आदरणीय काव्य-रसिको !
सादर अभिवादन !!
’चित्र से काव्य तक’ छन्दोत्सव का यह एक सौ इकतीसवाँ आयोजन है.
इस बार का छंद है
- दोहा छंद
या
- कुण्डलिया छंद
आयोजन हेतु निर्धारित तिथियाँ -
19 मार्च 2021 दिन शनिवार से
20 मार्च 2021 दिन रविवार तक
हम आयोजन के अंतर्गत शास्त्रीय छन्दों के शुद्ध रूप तथा इनपर आधारित गीत तथा नवगीत जैसे प्रयोगों को भी मान दे रहे हैं. छन्दों को आधार बनाते हुए प्रदत्त चित्र पर आधारित छन्द-रचना तो करनी ही है, दिये गये चित्र को आधार बनाते हुए छंद आधारित नवगीत या गीत या अन्य गेय (मात्रिक) रचनायें भी प्रस्तुत की जा सकती हैं.
केवल मौलिक एवं अप्रकाशित रचनाएँ ही स्वीकार की जाएँगीं.
चित्र अंर्तजाल के माध्यम से
कुण्डलिया छंद के मूलभूत नियमों से परिचित होने के लिए यहाँ क्लिक ...
जैसा कि विदित है, कई-एक छंद के विधानों की मूलभूत जानकारियाँ इसी पटल के भारतीय छन्द विधान समूह में मिल सकती है.
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आयोजन सम्बन्धी नोट :
फिलहाल Reply Box बंद रहेगा जो
19 मार्च 2021 दिन शनिवार से 20 मार्च 2021 दिन रविवार तक, यानी दो दिनों के लिए, रचना-प्रस्तुति तथा टिप्पणियों के लिए खुला रहेगा.
अति आवश्यक सूचना :
छंदोत्सव के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है ...
"ओबीओ चित्र से काव्य तक छंदोत्सव" के सम्बन्ध मे पूछताछ
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मंच संचालक
सौरभ पाण्डेय
(सदस्य प्रबंधन समूह)
ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम
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जय-जय ..
सादर अभिवादन...
आयोजन में आपका, स्वागत है श्रीमान।
भैस खड़ी है सामने, हो जाए कुछ तान ।।
कुंडलियाँ
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बैठा आगे भैंस के, बजा रहा नित बीन।
भारत जन सा देखिए, मालिक कितना दीन।।
मालिक कितना दीन, भैंस को ये समझाता।
चारा कम खा नित्य, मोल ना सस्ता आता।।
पगुरा मत यूँ खूब, हमारी आस जगाके।
अब तो दूध उतार, भोर से बैठा आगे।।
**
बड़े जतन से भैंस इक, हमने जो ली पाल।
हुई श्रीमती भैंस सी, कैसे रखे खयाल।।
कैसे रखे खयाल, कि जितना चारा डालें।
खाकर मारे लात, अगर हम दूध निकालें।।
कहे मुसाफिर सत्य, छूने दे न कर थन से।
जाता चाहे पास, सदा ही बड़े जतन से।।
**
तपती गर्मी छोड़िए, हो पावस का मास।
रेतीली है भूमि ये, उगे न जिस पर घास।।
उगे न जिस पर घास, न मिलता कोई पानी।
जिन का रहे अभाव, करती भैंस मनमानी।।
दिखते मालिक भैंस, यहाँ पर तो हठधर्मी।
जिन को पाये तोड़, न कोई तपती गर्मी।।
**
मौलिक/अप्रकाशित
शानदार आगाज़ आदरणीय भाई लक्ष्मण जी, तीनों कुंडलिया शानदार हुईं हैं । प्रथम बहुत ही दमदार ।
बहुत बहुत बधाई ।
आ. भाई गणेष जी, सादर अभिवादन। छंदों पर उपस्थिति और उत्साहवर्धन के लिए आभार।
आदरणीय, चित्र को सुंदर शब्द मिले हैं. तथा, आयोजन का प्रारम्भ शानदार हुआ है.
हार्दिक बधाई.
आपकी प्रस्तुति पर पंक्ति प्रति पंक्ति अपने भाव रख रहा हूँ. तथा, इन पंक्तियों में मूलभूत विधान के अनुसार जिन स्थानों पर सुधार की आवश्यकता प्रतीत हो रही है, मैं उन स्थानों को भी इंगित कर रहा हूँ :
बैठा आगे भैंस के, बजा रहा नित बीन।
भारत जन सा देखिए, मालिक कितना दीन।। ... ........ वाह !
मालिक कितना दीन, भैंस को ये समझाता।
चारा कम खा नित्य, मोल ना सस्ता आता।। ............ वाह वाह !
