(श्री अम्बरीष श्रीवास्तव जी)
(प्रतियोगिता से अलग)
बाती से बाती जले, जले ज्योति भरपूर,
आये हममें एकता, फिर दिल्ली ना दूर.
फिर दिल्ली ना दूर, स्नेह की खेती लहके,
दीपों का है पर्व, तभी अपनापन महके,
'अम्बरीष' निज धर्म, और मज़हब हैं थाती,
बने वहाँ सद्भाव, जहाँ जलती यह बाती..
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(श्री तिलक राज कपूर 'राही' जी)
प्रतियोगिता से अलग
दीप उत्सव स्नेह से भर दीजिये
रौशनी सब के लिये कर दीजिये।
भाव बाकी रह न पाये बैर का
भेंट में वो प्रेम आखर दीजिये।
एक दूजे के लिये सद्भाव हो
भावना वो मन के अंदर दीजिये।
लौ चले इक दीप से दीपों तलक
बस यही उर्जा निरंतर दीजिये।
घर न बन पाये कभी शैतान का
बुद्धि में वो ज्ञान गागर दीजिये।
निष्कपट निर्मल विचारों से भरी
कल्पनाओं को नये पर दीजिये।
मुख खुले तो फ़ूल की बरसात हो,
आज 'राही' को यही वर दीजिये।
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(श्री सौरभ पांडेय जी)
(प्रतियोगिता से अलग)
(१)
दीप जले -- (छंद : मत्तगयंद सवैया)
पाँति सजी मनभावन, पावन दीप जले, निशि राग भरी है
ज्योति से ज्योति जली, मनमोहन रूप धरे, मधु भाव भरी है
रौनक खूब हुई, चितमोहक भाव बने, घड़ियाँ शुभ आईं
दीप जले, उर-दीप खिले, लड़ियाँ सँवरीं, सखियाँ जुड़ि आईं ||1||
कार्तिक ’मावस घोर सही, पर रात की मांग सजी-सँवरी है
’पन्थ’ नहीं मन भेद सके कुछ, प्रेम-उछाह बड़ी निखरी है
जीवन में नव ’पन्थ’ बनें, अब नूतन आय, पुरातन जाए
अंग से अंग मिले न मिले, उर-तार मिले, शुभता रस पाए ||2||
दीपन की अवली सु-भली, पुलकी-पुलकी सखियाँ मुसकावैं
(छंद - घनाक्षरी)
(प्रतियोगिता से बाहर)
दीप हो रहे प्रदीप्त, तृप्त उज्ज्वला प्रभास
लीलती है लालसा को, लालिमा उजास की ||1||
पन्थबद्ध कुरीतियाँ, ये खोखली कुनीतियाँ,
क्रूर हैं विधान तम, हो प्रथा सुहास की ||2||
वर्ण-लिंग-जाति-वेष, त्याग, लोभ-लाभ-द्वेष
जुट गईं सहेलियाँ, भाव ले उद्भास की ||3||
दीप को संभाल कर, हैं श्रेणियों में बालती
ज्योति का है उत्स हेतु, साधना प्रकाश की ||4||
*************** दिवाली ! ***************
(१)
जब जब भी
दिवाली आती है
तब तब
दो प्रश्न
मेरे मन को कचोटतें हैं
एक यह कि अमीर और गरीब की दिवाली
एक जैसी क्योँ नहीं होती
दूसरा यह कि
कष्टों को सहकर भी
सत्य का पालन करने वाले
राम के घर आने की खुशी में
मनाए जाने वाली दिवाली के साथ
आखिर धन तेरस अथवा धनलक्ष्मी
कैसे जुड़ गयी
इन दोनों प्रश्नों का
परस्पर गुंथा हुआ उत्तर
खोजता हूँ कि
अमीर और गरीब का भेद
भाग्य के रुप में
कमाया हुआ कर्मफल है
या फ़िर समाज में
व्यक्ति से व्यक्ति शोषण का परिणाम
यदि समाज द्वारा
व्यक्ति शोषण का परिणाम है तो
सत्य का न्याय फ़िर कहाँ है
परन्तु फ़िर सोचता हूँ
सत्य तो अन्याय का कभी
पर्याय नहीं हो सकता
कष्ट, सुख दुःख..व्यक्ति भाग्य में
अपने अपने कर्मों का परिणाम ही तो है
