चित्र से काव्य तक प्रतियोगिता अंक -१३ में सम्मिलित सभी रचनाएँ एक साथ
श्री योगराज प्रभाकर
(प्रतियोगिता से अलग)
तीन कुंडलिया छंद
(१)
कितना मनमोहक शजर, दीखे कितना शोख
जिसकी आदम ज़ात ने, कर दी सूनी कोख
कर दी सूनी कोख, किया मुस्तकबिल सूना
कितना कम अंदेश, दिखाया खूब नमूना
खूनी आँसू खूब, रुलाएगा ये फितना
दोष न होगा माफ़, भले पछताए कितना
-----------------------------------------------
(२)
आने वाली पीढ़ियाँ, भोगेंगीं संताप
कितनी भारी भूल ये, कितना भारी पाप
कितना भारी पाप, बने पेड़ों के खूनी
धरती माँ की गोद, हुई है ऐसी सूनी
बर्बादी का खेल, खेलते जो दीवाने
कुदरत की तो मार, पड़ेगी सोलह आने
...................................................
(३)
पूरी आदम जात के, जीवन का आधार
जीवन बाँटें पेड़ ये, जाने है संसार
जाने है संसार, मगर लालच ने मारा
मन की ऑंखें मूँद, चलावे खूनी आरा
इस धरती पर पेड़, बहुत हैं यार ज़रूरी
गए अगर ये पेड़, गई दुनिया ये पूरी .
--------------------------------------------
_____________________________________________
श्री तिलकराज कपूर
कुंडली
(प्रतियोगिता से अलग)
जीना हो दीर्घायु तो, रखिये इसका ध्यान
जैव-जगत आधार है, ईश्वर का वरदान।
ईश्वर का वरदान, जगत में प्रकृति कहाया
जीवन का हर भेद, इसी में रहा समाया।
कह 'राही' कविराय, साथ इसके ही चलना
इसके ही गुण धार, हमें है जीवन जीना।
_________________________________________
श्री आलोक सीतापुरी
छंद हरिगीतिका
(१६, १२ मात्रा)
गर्भस्थ शिशु सम बीज अंकुर, विटप गहबर सोहहीं|
पावन प्रकृति संतति वनस्पति, देव तन मन मोहहीं|
शिशु लिंग की पहचान कर जिमि, जनम कन्या रोधहीं|
निज स्वार्थ हित यह नर अधम नहिं, लोक मंगल सोधहीं ||
------------------------------------------------------------------------
छंद घनाक्षरी
(१६, १५ मात्रा)
(1)
कोख से ही मानव के हितकारी होते वृक्ष
घात पर घात सह के भी फल देते हैं
दूषित हवा को आत्मसात करते हैं खुद
प्राणियों को प्राणवायु प्रतिपल देते हैं
क्रांति श्वेत हरित इन्हीं की छत्रछाया में है
बादलों को खींच के धरा को जल देते हैं
सैकड़ों हज़ारों काम आते हैं हमारे वृक्ष
प्रगति को गति आतमा को बल देते हैं ||
(2)
जंगलों को काट-काट संकट बटोरता है
सूखा बाढ़ वाली परेशानी याद आती है
क़त्ल पर क़त्ल का उकेरा यह चित्र देख
मानव की दानवी कहानी याद आती है
आज का मनुष्य धृतराष्ट्र हो गया है बंधु
अपनी उसे न बेईमानी याद आती है
होकर मदांध ये किसी की मानता ही नहीं
विपदा पड़े तो बस नानी याद आती है ||
__________________________________
डॉ० ब्रजेश कुमार त्रिपाठी
कुंडलिया .
(1)
चित्र भ्रूण का वृक्ष में, कोई गया कुरेद...
है सामूहिक वेदना किन्तु व्यक्तिगत खेद
किन्तु व्यक्तिगत खेद,जताया उत्तम ढंग में
खोला मन के भेद, बिना बोले तरंग में
कहें बृजेश..छूरहा दिल को गहरेसे हे मित्र
साधुवाद एडमिनजी लाए इतना सुंदर चित्र
-------------------------------------------------------
(२)
दोहे
संशय में अस्तित्व है, जीवन अस्तव्यस्त..
