व्रत पर्वोत्सव एक समीक्षा ( भाग – 2 )
व्रत का आध्यात्मिक अर्थ उन आचरणों से है जो शुद्ध सरल और सात्विक हों तथा उनका विशेष मनोयोग तथा निष्ठा पूर्वक पालन किया जाय । कुछ लोग व्यवहारिक जीवन मे सत्य बोलने का प्रयास करते हैं और सत्य का आचरण भी करते है , किन्तु कभी कभी उनके जीवन मे ऐसे क्षण भी आ जाते है की लोभ और स्वार्थ के वाशी भूत होकर उन्हे असत्य का आश्रय लेना पड़ता है तथा वे उन क्षणों मे झूँठ भी बोल जाते हैं । इस प्रकार वे व्यक्ति सत्यव्रती नहीं कहे जा सकते हैं । इसलिए आचरण की शुद्धता को कठिन परिस्थितियों मे भी न छोड़ना ही व्रत है। प्रतिकूल परीथितियों मे भी प्रसन्न रह कर जीवन व्यतीत करने का अभ्यास ही व्रत है । इससे मनुष्य मे श्रेष्ठ कर्मों के सम्पादन की योग्यता आती है , कठिनाइयों मे आगे बढ्ने की शक्ति प्राप्त होती है , आत्मविश्वास दृढ़ होता है और अनुसाशन की भावना विकसित होती है । आत्मज्ञान के महान लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए प्रारम्भिक कक्षा व्रत पालन ही है । इसी से हम अपने जीवन को सार्थक बना सकते है ।
पर्वोत्सव
भारतीय संस्कृति का यह लक्ष्य है कि जीवन का प्रत्येक क्षण पर्वोत्सवों के आनन्द एवं उल्लास से परिपूर्ण हो । इन पर्वों मे हमारी संस्कृति कि विचारधारा के बीज छिपे हुये है । आज भी अनेक विघ्न बाधाओं के बीच हमारी संस्कृति सुरक्षित है और विश्व कि सम्पूर्ण संस्कृतियों का नेतृत्व भी करती है । इसका एक मात्र श्रेय हमारी पर्व परम्परा को ही जाता है । ये पर्व समय समय पर सम्पूर्ण समाज को नई चेतना प्रदान करते है तथा दैनिक जीवन की नीरसता को दूर कर जन जीवन मे उल्लास भरते है और उच्चतर दायित्वों को निर्वहन करने कि प्रेरणा प्रदान करते हैं ।
पर्व का शाब्दिक अर्थ है – संधि काल । हिन्दू पर्व हमेशा संधि काल मे ही पड़ते हैं । पूर्णिमा, अमावस्या, प्रदोष, अष्टमी तथा संक्रांति आदि को शास्त्रों मे पर्व कहा गया है । शुक्ल पक्ष की और क्रष्ण पक्ष कि संधि वेलाओं मे अमावस्या और पूर्णिमा पर्व है । दैनिक जीवन मे तड़के सवेरे , मध्यान्ह, तथा सायंकाल – त्रिकाल कि संध्या भी संधि काल मे होने के कारण पर्व के रूप मे अभिहित है ।
प्रत्येक पर्व काल जहाँ पर्व कि दृष्टि से महत्त्व पूर्ण है , वहीं शरीर कि दृष्टि से सावधानी रखने योग्य भी है । कच्ची नींद मे किसी को जगा देने पर हानि होने की संभावना रहती है । ऋतुओं के संधि काल मे अनेक रोग हो सकते हैं उस समय संयम बरतने की आवश्यकता होती है । इसी प्रकार प्रत्येक संधि काल मे एक प्रभाव की समाप्ती और दूसरे के प्रभाव के प्रारम्भ होने की स्थिति होती है । उनमे दो प्रभावों का संक्रमण रहता है । इसलिए उस संक्रामण काल के प्रभाव की दृष्टि से शास्त्रों ने उस समय कुछ कृत्यों का तथा कुछ पदार्थों के सेवन का निषेध बताया है ।
पर्वों के भेद :-
व्रतों की भाँति पर्वों के भी तीन मुख्य भेद हैं । 1) नित्य , 2) नैमित्तिक और 3) काम्य । कुछ पर्व ऐसे है जिनका समय निश्चित है । संध्यादि से लेकर एकादशी , प्रदोष , दीपावली , होली आदि ऐसे ही पर्व हैं , ये नित्यपर्व कहलाते है । कुछ ऐसे पर्व है जो किसी निमित्त होते हैं जैसे ग्रहण , कुम्भ , किसी गृह नक्षत्र आदि के योग विशेष से अथवा किसी घटना विशेष से पड़ने वाले ये नैमित्तिक होते हैं । कुछ व्रत पर्व किसी कामना वश किए जाते है और कामना के पूर्ण होने पर उत्सव रूप मे मनाए जाने वाले व्रत पर्व काम्य कहे जाते हैं ।
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