For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

ओबीओ ’चित्र से काव्य तक’ छंदोत्सव" अंक- 47 की समस्त रचनाएँ चिह्नित

सु्धीजनो !
 
दिनांक 21 मार्च 2015 को सम्पन्न हुए "ओबीओ चित्र से काव्य तक छंदोत्सव" अंक - 47 की समस्त प्रविष्टियाँ संकलित कर ली गयी हैं.
 


इस बार प्रस्तुतियों के लिए एक विशेष छन्द का चयन किया गया था ताटंक छन्द.

 

कुल 12  रचनाकारों की 15 छान्दसिक रचनाएँ प्रस्तुत हुईं.

वैधानिक रूप से अशुद्ध पदों को लाल रंग से तथा अक्षरी (हिज्जे) अथवा व्याकरण के लिहाज से अशुद्ध पद को हरे रंग से चिह्नित किया गया है.

आगे, यथासम्भव ध्यान रखा गया है कि इस आयोजन के सभी प्रतिभागियों की समस्त रचनाएँ प्रस्तुत हो सकें. फिर भी भूलवश किन्हीं प्रतिभागी की कोई रचना संकलित होने से रह गयी हो, वह अवश्य सूचित करे.

सादर
सौरभ पाण्डेय
संचालक - ओबीओ चित्र से काव्य तक छंदोत्सव

**********************************************************************

1. आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी

देख अजब-सी दुनिया बेटे, मतलब की ये होती है
फूल नहीं हर पल राहों में, केवल काटें बोती है
नगरों का विस्तार किसी को, सुख ना देकर जायेगा .. ..
खुशियों का बस भान मिलेगा, असली कुछ ना पायेगा

बहुत निराली इस दुनिया में, सागर सी गहराई है
जितना सीखों उतना कम है, जीवन में कठिनाई है
रोटी क्या है कपड़ा क्या है, घर क्या है ये भी जानो
मेहनत से मिल जाता है सब, मेहनत को ईश्वर मानो

तुम समझों लोगों की फितरत, कितना कुछ समझा जाती
गीत मधुर जीवन के जानो, कब तक ये दुनिया गाती
काम करोगे, नाम करोगे, दाम मिलेगा वैसा ही
मैंने जाना इस दुनिया का, एक खुदा है पैसा भी

दूसरी प्रस्तुति

इस मौसम में इस आलम में, कहाँ रहेंगे बाबूजी
बीत रही जो हम दोनों पर, किसे कहेंगे बाबूजी
खाने पीने के लाले है, ये फाके सहना है क्यों
देश पराया लोग पराये, उस नगरी रहना है क्यों

अपना गाँव बहुत अच्छा है, रहने को घर पाया है
इस नगरी में खूब इमारत, फिर भी छत ना साया है
अपने गाँव नदी है माना, इस सागर से छोटी है
पीने को पर जल देती है, ना खारी ना खोटी है

बाबूजी बोले- “बेटा सुन, गाँव नगर से सादा है
खेती से उपजे वो कम है, खाने वाले ज्यादा है
उसी विवशता के कारण इस नगरी को अपनाना है
मेहनत से इस मुश्किल को अब हमको दूर भगाना है"
******************


2. आदरणीय हरिप्रकाश दुबे जी

सागर किनारे बैठ कर वो , करता अतीत की बातें ,
कैसे हमने दिन थे काटे , कैसी कटतीं थी रातें !
जब रहने की जगह नहीं थी ,तब थम जाती थी सांसें ,
कभी भोजन नसीब न होता ,मुरझा जाती थीं आँतें !!

माँ जब चली गयी हम निकले, सर पर बांधे अंगोछा ,
नयी दुनिया बसायेंगे कह , तुमने हर आंसू पोछा !
रोजी रोटी की तलाश में, गांव घर हमारा छूटा ,
महानगर की शान देखकर , लगा मैं कैद से छूटा !!

