोहपाश में तो हम एक अरसे बँधे थे. हमने अपनी एक यात्रा के दौरान…"
Monday
Nilesh Shevgaonkar commented on Nilesh Shevgaonkar's blog post ग़ज़ल नूर की - सुनाने जैसी कोई दास्ताँ नहीं हूँ मैं
"आ. चेतन प्रकाश जी,//आदरणीय 'नूर'साहब,  मेरे अल्प ज्ञान के अनुसार ग़ज़ल का प्रत्येक…"
Monday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on गिरिराज भंडारी's blog post ग़ज़ल - यहाँ अनबन नहीं है ( गिरिराज भंडारी )
"आदरणीय गिरिराज भाईजी, आपकी प्रस्तुति पर आने में मुझे विलम्ब हुआ है. कारण कि, मेरा निवास ही बदल रहा…"
Monday
Nilesh Shevgaonkar commented on Nilesh Shevgaonkar's blog post ग़ज़ल नूर की - सुनाने जैसी कोई दास्ताँ नहीं हूँ मैं
"धन्यवाद आ. लक्ष्मण धामी जी "
Monday
Nilesh Shevgaonkar commented on Nilesh Shevgaonkar's blog post ग़ज़ल नूर की - सुनाने जैसी कोई दास्ताँ नहीं हूँ मैं
"धन्यवाद आ. अजय गुप्ता जी "
Monday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-175
"आदरणीय अजय अजेय जी,  मेरी चाचीजी के गोलोकवासी हो जाने से मैं अपने पैत्रिक गाँव पर हूँ।…"
Sunday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-175
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी,   विश्वासघात के विभिन्न आयामों को आपने शब्द दिये हैं।  आपके…"
Sunday
Admin posted a discussion

"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-180

परम आत्मीय स्वजन,ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरे के 180 वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है | इस बार का…See More
Sunday
अजय गुप्ता 'अजेय replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-175
"विस्तृत मार्गदर्शन और इतना समय लगाकर सभी विषयवस्तु स्पष्ट करने हेतू हार्दिक आभार आदरणीय सौरभ जी।…"
Sunday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service