माँ कब मेरी सुनोगी, व्यथा-कथा अव्यक्त ?
.
वृक्ष और गर्भस्थ शिशु, करते करुण पुकार
सुख की ये प्रतिभूतियां, हैं कितनी लाचार!!!
.
कब समझेगें लोग सब जो इनके निहितार्थ?
थोड़े से सुख के लिए कब छोडेंगें स्वार्थ?
.
कन्या-शिशु है गर्भ में.....वन में वृक्ष मलीन
अर्थ-लोभ में लोग सब..क्यों बन गए मशीन?
.
दोहन अंधाधुंध कर मानव बना मशीन
प्रकृति-मातु पल-पल दिखे, क्रोधित औ ग़मगीन
.
जल का वन का भूमि का और वायु का मित्र !
ध्यान अभी भी न दिया (तो)बिगड जायेगा चित्र
.
सुनामी, भूकम्प के, कब समझोगे अर्थ ?
क्यों नादानी में सखे! जीवन करते व्यर्थ?
.
चलो आज संकल्प लें, छोड़ें मन के स्वार्थ
अगली पीढ़ी के लिए करते हैं परमार्थ
___________________________________
श्री अरुण कुमार निगम
( छंद कुण्डलिया )
जैसे पाई खबर यह , आया कन्या भ्रूण
हत्या करने को खड़ा, उसका अपना खून
उसका अपना खून, मरी ममता आँखों की
होली जलती रही , लहलहाती शाखों की.
कहे अरुण कविराय ,सोच बदली यूँ कैसे
कन्या हो या पेड़ , आज दोनों इक जैसे.
_____________________________________
अम्बरीष श्रीवास्तव
(प्रतियोगिता से अलग)
छंद बरवै
(१२+७ मात्रा)
अजब तमाशा कैसा, देर सवेर.
तना काटकर मुझको दिया उकेर..
जालिम मुझ पर ही मत, कर आघात..
शिशुवत मुझको माना, सबने तात.
निसंदेह यह कन्या, का ही चित्र.
प्रतिपल मेरी हत्या, होती मित्र.
कब तक प्यारे सहूँ मैं, ऐसी पीर.
ओ नादान अरे हो, जा गंभीर..
धरती ‘अंबर’ का जब, भी अभिसार.
हरियाली दे जग को, नव शृंगार..
--अम्बरीष श्रीवास्तव
____________________________________
श्री अश्विनी कुमार
चौपाई छंद
पौधे हैं धरती के भूषण ,धरती माँ के यह आभूषण,
तुम इनको कटने मत देना,मानो तुम मेरा यह कहना ,,
साफ हवा ये हमको देते ,बदले में यह कुछ ना लेते ,
मोल नही है इनका कोई,इन जैसा जग में ना कोई ,,
मीठे मीठे फल देते हैं ,राही को छाया देते हैं ,
औषधियाँ भी यह देते हैं ,तापस भी ये हर लेते हैं ,,
खग पेड़ों पर कलरव करते,कीटों का यह भोजन करते,
पाती है उर्वर भूमि बनाती ,खेतों में फसलें लहराती ,,
सदा करो इनका संरक्षण ,काटे कोई रोको उस क्षण ,
नित नवीन पौधा तुम रोपो ,मन आनंद हो जब बढ़ता देखो ,,
-------------------------------------------------------------------------
(2)
(चौपाई +मानव छंद
तरु बीच छिपा निर्दोष शिशु ,यह चाहे खुलकर खिलना ,
मारो मारो मत मारो , यह धरती माँ का ललना ,,...१
समझो समझो अब समझो ,इनका भी तो जीवन है ,
माना यह हैं मूक बधिर ,इनकी भी कुछ चाहत है,,...२
बिरवा यह जो पेंड बने ,इस पर ढेरों फूल खिलें ,
कन्या हो बीजांअंकुर हो ,खुशियों की सौगात बनें ,...३
मानवता की है यह रीती ,सबसे करो सदा ही प्रीती ,
पौधे इनसे अलग नही हैं,इनमे सबके प्राण बसे हैं ,,१