उत्तर खोजते खोजते
मैं इस परिणाम पर पहुँचता हूँ कि
व्यक्ति के जीवन में
कष्ट ,सुख ,दुःख का बंटवारा
सत्य के न्याय का ही परिणाम है
और यह कि,
लक्ष्मी ,शक्ति और सरस्वती के
कर्मफलरूप प्रसाद का न्यूनाधिक
व्यक्ति को कष्ट ,सुख ,दुःख के
चक्र में घुमाता है
और यह भी कि
सरस्वती के प्रसाद से
अनुगृहित व्यक्ति ही
धन और शक्ति का
सदुपयोग कल्याणार्थ करके ही
सुखी रह सकता है
जबकि इसके विपरीत
कर्मजन्य कर्मफल का असंतुलन
व्यक्ति को हमेशा
कष्ट ,सुख ,दुःख के
कर्मचक्र से उबरने नहीं देता
यह सब सोचकर मैं
संतुष्ट तो होता हूँ
लेकिन फ़िर भी क्षणिक ही सही
गरीब बच्चों के
फुलझड़ियों ,पटाखों और मिठाईयों से
सूने हाथ देखकर
बहुत व्यथित होता हूँ
और सत्य से
यही दुआ करता हूँ कि
इन बच्चों को तुम अभाव में भी
हर दिवाली के दिन
बस सुखी रखना
ताकि दिवाली इनके लिए
मन की टीस का कारण न बने
बस इसी विचार की
इसी चोट से आहत सा हुआ मैं
दिवाली को कभी भी
दिल से नहीं मना पाता हूँ !
(२)
**********मिलनसारी का पैगाम देती दिवाली बारम्बार हो**********
जगमगाते दीपकों का उजला ये त्यौहार हो
अमावस की रात में भी उजाला साकार हो
जहनों दिल के अंधेरों का कोई न विकार हो
प्यार से सब गले मिलें सबका सत्कार हो
इन्सान की पहचान का इन्सानियत आधार हो
राग द्वेष घृणा के लिए मन का न द्वार हो
गरीबी से संघर्ष करते इन्सान का उद्धार हो
मिलनसारी का पैगाम देती दिवाली बारम्बार हो
न कोई उदास हो और न कोई बेज़ार हो
हँसते खेलते इंसानों की खुशियों का संसार हो
दुःखदर्द परस्पर बाँटने का खुलकर इज़हार हो
मुफलिसी में झूझते भी हिम्मत बरक़रार हो
नफरतों की ईंटों से बनी कोई न दिवार हो
सकूने दिल की रोशनी से सबका दीदार हो
इस दिन बेफिक्र झूमे नाचे ऐसी बहार हो
खुशगवारी का पैगाम देता दिवाली उपहार हो !!
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(श्री संजय मिश्रा 'हबीब' जी)
(प्रतियोगिता से अलग)
शीतल वायु खुशियों की, ले आया सन्देश |
सारी दुनिया से अलग, अपना भारत देश ||
आओ दीप पड़ोस में, आज सजा दें यार |
आपस में हैं घर सभी, नाते रिश्ते दार ||
सूरज दीपक बन करे, अमावस्य पर घात |
आज निशा के सामने, शरमाये परभात ||
उजियारा झरना झरे, झिलमिल दीपक हार |
खुशियाँ नाचें झूम के, आज सभी के द्वार ||
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“काली रातों में खिले, दीपक बन के फूल
उजियारे रत खोज में, अंधियारे का मूल
अंधियारे का मूल, कहाँ स्थित जीवन में
आओ हम तुम बैठ, तलाशें अपने मन में
यही पर्व का पाठ, करें सुख की रखवाली
मन का दीपक बार, कहाँ फिर राहें काली”
(२)
कुण्डलिया
(१)
“कितने कितने कर जुड़े, उमड़े कितने दीप
कितना बिखरा नेह है, कितने भाव प्रदीप
कितने भाव प्रदीप, जुड़े उर से उर सबके
और मनाएं पर्व, सभी हिल मिल कर अबके
शपथ उठायें चलो, बाँट दें सुख हो जितने
कदम उठे निःशंक, भला दुख होंगे कितने.?”