पगुरा मत यूँ खूब, हमारी आस जगाके।
अब तो दूध उतार, भोर से बैठा आगे।। ................. ऐसी तुकान्तता छंदों में नेष्ट हैं, आदरणीय.
कारण कि, देवनागरी भाषा के व्याकरण के अनुसार, व्यंजन-वर्णॊं के साथ स्वर मिल कर उस वर्ण का ही हिस्सा हो जाते हैं. अतः स्वर की मात्राओं का प्रच्छन्न स्वरूप नहीं रह जाता.
लेकिन ऐसा उर्दू लिपि में नहीं होता. उर्दू में स्वर के लिए कोई विशिष्ट् चिह्न नहीं होते. बल्कि वे वर्ण ही होते हैं, जो किसी अन्य वर्ण के साथ मिलकर समवेत उच्चारित होते हैं. अतः ऐसे स्वर वर्ण शब्दों में अपने प्रच्छन्न स्वरूप में विद्यमान रहते हैं. इसीकारण, उर्दू रचनाओं में स्वर के चिह्न भी तुक हेतु प्रयुक्त हो जाते हैं. जिसकी आदत आपको गजलों पर अभ्यास करने के कारण बनी हुई है.
**
बड़े जतन से भैंस इक, हमने जो ली पाल।
हुई श्रीमती भैंस सी, कैसे रखे खयाल।। ........ हा हा हा..
कैसे रखे खयाल, कि जितना चारा डालें।
खाकर मारे लात, अगर हम दूध निकालें।।
कहे मुसाफिर सत्य, छूने दे न कर थन से। .......... रोला के मूलभूत विधान के अनुसार इसके दूसरे चरण का प्रारम्भ त्रिकल से होता है.
जाता चाहे पास, सदा ही बड़े जतन से।। .......... चाहे जाता पास, सदा ही बड़े जतन से
**
तपती गर्मी छोड़िए, हो पावस का मास।
रेतीली है भूमि ये, उगे न जिस पर घास।। ......... सही
उगे न जिस पर घास, न मिलता कोई पानी। ........ पानी के साथ ’कोई’ का प्रयोग उचित प्रतीत नहीं हो रहा.
जिन का रहे अभाव, करती भैंस मनमानी।। ....... भैंस करती मनमानी .. कारण ऊपर स्पष्ट किया गया है.
दिखते मालिक भैंस, यहाँ पर तो हठधर्मी।
जिन को पाये तोड़, न कोई तपती गर्मी।।
इस सार्थक प्रयास तथा आपके अभ्यास हेतु हार्दिक बधाइयाँ.
शुभ-शुभ
आ. भाई सौरभ जी, सादर अभिवादन। छंदो पर उपस्थिति, स्नेह और उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक आभार।
विस्तृत टिप्पणी कर आपने जो मार्गदर्शन किया है उससे इन छन्दों को साधने में पूर्ण मदद मिलेगी। आपके द्वार इंगित पदों को सुधारने का प्रयास किया है। कितनी सफलता मिली, मार्गदर्शन करें। इस असीम स्नेह के लिए पुनः हार्दिक आभार।
भारत जन सा देखिए, मालिक कितना दीन।
बैठा आगे भैंस के, बजा रहा नित बीन।।
#ऐसी तुकान्तता छंदों में नेष्ट हैं, आदरणीय#
पगुरा मत यूँ खूब, जलाता ताप अगन सा।
अब तो दूध उतार, नहीं रख भारत जन सा।।
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#रोला के मूलभूत विधान के अनुसार इसके दूसरे चरण का प्रारम्भ त्रिकल से होता है. #
कहे "मुसाफिर" देत, लगाने हाथ न थन से।
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#पानी के साथ ’कोई’ का प्रयोग उचित प्रतीत नहीं हो रहा.#
उगे न जिस पर घास, तनिक मिले न पानी।
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#भैंस करती मनमानी .. कारण ऊपर स्पष्ट किया गया#
निश्चित हो आपूर्ति, करे न भैंस मनमानी।।
आदरनीय लक्ष्मण भाईजी
इस चित्र को लेकर तीन कुण्डलिया लिखना सहज नहीं है| हार्दिक बधाई इस सुन्दर प्रस्तुति पर|
जो गलतियाँ स्पष्ट हैं वो तो कोई भी देख लेता लेकिन आ. सौरभ भाई ने कारण बताते हुए विस्तार से जो टिप्पणी की है उससे हम सभी पाठकों को लाभ हुआ है|
हार्दिक धन्यवाद, आदरणीय अखिलेश भाईजी
आ. भाई अखिलेश जी, सादर आभार।
आदरणीय भाई लक्ष्मण धामी जी
सादर अभिवादन प्रदत्त चित्रानुसार बहुत प्रभावशाली छंद सृजन हार्दिक बधाई स्वीकार करें
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