धरती इनसे स्वर्ग बनी ,मानव की बहुमूल्य निधि,
पेंड पेंड यह पेंड हरे ,झोली सबकी सदा भरे ,,....४
रोको रोको तुम विनाश,वृक्षों के संग अपना नाश ,
वृक्षों से हम धरा सजाएँ ,रोज नया एक वृक्ष लगाएँ ,,.....५
दर्द भरी इनकी ये चीखें , पेड़ों में मानव की सांसें ,
चेतो चेतो -हे मानव ,होगा कल मरुवत संसार ,,....६
पुत्र समान इन्हे तुम मानो ,यह अनमोल इन्हे पहचानो ,
वेद धर्म तुमसे कहते हैं ,इनमे तो खुद हरि बसते हैं ,,....२
_______________________________________________
श्रीमती राजेश कुमारी
दो मनहरण घनाक्षरी छंद
(१)
हिमगिरी टूट रहे, ताल-तल सूख रहे ,
हरित-हरित घने, दरख़्त लगाइये|
कोयलिया प्यासी घूमे,आम्र ग्रीवा सूखी झूमे ,
गहन-सघन तरु, वन ना कटाइये|
जीवन संचारी है ये, आँगन की सुक्यारी है,
गर्भस्थ शिशु सम ये, कोख ना गवाइये |
जीव परिखिन्न हुए, गिरी छिन्न-भिन्न हुए,
दृढ संकल्प लेकर, प्रकृति बचाइये|
.
(२)
मौसम बदल रहा, भास्कर उबल रहा,
करके वृक्षारोपण, ठंडी छैयां पाइये.
तापमान बढ़ रहा, मानव झुलस रहा ,
वाहन प्रदूषण की, जांच करवाइये|
जल संरक्षण करें,जीवन की प्यास हरें,
अपने परमार्थ से, गंगा को बचाइये |
धरा चक्र डोल रहा, परतों को खोल रहा,
उछिन्न पर्यावरण, फिर से बसाइये|
-----------------------------------------------------
(३)
चौपाई
हरित तरु अरु प्रकृति न्यारी |व्याधि निवारक आपद हारी ||
गर्भस्थ शिशु सम जीव विस्तारी |करे सुपोषण ज्यों महतारी ||
वन,उपवन,गिरी वय संचारी |होई है अधम जो चलावै आरी ||
कुपित प्रकृति रूप जेहि धारे |ताहि कहौ फिरि कौन उबारे ||
स्नेह जल सींचि-सींचि तरु बोई |प्राण सफल आनंद फल होई ||
जबहिं कठिन परिश्रम कीजै |तबहिं सम- सरस फल लीजै ||
सुपर्यावरण में ज्योति तुम्हारी |इदं उक्तिम ग्रहेयु नर नारी ||
________________________________________
अविनाश बागडे...नागपुर.
(प्रतियोगिता से स्वत: बाहर)
सार/ललित छंद
छन्न पकैया......
छन् पकैया- छन् पकैया,सबको प्रथम नमस्ते
कुदरत का है खुला खजाना, भोगो हँसते- हँसते.
*
छन् पकैया- छन् पकैया, यहीं हैं चारो धाम
हम सब इसके हिस्सें हैं, कुदरत इसका नाम.
*
छन् पकैया- छन् पकैया, इसका ओर न छोर
बांध रखा है सबको लेकिन दिखे न कोई डोर.
*
छन् पकैया- छन् पकैया. कटे न कोई पेड़
खेतों में हरियाली डोले, तरुवर सोहे मेड़.
*
छन् पकैया- छन् पकैया, धरती सबके प्राण
नहीं प्रदूषण के इस मां पर, चलने देंगे बाण.
*
छन् पकैया- छन् पकैया, देख परत ओजोन
नष्ट हो रही पल-पल किन्तु,मनुज खड़ा है मौन!!!
*
छन् पकैया- छन् पकैया, नौ महीने की बात
मै भी,तू भी ,वो भी, सब ही,कुदरत की सौगात.
*
छन् पकैया-छन् पकैया, मन में हो आलोक
इसी धरा पे तुम्हे मिलेंगे, हंसते तीनो लोक.