(२)
“अपने अपने दीप ले, अपने अपने साज
एक सभी के राग हों, और मधुर आवाज
और मधुर आवाज, सभी मिल खुशियाँ गायें
गैर यहाँ पर कौन, हृदय सब जगमगायें
झिलमिल मेरी आँख, सजायें तेरे सपने
मेरे सारे ख्वाब, बना ले तू भी अपने”
(३)
कह मुकरिया (दीवाली)
(१)
उसके आने की लिये खबर
महके जाते हैं सांझ सहर
उजली लगतीं रातें काली
कह सखी साजन? न सखी दीवाली!
(२)
रह रह स्वागत में मैं गाऊँ
रंग बिरंगे चौक बनाऊँ
लगने पाए घर ना खाली
कह सखी साजन? न सखी दीवाली!
(३)
बिछड़े उससे बरस गये हैं
नैना व्याकुल तरस गये हैं
संग उसके है रूत मतवाली
कह सखी साजन? न सखी दीवाली!
(४)
आओ आज संग सब आओ
कैसी सूरत उसकी बताओ
सबकी तो है देखी भाली
कह सखी साजन? न सखी दिवाली!
(५)
उपवन पंछी सम चहक रहा
तनमन यादों में महक रहा
स्वागत करती डाली डाली
कह सखी साजन? न सखी दिवाली!
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(श्रीमति मोहिनी चोरडिया जी)
घर के आँगन को विस्तार दो
ज्योत से ज्योत जलाकर
मन के आंगन को विस्तार दो
नेह की बाती बनाकर ।
घर की देहरी को विस्तार दो
रंगोली सजाकर
घर के द्वार को विस्तार दो
बंदनवार की डोरी लगाकर ।
अपनत्व को विस्तार दो
स्नेह और सहयोग की लौ जलाकर
खुशियों को विस्तार दो
गम के लम्बे अंधियारे भुलाकर ।
परिवार को विस्तार दो
व्यक्तिगत आकांक्षाएँ भुलाकर
श्रद्धा को विस्तार दो
आस्था के आयामों को सुद्दढ़कर ।
कुछ इस तरह मिलकर जियें
समर्पण की चादर ओढ़कर
तम, जल जाये
मुस्कानों का उजाला देखकर ।
हर्ष-औ-उल्लास की डोर थामे
संकल्पों के दीप जलाकर
बढ़ चलें हम, उस सदी की ओर
जहाँ हो ‘‘सत्यं शिवं सुन्दरम् ’’ को ठौर ।
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(श्रीमती वंदना गुप्ता जी)
जाने कैसे वो दिन थे
(१)
स्नेह है ,सहयोग है
जल रहें हैं दीपक, ये रात दीवाली है.
मिल-जुल क़े मनाएं तो हर बात दीवाली है.
कोई मुझे बताये,खुशियों का धर्म क्या है?
निकले जो उमंगों की बारात दीवाली है.
दीपक की रौशनी का मज़हब मुझे बताओ!
तेरा मिला है मुझको ये साथ दीवाली है.
औरत है इस ज़मी पे बस रौशनी क़े माने.
मौला से है मिली वो सौगात दीवाली है.
जल रहे है दीपक ये रात दीवाली है.