कितने माँजे बर्तन तुमने , कितना तुमने झेला है
पर मुझे पालने को तुमने , कितना रिक्शा ठेला है!
उधर गगन छूती इमारतें ,पीछे सागर खारा है
आओ अब घर लौट चलें ये शहर नहीं हमारा है !!
**********************

3. भाई शिज्जु "शकूर" जी

पिता पुत्र से बोल रहा है, तट पर बैठा सागर के
जीवन है तो खुल के जीना, क्यों जीना है मर मर के
छोटी छोटी खुशियों को ही, आओ जी लें जी भर के
कल क्या होगा कल ही देखें, डर को फेंको अंदर के

आओ जीवन को गति दें हम, जैसे लहरें सागर की
निर्धनता को भूलें अपनी, भूलें चिन्तायें सर की
हम भी पत्थर बन जायें जब, दुनिया ही है पत्थर की
बाहर लायें आओ हम भी, खुशियाँ अपने अंदर की

द्वितीय प्रस्तुति

गाँव भला या नगर भला ये, सवाल बहुत पुराना है
दुनिया में हम जहाँ रहेंगे, वहीं कमाना खाना है
जीवन की आपाधापी में, खुशियाँ ढूँढ निकालेंगे
गाँव रहें या रहें नगर हम, श्रम से खुद को पालेंगे

जीवन गहरा सागर जैसे, जीवन है बहती धारा
मोती खुद से ढूँढ निकालो, अपने अंदर है सारा
ये ना सोचो मेरे बेटे, जीवन ऐसा कैसा है
जैसा जीना चाहेंगे, जीवन बिल्कुल वैसा है
********************

4. आदरणीया राजेश कुमारी जी

बापू बेटा बातें करते ,दिन भर जेब कमाई की
चौपाटी पर रोज लगाते,ठेली ये ठण्डाई की
बापू को बालक की कुछ भी,चिंता नहीं पढ़ाई की
शाम ढले मैरिन ड्राइव पर,फिकर करें मँहगाई की

दुनियादारी से मतलब क्या, मतलब है मजदूरी का
दूर गाँव से आये हैं पर , प्रश्न नहीं है दूरी का
पेट परिश्रम का रिश्ता बस ,ना है हलवापूरी का
फाको से किस्मत का बंधन ,यही नाम मजबूरी का
****************************

5. आदरणीय गिरिराज भंडारी जी

एक प्रश्न उठ फिर आता है, शहर, गाँव से आया क्यों
अपने बूढ़े बरगद को मैं, गलत सलत समझाया क्यों
तन को कपड़े और रोटियाँ, सच में क्या मिल पायेंगी
कभी कली खुशियों की मन में, क्या सच में खिल पायेंगी

गगन चूमते इन भवनों में , गर डेरा इंसा का है
तब क्यों असर हवाओं में भी , तारी जो हैवां का है
इस चुप से दिखते समुद्र के , राज़ कई हैं सीने में
लगता है इसको भी मुश्किल . भरे शहर में जीने में

चल बेटा चल गाँव चलें हम , लगता हमें बुलाता है
दो रोटी कम खायें लेकिन , सब कुछ बहुत लुभाता है
यहाँ बसे, पथरीली सूरत , दिल रखते कंक्रीटों से
लंघन रहना अच्छा है इन, भीत उठाती ईंटों से
**************************

6. आदरणीय सत्यनारायण सिंह जी

मन उत्साह संग में झोला, अंग मलिन पट धारे है।
चौपाटी पर बैठ तात मुख, विस्मित बाल निहारे है।।
भाँप भ्रात मन की उत्कंठा, अनुभव तात सुनाते हैं।
अजब मुंबई का परिचय यूँ, भ्राता गजब कराते हैं।१।

जीवन जहाँ ठहर कुछ पल को, स्वप्न लोक में खोता है।
जहाँ बैठ निश्चिन्त मनस निज, भावी पल संजोता है।।
मेरे भ्राता पवन जहाँ की, गात नहीं झुलसाती है।
सागर की चंचल लहरें नित, हर मन को हर्षाती है।२।