*
छन् पकैया. छन् पकैया, भ्रूण-हत्या अभिशाप
मौन सदा धारण करते हैं, कैसे हम निष्पाप!
*
छन् पकैया-छन् पकैया,वन-उपवन चहुँ ओर
हरियाली का करें समर्थन ,चलिए हम पुरजोर.
*
छन् पकैया- छन् पकैया, कलाकार की वाह!
सृष्टि के सन्देश की, जिसने की परवाह.*
------------------------------------------------
(२)
कुण्डलिया-छंद.......
दोनों स्थान ममत्व के,कहीं रोक ना टोक.
छाया जैसे पेड़ की, वैसे मां की कोख.
वैसे मां की कोख, दर्द का नाम दूसरा.
जनम जगत ने लिया,यही वो स्थान है खरा.
कहता है अविनाश, हांकने वाले बौनों,
ऊँचे सदा अनंत, वृक्ष और माता दोनों.........
------------------------------------------------------
(3)
दोहे
(१३-११ )
भ्रूण - हन्ता मत बनो,सोचो! करो विचार!
अगली पीढ़ी क़े लिये , होगा अत्याचार.
*
तरुवर क़े फल तब मिले,जब हो बीज शरीर,
निष्फल एक प्रयास का,कोख जानती पीर!
*
रहना शीतल छाँव में,किसको नही सुहाय.
हरे-हरे हर पेड़ की,हरियाली मुसकाय.
*
माटी ही आरम्भ है, माटी अंतिम ठौर.
हम भी उसका हिस्सा हैं,क्यों कर बने कठोर!!!
*
मां की ममता के लिये,सब कुछ है कुर्बान.
धरती-माता के लिये,कम है अपनी जान.
*
________________________________________
श्रीमती शन्नो अग्रवाल
''वृक्ष हैं शिशु समान''
करें सुरक्षा वृक्षों की, रखें इनका ध्यान
सही रूप से परवरिश, हैं शिशु से नादान
हैं शिशु से नादान, सींचना जल से इनको
यौवन में फल-फूल, और दें छाया सबको
‘’शन्नो’’ ये वृक्ष कुछ, बीमारी सबकी हरें
दें पनाह जीव को, इनकी हम सुरक्षा करें l
-शन्नो अग्रवाल
______________________________________
डॉ० प्राची सिंह
दोहा (13+11)
जीवन दाता वृक्ष हैं, खाद्य शृंखलाधार .
कैसे फिर जीवन बचे, होवे जो संहार ..
***************************** *****
कन्या संतति वाहिनी, जीवन का आधार .
कैसे फिर जीवन चले, भ्रूण दिए जो मार..
**********************************
सरकारी वन पौलिसी, बोले पेड़ लगायँ .
तेइस प्रतिशत वन बचे, तैंतिस पर ले आयँ..
***********************************
दिन दिन गिरता जा रहा, कन्या का अनुपात.
जनगणना के आंकड़े, कहते हैं यह बात ..
***********************************
कागज लट्ठा औ’ दवा, वृक्षों के उपहार .
दोहन की सीमा नहीं, जंगल हैं लाचार
***********************************
कन्या गुण की खान है, ममता का अवतार.
खामोशी से झेलती, सारे अत्याचार ..
************************************
_______________________________________
श्रीमती लता आर ओझा
बार बार क्या सोचना ,क्यों करना तकरार ?
वृक्ष शिशु की भांति भी,और बुज़ुर्ग का प्यार ..
और बुज़ुर्ग का प्यार की सीखो छाया देना ..
स्वार्थ को अपने त्याग ,सभी को अपना लेना ..
सोख स्वयं मृत वायु ,सभी को अमृत बांटो..
सदा लगाओ वृक्ष ,मगर न इनको काटो ..
______________________________________
श्री दिलबाग विर्क
दोहा
कभी न काटो पेड को , कभी न मारो भ्रूण |
दोनों से है रोकता , समाज औ' कानून ||
मार रहे हो भ्रूण को , दरख्त रहे उखाड़ |
ले डूबेगा एक दिन , कुदरत से खिलवाड़ ||
___________________________________________
श्री राकेश त्रिपाठी 'बस्तिवी'
दोहे (१३+११)
.