दे सबको संदेश यह, दीपों का त्योहार
रोशन सारा विश्व हो, दूर हो अंधकार ।
दूर हो अंधकार, मिटे अज्ञानता सारी
अज्ञानता है आज, अभिशाप सबसे भारी
रोशनी और ज्ञान, यहाँ तक भी हो, फैले
कहत विर्क कविराय, दीप संदेश यही दे।
प्रतियोगिता से अलग
(१)
दीवाली का स्वागत, हो सबका कल्यान
साथ-साथ आज बैठे, हैं निर्धन-धनवान
हैं निर्धन-धनवान, कर रहे लक्ष्मी-पूजन
मन में है उल्लास, छा रहीं खुशियाँ नूतन
मिष्ठानों से खूब, भर रहीं ''शानो'' थाली
जलें दीप से दीप, आज है शुभ दीवाली ल
(२)
माला दीपों की सजी, तिमिर हो रहा दूर
पूजन आज लक्ष्मी का, छलक रहा है नूर
छलक रहा है नूर, होते हुलसित सब लोग
और करें कामना, आये धन, भागे रोग
महिलाओं की भीड़, हर जगह भरा उजाला
''शानो'' आज तम ने, पहनी है दीप-माला
(३)
प्रतियोगिता से बाहर तीसरी रचना प्रस्तुत है:
फिर आया पावन त्योहार
दीवाली को साथ मनायें
संग-साथ में बैठें मिलजुल
दीप से दूजा दीप जलायें l
जले निशाचर भेद-भाव का
भर लें उजियारा अंतस में
भले-बुरे का भान हमें हो
कहीं अहम ना हमको डस ले l
अपनायें हम दया-धर्म को
सबमे नेकी और सदाचार हो
बेईमानी और लोभ जले सब
निर्धन का ना तिरस्कार हो l
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(श्री अलोक सीतापुरी जी)
(1)
नज़र के जाम यहाँ साक़िया है दीवाली
वफ़ा ख़ुलूस का रोशन दिया है दीवाली
इन औरतों के दों हाथों में जल रहे हैं दिये
कोई बुझा ना सके वो ज़िया है दीवाली
अंधेरी रात है रोशन ये जल रहे दीपक
बहक रही हैं हवायें संभल रहे दीपक
रानियाँ पूजतीं दौलत की महारानी को
महक रही हैं फिजायें मचल रहे दीपक
(२)
मत्तगयन्द सवैया
आस उजास भरे उर अंतर अंतस का क्षत हो अँधियारा,
दीप जलें इस भांति चतुर्दिक फैल सके मग में उजियारा,
पूजन थाल लिए सजनी अवलोकि रही पिय का घर द्वारा,
दें लक्ष्मी सबको धन वैभव शारद दें भर ज्ञान पिटारा||
(३)
"घनाक्षरी"
(अ)
झनन-झनन झन झनन-झनन झन,
झनन-झनन झनकाती चली आओ माँ|
खनन-खनन खन खनन-खनन खन,
खनन-खनन खनकाती चली आओ माँ|
नगर-नगर दीप जगर-मगर दीप ,
डगर-डगर में जलाती चली आओ माँ|
लहर-लहर उठे फहर-फहर उठे,
वैभव के ध्वज फहराती चली आओ माँ||
(ब)
शांति के दिए जलाओ क्रांति के दिए जलाओ,
भ्रान्ति कालिमा मिटाओ यही तो दीवाली है|
पांति पांति दीप जले भांति-भांति दीप जले,
रात-रात दीप जले यही तो दीवाली है|
हाथ में दिये जलाओ साथ में दिये जलाओ,
रात में दिये जलाओ यही तो दीवाली है|
तुमको लुगाई मिले हमको भौजाई मिले,
सबको मिठाई मिले यही तो दीवाली है||
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(श्रीमती सिया सचदेव जी )
जगमग करते दीपो का त्यौहार मनाये
भूल के शिकवे दुश्मन को भी मीत बनायें
मंदिर में भी मस्जिद में भी दिए जलाएं
राम रहीम अपने दिलों से भेद मिटायें
एक हैं इश्वर एक ही अल्लहा नाम अलग हैं
हम सब उसके बच्चे,दुनिया को समझाए
जो गुमराह हुए नफरत की राह में भटके
बनके रहनुमा उनको प्यार की राह दिखाएँ
हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई है सब भाई
इक दूजे के संग मिलकर त्यौहार मनाएं
जब हम सब को हैं बनाया इक मालिक ने
फिर क्यूं लड़ना आपस में फिर क्यूँ टकराएँ
मिटा अँधेरा हर दिल को जो रौशन कर दे
आज "सिया" वह ऐसा प्यारा दीप जलाएं
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(श्रीमती नीलम उपाध्याय जी )
दीवाली पर हाइकू
कार्तिक मास
अमावस की रात
मने दीवाली
दीपों का पर्व
लेकर खुशहाली
आती दीवाली
जगमगाए
ऐसे दीप जलाएँ
मिटे अंधेरा
सत्य की ज्योति
दूर करे अज्ञान
का अंधकार
हर हृदय
हो प्रेम सुधामय
सद्भाव भरा
हो जगमग
जलाएँ ऐसा दीप
मन निर्मल
प्रण लें यह
दूर करें विद्वेष
मिटाएँ वैर
जलाते जाएँ
ज्योत से ज्योत मिले
ऐसी दीवाली
खुशियाँ बाँटें
उल्लास भरा मन
आई दीवाली
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(श्री इमरान खान जी)
हम दीप जला कर बैठे हैं, तुम साथी ईद मना लेना,
हम खील बताशे खाते हैं, तुम शीर हमारी खा लेना।
जगमग रोशन जब उसका, सारा आंगन हो जाये,
मेरा घर भी पास खड़ा धीमे धीमे मुस्काये,
हिन्दू मुस्लिम मुद्दों के यहाँ नहीं होते परचम,
मेरी गलियों में आओ देखोगे अनमोल रसम,
मेरे सूने घर का, आंगन रोशन वो करता है,
मेरे घर लक्ष्मी आये, सदा जतन वो करता है।
उसका मेरे घर आकर भेली का टुकड़ा लेना,
मेरा उसके घर जाकर मीठी वो गुजिया लेना,
हम दीप जला कर बैठे हैं, तुम साथी ईद मना लेना,
हम खील बताशे खाते हैं, तुम शीर हमारी खा लेना।
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(श्री सतीश मापतपुरी जी )
(प्रतियोगिता से अलग )
दीपों का त्योहार दिवाली
दीपों का त्योहार दिवाली, ज्योति का आसार दिवाली.
