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मित्रों !

“चित्र से काव्य तक” समूह में आपका हार्दिक स्वागत है | यह प्रतियोगिता आज से ही प्रारंभ की जा रही है, इस हेतु प्रस्तुत चित्र में आज के इस प्रगतिशील आधुनिक समाज के मध्य सैकड़ों साल से चलता आ रहा कोलकाता का रिक्शा दिखाई दे रहा है, आमतौर पर ऐसे रिक्शे पर तीन तीन सवारियां भी देखी जाती हैं, इस कार्य में मान-सम्मान तो दूर अक्सर इन्हें अपमान ही सहन करना पड़ता है, कई सामाजिक संगठनों नें ऐसे रिक्शे बंद कराने की मांग भी की है परन्तु यह सभी रिक्शाचालक इस कार्य को सेवा-कार्य मानते हुए इसे त्यागने को तैयार नहीं हैं |

आइये हम सब इस चित्र पर आधारित अपने अपने भाव-पुष्पों की काव्यात्मक पुष्पांजलि इन श्रमिकों के नाम अर्पित करते हुए उनका अभिनन्दन करते हैं |

 

नोट :- १५ तारीख तक रिप्लाई बॉक्स बंद रहेगा, १६ से २० तारीख तक के लिए Reply Box रचना और टिप्पणी पोस्ट करने हेतु खुला रहेगा |


सभी प्रतिभागियों से निवेदन है कि रचना छोटी एवं सारगर्भित हो, यानी घाव करे गंभीर वाली बात हो, रचना पद्य की किसी विधा में प्रस्तुत की जा सकती है | हमेशा की तरह यहाँ भी ओ बी ओ  के आधार नियम लागू रहेंगे तथा केवल अप्रकाशित एवं मौलिक रचना ही स्वीकार की जायेगी  |

 

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Replies to This Discussion

अरुण जी बहुत सुंदर अभिव्यक्ति है। बधाई स्वीकार कीजिए।

क्यों देख रहे हो  घूर क़र मेरे हालात को ,
सपनो मे महल रोज मै भी बनाता हू |

कोई एक है जो पूरी दुनिया को ढोता है ,
मै तो बस कुछ को मंजिल तक पहुचाता हू |

जानता हू भूखा रहना पड़ेगा हमको ,
रोज क़ा ये किस्सा पल भर भी भुलाता हू |

लोग जाकर  घरो मे खुशियाँ मनाएंगे ,
मै भी खुश होकर घर मे मातम मनाता हू |

अपना गम जब गमगीन हो जाता है ,
पीता हू खुद और दूसरों को भी पिलाता हू |

मुझे क्या रोकोगे मेरे धंधे से रोकने वालों ,
पसीने  कि कमाई है, ना किसी के बाप क़ा खाता हू |
  *************************************     

  -*बृज


bahut khoob brij jee-

मुझे क्या रोकोगे मेरे धंधे से रोकने वालों ,
पसीने  कि कमाई है, ना किसी के बाप क़ा खाता हू |

\sundar aur sashakt bhaav abhivyakti |

धन्यवाद, सर ........
बहुत बढ़िया प्रयास है बृज भूषन चौबे जी !
धन्यवाद, सर .......
//क्यों देख रहे हो  घूर क़र मेरे हालात को ,
सपनो मे महल रोज मै भी बनाता हू |//
क्या बेबाक शेर कहा है भाई .......

//कोई एक है जो पूरी दुनिया को ढोता है ,
मै तो बस कुछ को मंजिल तक पहुचाता हू |//
वह भाई! क्या गहरी बात कही है .........

//जानता हू भूखा रहना पड़ेगा हमको ,
रोज क़ा ये किस्सा पल भर भी भुलाता हू |//
वाकई यही तो हर रोज का किस्सा है .........

//लोग जाकर  घरो मे खुशियाँ मनाएंगे ,
मै भी खुश होकर घर मे मातम मनाता हू |//
यह हमारे लिए शर्म की बात है भाई ...........

//अपना गम जब गमगीन हो जाता है ,
पीता हू खुद और दूसरों को भी पिलाता हू |//
यह तो दोहरी मार हुई भाई ...........

//मुझे क्या रोकोगे मेरे धंधे से रोकने वालों ,
पसीने  कि कमाई है, ना किसी के बाप क़ा खाता हू |//
बहुत दमदार शेर ........बधाई बृज भूषण चौबे  जी .........:))

बेहतरीन प्रस्तुति ब्रिज भूषण भाई...बहुत ही बढ़िया लिखा है आपने....

क्यों देख रहे हो  घूर क़र मेरे हालात को ,
सपनो मे महल रोज मै भी बनाता हू |

कोई एक है जो पूरी दुनिया को ढोता है ,
मै तो बस कुछ को मंजिल तक पहुचाता हू

waah waah kya baat hai brij bhushan ji

अम्बरीश जी , राठी साहब ,प्रीतम भईया आ वंदना जी रचना को सराहने और हौसला  अफजाई के लिए, धन्यवाद |
वाह वाह बृज भूषन जी क्या बात है। बधाई हो
मित्रों चित्र पर आधारित छोटी सी रचना पेश कर रहा हूँ "रिक्शावाला"
 
इंसान की पीठ पर बैठा इंसान,
उफ़ भी न करे चाहे निकले जान 
 
दो वक़्त की रोटी तो कमानी है,
धूप में नंगे पैर दौड़ रहा इंसान 
 
मशीनी युग में चाहे तरक्क़ी कर ली,
मजदूरों के लिए नहीं बचे ढंग के काम 
 
कौन सुनेगा अब फरियाद किसी की
एक व्यस्त है दूजा त्रस्त परेशान  
 
ग़रीबी एक वजह है बोझ ढोने की,
वरना ये भी बाबू होते करते आराम 
 
सरकार और सरकारी नीतियाँ सारी,
धूल खाएं फाइलों में भरे पड़े गोदाम
 
ज़िन्दगी की गाड़ी  के अंजर-पंजर ढीले,
सांसों की डोर टूटने तक ढोना है सामान 
 
आदमी बना वाहन सस्ता साधन भी,
ये देख "रत्ती" कहे उद्धार करो राम  
सुरिन्दर रत्ती
मुंबई

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