पंछी का घर छिन गया, छिना पथिक से छाँव,
चार पेड़ गर कट गया, समझो उजड़ा गाँव.
.
निज पालक के हाथ ही, सदा कटा यों पेड़,
थोड़े से मास के लिए, जैसे मारी भेड़.
.
लालच का परिणाम ये, बाढ़ तेज झकझोर.
वन-विनाश-प्रभाव-ज्यों, सिंह बना नर खोर.
.
झाड़ फूंक होवै कहाँ, कैसे भागे भूत,
बरगद तो अब कट गया, कहाँ रहें "हरि-दूत"?
.
श्रद्धा का भण्डार था, डोरा बांधे कौम,
हाथी का भी पेट भर, कटा पीपरा मौन.
.
झूला भूला गाँव का, भूला कजरी गीत,
कंकरीट के शहर में, पेड़ नहीं, ना मीत.
कृपया अब यूँ पढ़े .............
अनायास ही छीनते, धरती माँ का प्यार,
बालक बिन कैसा लगे, माता का श्रृंगार ?
.
पंछी का घर छिन गया, छिनी पथिक से छाँव,
चार पेड़ गर कट गए, समझो उजड़ा गाँव.
.
निज पालक के हाथ ही, सदा कटा यों पेड़,
ज्यों पाने को बोटियाँ, काटी घर की भेड़
.
लालच का परिणाम ये, बाढ़ तेज झकझोर.
वन-विनाश-प्रभाव-ज्यों, सिंह बना नर खोर.
.
झाड़ फूंक होवै कहाँ, कैसे भागे भूत,
बरगद तो अब कट गया, कहाँ रहें "हरि-दूत"?
.
श्रद्धा का भण्डार था, डोरा बांधे कौम,
भर हाथी का पेट भी, कटा पीपरा मौन.
.
झूला भूला गाँव का, भूला कजरी गीत,
कंकरीट के शहर में, पेड़ नहीं, ना मीत.
_____________________________________________
श्रीमती सीमा अग्रवाल
(प्रतियोगिता से बाहर )
बेल अमर से बढ़ रहे ,ढोंगी के दरबार
वृक्ष कटें दिन रात हैं जो हैं प्राण आधार
तरु को पालो प्रेम से ,देंगे दुगना प्रेम
स्वच्छ वायु फलफूल से ,परिपूरित सुख क्षेम
आज अगर चेते नहीं, कलको राम बचायँ
हवा नीर माटी सभी लालच में ना जायँ
_____________________________________________
श्री अरुण कुमार निगम
एक हरिगीतिका छंद -
गर्भस्थ शिशु सम बृक्ष का भी क्यों न हम पालन करें
वन को न दें वनवास ममता वृक्ष को अर्पण करें
अब करें मानव धर्म धारण क्यों ह्रदय पाहन करें
क्यों क्रूर बन वन काट हत्या भ्रूण की निर्मम करें
_____________________________________________
श्री विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी
(प्रतियोगिता से स्वत: बाहर)
सरसी छन्द
(16-11 मात्रा अंत में गुरु लघु)
गर्भ बालिका तरु से बोली,हृदय किये गम्भीर।
किससे अपना दर्द कहूं मैं,सभी बड़े बेपीर॥
मार डालते मुझे गर्भ में,कहते सिर का भार।
इसीलिये आ छिपी आप में,विनती हो स्वीकार॥
वृक्ष देवता हमें बचा लो,मनुज बड़े शैतान।
बड़ी होय जग हरा करूंगी,मानूंगी अहसान॥
तरु बोला हे गर्भ बालिका,कैसे करूं बचाव।
कुछ छुद्र स्वार्थी जन के नाते,मेरा हुआ कटाव॥
किन्तु बना बेशर्म हरा हूं,वरना पतले पेड़।
बौंना ठिंगना बना दिया है,ये मानव की ऐंड़॥
जिस भारत ने पूजा मुझको,प्रात: दुपहर शाम।
आज उसी अपने भारत में,कटना मेरा आम॥
बोली बच्ची सही बोलते,देवदारु महराज।
कन्या देवी जहां बनी थी,कत्ल हो रही आज॥
तेरा दुखड़ा मेरा दुखड़ा,दोनों एक समान।
यदि हम जग में नहीं बचे तो,क्या होगा कल्यान॥
तुम जग को जीवन देते हो,मुझसे चलता लोक।
पर जीवन आधारभूत को,नष्ट कर रहे लोग॥
पद्धरि छंद
(16 मात्रा,अंत में जगण-।ऽ।)
तनया तरुवर का ये विनाश,
समझो जीवन का सत्यनाश।
न कहीं रहेगा जीवन आस,
सूनी धरती सूना अकाश॥
.