नई उमंगें - नई उम्मीदें, ले आती हर बार दिवाली.
जेठ महीना तन झुलसाता, सावन देता राहत.
अंधियारों से मन घबड़ाता , रौशनी सबकी चाहत.
एक -एक मन को रौशन करने, आती बारम्बार दिवाली.
नई उमंगें - नई उम्मीदें, ले आती हर बार दिवाली.
गीत गति है इस जीवन की, धड़कन है संगीत.
लय साँसें और राग है खुशियाँ, सरगम मन की प्रीत.
यूँ लगती है - यूँ सजती है, हर दिल -आँखों में दिवाली.
नई उमंगें - नई उम्मीदें, ले आती हर बार दिवाली.
ढोल-मजीरा , नाल-पखावज, शहनाई-मृदंग
राग-रागिनी, गायन-वादन , नृत्य-ताल और छंद .
नर नारी और बाल - वृद्ध ,सब के मन भाये दिवाली .
नई उमंगें - नई उम्मीदें, ले आती हर बार दिवाली.
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लगता है तबियत सुधर गयी है ! मोहक रूप के साथ अवतरित हुए हैं, बधाई !! ..:-)))))
सही फरमा रहे हैं आदरणीय सौरभ भाई जी तभी तो मुस्कराहट कानो तक पहुंची हुई है ! :)::
जय हो बागी जी !
इन संकलित रचनाओं को देखना सुखद तो है ही, एक साथ पढ़ने से यह स्पष्ट होता है कि ओबीओ मे मंच होते हुए सभी आयोजन रचनाकारों को कितना प्रभावित कर रहे हैं. रचनाओं की संख्या से अलग उनका स्तर भी बढ़ा है जो कि सभी के लिये आनन्द की बात है.
आदरणीय योगराजभाईसाहब का प्रयास स्तुत्य है.
सादर
सादर आभार आदरणीय सौरभ भाई जी !
सादर हुज़ूर..
देखिये न, आपवाली मसरूफ़ियत मेरे सिर चढ़ कर बाँग दे रही है.. . बनारस छोड़े नहीं छूट पा रहा है !
आदरणीय प्रधान सम्पादक जी, इस महत्वपूर्ण कार्य के लिए आपका हार्दिक आभार ! इस अवधि में हम सभी को आपकी बहुत याद आती रही !
अदभुत है यह संकलन, यहाँ संकलित ज्ञान.
बहुत परिश्रम से किया, कठिन कार्य श्रीमान.. :-))))
बहुत बधाई आपको, मार लिया मैदान !
काया माया आपकी, मैं मूरख नादान !
अच्छा ’साहब’ मूर्ख हैं, हुआ आज ही ज्ञान
नादानी ये मुर्खई, सबको दे भगवान .. . ..... :-)))
सब पर ही औदार्य का, मेंह देत बरसाय !
जै जै करता है तभी, ओबीओ समुदाय !
ओ बी ओ पर दे रहे, जन-जन को सम्मान .
सत्य वचन हैं आपके, सहमत हूँ श्रीमान..
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