चमक दमक मायानगरी की, मन को खूब लुभाती है।
कला, कर्म के साधक जन को, अपने पास बुलाती है।।
नयन रम्य सागर तट न्यारा, हर मन को बहलाता है।
भ्रात! यही अनुपम सागर तट, चौपाटी कहलाता है।३।
***************************

7. आदरणीया वन्दना जी

बड़ी नगरिया मुझे दिखाने लेकर तुम आये बाबा

बड़ा समन्दर ऊँची बिल्डिंग भोजन का बढ़िया ढाबा

हाँ ये माना  इस नगरी में सुख सागर लहराता है

किन्तु गाँव के पोखर जैसा ना यह पास बुलाता है

 

कभी सताऊं कभी मनाऊं  जा पीछे अँखियाँ मींचूँ

ना मुनिया है ना दिदिया ही  चोटी जिनकी मैं खींचूँ

पोंछूं चुपके से हाथों को ढूँढूं आँचल की छैयाँ

भुला न पाऊं इक पल को भी गैया मैया वो ठैयां

 

वो माटी घर छप्पर वाला सौंधी खुशबू वाला था

बाट जोहता माँ का आंगन जादू अजब निराला था

बड़ा बहुत यह शहर अजनबी जादूगर झोले जैसा

धरें किनारे बैठ चैन से बतियाएं तो हो कैसा

(संशोधित)
*******************************

8. आदरणीय अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव जी

डगर-डगर चहुँ ओर नगर मैं, निडर घूमता बाबूजी।
कहाँ खो गया प्यारा बचपन, उसे ढूँढता बाबूजी।।
खेल कूद शिक्षा न सुरक्षा, माँ की याद रुलाती है।

भूख ठंड से फुटपाथों पर, नींद भला कब आती है।। ., (संशोधित)

हँसना भूल गया मैं बेटे, बिखर गये सपने सारे।
महानगर के लोग बेरहम, छोड़ गये अपने सारे।।
राजनीति गंदी भारत की, वर्ग भेद भी भारी है।
हम गरीब मिट जायें ऐसी, साजिश की तैयारी है।।

सागर की लहरों को देखो, मंज़िल कैसे पाती हैं।
कल-कल करती बड़ी दूर से, तट पर दौड़ी आती हैं।।

शोक करो मत बनो बहादुर, अच्छे दिन भी आयेंगे। .... (संशोधित)
महानगर से दूर कहीं हम, दुनिया नई बसायेंगे।।
*************************

9. आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी

बेटा हमको शहर मुम्बई में   किस्मत  ले आयी है

अभी यहाँ पर बैठ शान्ति से  राहत हमने पायी है..  (संशोधित)
शहर गाँव घर द्वार छोड़कर यहाँ चला तो हूँ आया
पर यह बेटा महानगर है अद्भुत है इसकी माया

सुना यहां पर पेट पालती हैं सबका मुम्बा देवी
हमको भी बनना होगा अब माँ की चरणों का सेवी
किन्तु पुत्र इस जीवन के हित उद्दम भी करना होगा
श्रम से अर्जित पुण्य राशि से हमे पेट भरना होगा

अकर्मण्य होकर जो चाहे करुणामय माँ की बाहें
कभी नहीं है उसको मिलती जीवन की सच्ची राहें
श्रम परिहार हुआ अब बेटा सपदि तुम्हे जगना होगा
जीवन श्रम है श्रम जीवन है इसमें अब लगना होगा

द्वितीय प्रस्तुति

है मरीन ड्राइव का मनहर दृश्य बड़ा प्यारा-प्यारा
शांत यहाँ पर दिखता श्यामल सागर का पानी खारा
हैं इमारतें तटवर्ती अति उच्च शिखर की माला सी
मदिर वायु भी नर्तन करती लगती है मधुशाला सी