___________________________________________
श्री शैलेन्द्र सिंह मृदु
ज्वालाशर छंद
१६ ,१५ पर यति अंत में दो गुरू (२२)
********************************************
आधार है परमार्थ का तरु,शिक्षा जीवन को मिली है.
दें अनातय ताप आतप में,बगिया जीवन की खिली है.
अस्तित्व भी खुद का मिटा दें,जन की यदि होती भलाई.
फूलें फलें परहित सदा ही,काया भी खुद की जलाई.
तव अंश ही अपघात करता,तब न वश चलता तुम्हारा.
कर क्या सकती थी कुल्हाड़ी,यदि अंश न देता सहारा.
है शिशु सरिस अंतस सुकोमल,सदैव हो तुम मुस्कुराते.
देता कष्ट भले ही कोई,पर न तुम उसको ठुकराते.
______________________________________
Tags:
आदरणीया सीमाजी ! आपका हार्दिक धन्यवाद ! आप सभी के सहयोग से ही यह आयोजन हो सका ! हम सभी को अपना-अपना अमूल्य सहयोग देकर इसे और भी बेहतर बनाना है !
सभी रचनाएं एक साथ लाने के लिए हार्दिक बधाइयाँ.
धन्यवाद भाई राकेश जी !
पृथ्वी-दिवस तो ओ बी ओ ने इस प्रतियोगिता के साथ ही मनाना शुरू कर दिया था आज सभी प्रविष्टियों का गुलदस्ता तो मानो इस दिवस को सार्थक कर रहा है.आभार
राजेश कुमारी जी ! आपने सत्य कहा ! इसी तरह आपका सहयोग बना रहे ! सादर
अंक तेरह में सृजित रचनाएँ इस आयोजन की गुरुता का पता दे रही हैं | आदरणीय श्री अम्बरीश जी के संयोजन में इस सफल आयोजन हेतु सभी सदस्यों और पूरी टीम को हार्दिक बधाई !!
धन्यवाद भाई अरुण अभिनव जी ! इस तरह के पुनीत यज्ञ में आपका अमूल्य सहयोग अपेक्षित है !
सभी रचनाओं को एक साथ प्रस्तुत करने के लिए हार्दिक बधाई ,,मै समयाभाव के कारण स्क्रिय नही रह पाया इसका मुझे अफसोश है फिर भी यहाँ पर रसास्वादन का सुअवसर प्राप्त हो गया.....आभार
अग्रज अंबरीष भाई एक और चौपाई बस अभी अभी मन मे आई ,,पेशे खिदमत है ,,,
छाया प्रतिमा कुछ बोल रही है ,मन की गाँठे कुछ खोल रही है ,,
जिस शिल्पी ने चित्र उकेरा है ,उस तरु के उर को चीरा है ,,
कला सृजन की अपनी धुन में ,आह अनसुनी कर दी उसने ,,
अति प्रसन्न हो कृति दिखलाता ,करुण पुकार नही सुन पाता ,,
हा !शिल्पी कैसा निष्ठुर है ,कला भी तो ये क्षणभंगुर है ,,
इस तरु को उसने व्यथित किया ,कहता है करुणा प्रकट किया ,
जय हो जय हो
स्वागत है भ्राता अश्विनी ! एक नए नज़रिए से बहुत अच्छी पंक्तियाँ कही हैं आपने ! साधुवाद !
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |