संस्कृत की वाचिक परंपरा हिंदी में प्रारंभिक दौर में ही अवरुद्ध हो गयी. विविध अंचलों में भाषा के विविध रूप प्रचलित होने से शब्दों व क्रियापदों के रूप-उच्चारण में अंतर आया. इस कारण छंदों का प्रयोग कठिन प्रतीत होने लगा चूँकि छंद में लय के अनुसार शब्द संयोजन करना जरूरी है. मुग़ल काल में प्रशासन की भाषा उर्दू होने से उर्दू की शिक्षा विधिवत लेनेवाले उस्ताद-शागिर्द परंपरा में बोलने तथा लिखने (तक़्तीअ करने) के अभ्यस्त हो गये. उर्दू के विविध रूप दिल्ली, लखनऊ तथा हैदराबाद में विकसित हुए किंतु तक़्तीअ के नियम एक से ही रहे.
हिंदी में खड़ी बोली के विकास से भाषा के मानकीकरण का दौर प्रारंभ हुआ किंतु अंग्रेजी तथा आंचलिक भाषा रूपों के प्रति लगाव ने बाधा उपस्थित की. संस्कृत व्याकरण-पिंगल पर आधारित हिंदी में मात्रा गणना के लिये अनुनासिक और अनुस्वर को समझना आवश्यक है.
संस्कृत में वाचिक परंपरा में आश्रमों में गुरु उच्च स्वर से पाठ करते थे जिन्हें सुनकर शिष्य स्मरण करने के साथ-साथ उच्चारण विधि भी सीख लेते थे. ज्ञान राशि के विस्तार तथा जटिलता के कारण श्रुति-स्मृति युग का स्थान लिपि युग ने लिया जो अब तक चल रहा है. संभव है कि भविष्य में विविध भाषाओं में प्राप्त विज्ञान तथा साहित्य सबके लिये सुलभ बनाने के लिये शब्द संकेतों के स्थान पर यांत्रिक ध्वनि संकेतों का प्रयोग हो जिसे हर भाषा-भाषी समझ सके. अस्तु...
अनुनासिक: जिन वर्णों में ध्वनि मुख के साथ-साथ नासिका से भी निकलती है, उन्हें नासिक ध्वनि (Nasal sound) के कारण अनुनासिक कहते हैं. प्रत्येक वर्ण समूह का पाँचवाँ अक्षर अर्थात क वर्ग (क, ख, ग, घ, ङ), च वर्ग (च, छ, ज, झ, ञ), ट वर्ग (ट, ठ, ड, ढ, ण), त वर्ग (त, थ, द, ध, न), प वर्ग (प, फ, ब, भ, म) आदि के अंतिम पंचम वर्ण ङ्, ञ्, ण, न, म 'अनुनासिक' कहलाते हैं. उच्चारण को सरल रूप से समझने के लिये अनुनासिक के स्थान पर अर्ध ध्वन्याक्षर का प्रयोग प्रचलन में है.
शुद्ध पाञ्चजन्य = प्रचलित पान्चजन्य, प्रत्यञ्चा = प्रत्यंचा,
शुद्ध वाङ्मय / वाङ् मय = प्रचलित वांग्मय, गङ्गा = गंगा, तरङ्गिणी = तरंगिनी,
उद्दण्ड = उद्दंड = उद्दन्ड, अखण्ड = अखंड = अखन्ड
अन्य (इसे अंय नहीं लिख सकते) क्यों ?
प्रणम्य (यहाँ आधे म को हटाकर उसके स्थान पर पूर्वाक्षर पर बिंदी नहीं रख सकते)
अनुस्वर: स्वर के बाद बोला जाने वाला हलंत (अर्ध ध्वनि) अनुस्वार कहलाता है जिसका उच्चारण अनुनासिक वर्णानुसार किया जाता है ! इसका चिन्ह . वर्ण के ऊपर बिंदी (जैसी यहाँ बि पर लगी है) होता है ! जिस अक्षर के ऊपर अनुस्वर (बिंदी) हो उसका अगला अक्षर जिस वर्ण समूह का हो उसके पंचम अक्षर की अर्ध ध्वनि अनुस्वर के स्थान पर बोली जाती है. यथा: शङ्का = शंका, शङ्ख = शंख, गङ्ग = गंग, उल्लङ्घन = उल्लंघन, प्रपंच , लांछन , सञ्जय = संजय, झंझट, घण्टा = घंटा = घन्टा, कण्ठ = कंठ = कन्ठ, दण्ड = दंड = दन्ड, माण्ढेर = मांढेर, मान्ढेर, संत = सन्त, पंथ = पन्थ, छंद = छन्द, धंधा = धन्धा, चंपत = चम्पत, गुंफित = गुम्फ़ित, कंबल = कम्बल, दंभ = दम्भ, मंजूषा = मन्जूषा आदि.
-- संयुक्त अक्षर यदि प्रथम हो तो अर्ध अक्षर की मात्रा की गणना नहीं होती.
यथा प्रचुर = १ १ १ = ३, क्रय १ १ = २, क्रिया १ २ = ३, क्रेता = २ २ = ४, विक्रय = २ १ १ = ४, विक्रेता = २ २ २ = ६, ग्रह = १ १ = २, विग्रह = २ १ १ = ४ किन्तु अनुस्वार वाले शब्द की मात्रा २ गिनी जायेगी !
हंस (पक्षी) और हँस (क्रिया हँसना) के उच्चारण पर ध्यान दें तो शब्दों में कहाँ बिंदी और कहाँ चन्द्र बिंदी लगाना है स्पष्ट होगा. प्रायः इसमें गलती होती है.
‘क्ष’ संयुक्त अक्षर में क् और मूर्धन्य ष का योग है न कि तालव्य श का.