प्लेटफार्म सागर के तट पर पिता-पुत्र करते बातें
दिन तो बीता किसी तरह से बीतेंगी कैसे रातें ?
समझाता है पिता पुत्र को तन्मय हो सुनता बेटा
सागर सुनता सारी बाते शांत पार्श्व में है लेटा

अपना मधु सन्देश पवन मिस सागर लेकर है आता
‘शहर पालता है यह सबको जो जैसे भी आ जाता
कल से अपना काम देखना अभी शहर में खो जाओ
मिले कही भी जगह सड़क पर दोनो निर्भय सो जाओ’
********************************

10. भाई कृष्ण मिश्रा ’जान’ गोरखपुरी

सागरतट पर मन-मंथन कर,अनुभव की झोली खोली
पिता ने पुत्र को आहिस्ता, तब बोली मीठी बोली।
दुनिया चाहे लाख झूठ को, सिंघासन पर बैठाये
सच के सूर्य के आगे तिमिर,झूठ कभी टिक ना पाये।

सागर से सीखो हर पल गुण, ग्रहण का ताना-बाना
मतलबी दुनिया फिर भी उसे, खारा कह मारे ताना।
पल-पल जब वही तन तपाये,घन-गगरी भर है पाये
जलधर जलचक्र को बनाये,प्यास भू की बुझा जाये।

पर घमंड कदापि ना करना,धारण करना मर्यादा
अथवा तो कोई पुरुषोत्तम,बांटेगा आधा-आधा।
जीवन हर-क्षण देता सीख,पढ़ना हर-कण की गीता
परे हुआ जो जीतहार से,समर में वही है जीता।
******************************

11. आदरणीय लक्ष्मण रामानुज लडीवाला जी

सागर तट पर आकर बैठे, संग में लड़का है प्यारा
बातें उसकी बड़ी सुहानी, चमके आँखों का तारा |
पिता-पुत्र से लगते दोनों, अँखियों से करते बाते
सच्चें अर्थों में होते है, प्यारें ये रिश्ते नाते |

सूरज सा मन आज खिला है, मौसम भी लगता प्यारा
सागर की लहरों को देखे, नीलगगन झुकता सारा |
घिर घिर आते है जब बादल,कभी अँधेरा हो जाता
कभी देर तक बैठा रहता, गुनगुन करता खो जाता |

ऊँची खड़ीं अट्टालिकाएं, हम न जानें दुनियादारी,
कहानी प्रगति की ये कहती, बतियाती बातें सारी |
सागर की हम पूजा करते, हम उसके भी आभारी
बादल पानी लेकर जाते, ये सागर की दातारी |
******************************

12. आदरणीय अशोक कुमार रक्ताळे जी

हर मुश्किल हल होगी अपनी, सही ठौर अब पाया है,
इस नगरी की रंगत अपनी, इसकी न्यारी माया है,
सबको दामन में भर लेती, सबको अपना लेती है,
बेटा हम जैसों को भी यह, रोजी रोटी देती है ||

इमारतों सा ऊँचा मस्तक, सागर सी गहराई है,
इस नगरी में बच्चन पनपे, हेमा भी मुस्काई है,
हम भी अपनी किस्मत लेकर, इस नगरी में आये हैं,
ईश्वर बेटा पूर्ण करेगा, जितने सपने लाये हैं. ||
***************************

Views: 2182

Replies to This Discussion

आदरणीय गिरिराज भाईजी, आपकी टिप्पणी से संतोष हुआ है.
हार्दिक धन्यवाद भाईजी.

आपसे पिछले इतवार को इलाहाबाद में भेंट होने के बाद अपना संसार और समृद्ध लग रहा है. परन्तु  हार्दिक दुःख है कि मैं आपलोगों को यथोचित समय नहीं दे पाया.

आपने जो दिया बहुत दिया आदरणीय ,  वही समेट नही पा रहे हैं । मन मयूर हुआ जा रहा है , सपरिवार ।

युवा गज़लकार श्री गिरिराज भंडारी जी को प्रथम ग़ज़ल संग्रह के प्रकाशन पर सपरिवार हार्दिक बधाई.

आदरणीय मिथिलेश भाई , प्रकाशन पर बधाई के लिये आपका हार्दिक आभार , और 61 की उम्र को युवा कहने के लिये अलग से बहुत बहुत शुक्रिया ॥ 

आदरणीय सर मेरी ओर से भी आपको ग़ज़ल संग्रह हेतु सादर बधाई प्रेषित है 

आदरणीया वन्दना जी , आपका बहुत शुक्रिया ।

आदरणीय सौरभ सर

हम अपनी व्यस्तता का रोना रोते रहते हैं पर आप वरिष्ठ सदस्यों की मेहनत देखते हैं तो पता चलता है कि अच्छा करने के लिए कितनी मेहनत की जरूरत होती है आपसे सादर अनुरोध कि कृपया मेरी रचना को निम्नवत संशोधित करने का अनुग्रह कीजियेगा -

बड़ी नगरिया मुझे दिखाने लेकर तुम आये बाबा

बड़ा समन्दर ऊँची बिल्डिंग भोजन का बढ़िया ढाबा

हाँ ये माना  इस नगरी में सुख सागर लहराता है

किन्तु गाँव के पोखर जैसा ना यह पास बुलाता है

 

कभी सताऊं कभी मनाऊं  जा पीछे अँखियाँ मींचूँ

ना मुनिया है ना दिदिया ही  चोटी जिनकी मैं खींचूँ

पोंछूं चुपके से हाथों को ढूँढूं आँचल की छैयाँ

भुला न पाऊं इक पल को भी गैया मैया वो ठैयां

 

वो माटी घर छप्पर वाला सौंधी खुशबू वाला था

बाट जोहता माँ का आंगन जादू अजब निराला था

बड़ा बहुत यह शहर अजनबी जादूगर झोले जैसा

धरें किनारे बैठ चैन से बतियाएं तो हो कैसा

 

यथा निवेदित तथा संशोधित

बहुत बहुत आभार आदरणीय 

देर  रात तक रचनाएं नहीं पढ़ पाने पर इन संकलित  रचनाओं को पढने और त्रुटियों के देखने  का मौक़ा मिलता है इन संकलित  रचनाओं से | त्रुटियों की ओर इंगित विधा  का  मर्मज्ञ ही  कर  सकता है | सीखने के इस  कार्य के लिए ओबीओ मंच और  आप  का  ह्रदय से साधुवाद | 

मेरी संशोधित रचना आपके अवलोकनार्थ और संशोधित करने के अनुरोध के साथ प्रस्तुत है -

सागर तट पर आकर बैठे, संग में लड़का है प्यारा

बातें उसकी बड़ी सुहानी, चमके आँखों का तारा |

पिता-पुत्र से लगते दोनों, अँखियों से करते बातें  

सच्चें अर्थों में प्यारें से, रिश्तें ये हमको भातें |

 

सूरज सा मन आज खिला है,मौसम भी लगता प्यारा

सागर की लहरों को देखे, नीलगगन झुकता सारा |

घिर घिर आते है जब बादल,कभी अँधेरा हो जाता

कभी देर तक बैठा रहता, गुनगुन करता खो जाता |

 

भवन गगनचुम्बी आच्छादित, कैसी ये दुनियादारी,

कथा प्रगति की ये ही कहती, बतियाती बातें सारी |

सागर की हम पूजा करते, हम उसके भी आभारी

बादल पानी लेकर जाते, ये सागर की दातारी |

आप संशोधन पश्चात प्रस्तुत हुई अपनी उपर्युक्त रचना को एक बार पुनः देख जायें, आदरणीय लक्ष्मण प्रसादजी. कई बातें हैं जिन्हें शुद्ध करना अभी बाकी है.

संग में लड़का है प्यारा = १५ मात्रायें .. इसे लेकर भाई गणेश बाग़ी आयोजन के दौरान ही इंगित कर चुके हैं

रिश्ते ये हमको भातें  में भातें न हो कर भाते ही होगा. इस हिसाब से तो तुकान्तता की समस्या जस की तस बनी रह गयी है.

घिर घिर आते है जब बादल  में आते हैं होगा न कि आते है. इसी कारण इस पद को हरे रंग में रखा गया है. लेकिन यहाँ भी कोई संशोधन नहीं हुआ है.

अतः आप उपर्युक्त संशोधनों पर ध्यान दें और पुनः कहें ताकि आपके प्रयास को स्वीकार किया जाये.

सादर

जी | त्रुटियों को सुधारने का  प्रयास  कर पुनः प्रतुत है आदरणीय -

सागर तट पर आकर बैठे, लड़का भी बैठा प्यारा

बातें उसकी बड़ी सुहानी, चमके आँखों का तारा |

पिता-पुत्र से लगते दोनों, अँखियों से करते बातें  

प्रेम भाव दिखता है इनमें, बतियातें सारी रातें |

 

सूरज सा मन आज खिला है,मौसम भी लगता प्यारा

सागर की लहरों को देखे, नील गगन झुकता सारा |

घिर घिर आते हैं जब बादल,कभी अँधेरा हो जाता

कभी देर तक बैठा रहता, गुनगुन करता सो जाता |

 

भवन गगनचुम्बी आच्छादित, कैसी ये दुनियादारी,

कथा प्रगति की ये ही कहती, बतियाती बातें सारी |

सागर की हम पूजा करते, हम उसके भी आभारी

बादल पानी लेकर जाते, ये सागर की दातारी |

सादर 

RSS

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

Admin posted a discussion

"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-115

आदरणीय साथियो,सादर नमन।."ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-116 में आप सभी का हार्दिक स्वागत है।"ओबीओ…See More
41 minutes ago
Sushil Sarna commented on रामबली गुप्ता's blog post कुंडलिया छंद
"आदरणीय रामबली जी बहुत ही उत्तम और सार्थक कुंडलिया का सृजन हुआ है ।हार्दिक बधाई सर"
yesterday
Ashok Kumar Raktale replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
" जी ! सही कहा है आपने. सादर प्रणाम. "
Sunday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय अशोक भाईजी, एक ही छंद में चित्र उभर कर शाब्दिक हुआ है। शिल्प और भाव का सुंदर संयोजन हुआ है।…"
Sunday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"आ. भाई अशोक जी, सादर अभिवादन। रचना पर उपस्थिति स्नेह और मार्गदर्शन के लिए बहुत बहुत…"
Sunday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"अवश्य, आदरणीय अशोक भाई साहब।  31 वर्णों की व्यवस्था और पदांत का लघु-गुरू होना मनहरण की…"
Sunday
Ashok Kumar Raktale replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय भाई लक्षमण धामी जी सादर, आपने रचना संशोधित कर पुनः पोस्ट की है, किन्तु आपने घनाक्षरी की…"
Sunday
Ashok Kumar Raktale replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"मनहरण घनाक्षरी   नन्हें-नन्हें बच्चों के न हाथों में किताब और, पीठ पर शाला वाले, झोले का न भार…"
Sunday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"आ. भाई सौरभ जी, सादर अभिवादन। रचना पर उपस्थिति व स्नेहाशीष के लिए आभार। जल्दबाजी में त्रुटिपूर्ण…"
Sunday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"आयोजन में सारस्वत सहभागिता के लिए हार्दिक धन्यवाद, आदरणीय लक्ष्मण धामी मुसाफिर जी। शीत ऋतु की सुंदर…"
Sunday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"शीत लहर ही चहुँदिश दिखती, है हुई तपन अतीत यहाँ।यौवन  जैसी  ठिठुरन  लेकर, आन …"
Sunday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"सादर अभिवादन, आदरणीय।"
Sunday

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service