सर्व श्री अलबेला खत्री
छंद घनाक्षरी
***************************************
आग ये संयोग की है,
न ही ये वियोग की है,
न ही आग है ये किसी लैब में प्रयोग की
भोग की ये आग नहीं,
रोग की ये आग नहीं,
आग नहीं दिखती ये जोगियों के जोग की
रेशम की आग है न,
शीशम की आग है ये,
न ही आग लगती ये मरुधरी फोग की
मुट्ठी में जो बन्द कर
रखी किसी युवक ने,
आग ये संताप की है, आग है ये सोग की
______________________________
कुंडलिया
मुट्ठी में सूरज भरा, आँखों में आकाश
ज़न्जीरें हैं पाँव में, काँधे पर है लाश
काँधे पर है लाश, समूची मानवता की
आज वतन में हवा बह रही दानवता की
भीतर भीतर क़ैद, लपट नहिं बाहर उट्ठी
केवल धुआं उगल, रही है मेरी मुट्ठी
_______________________________
* कवित्त
वेदना के वैधव्य को दूर करने के लिए
क्रोध यानी उसका सुहाग ले के आ गया
आंसुओं की धार पर, तेग़ घिसने के लिए,
करुणा के सागर से झाग ले के आ गया
चूहों और चुहियों से पाने को निज़ात आज
जंगल से ज़हरीला नाग ले के आ गया
मुल्क को बचाने हेतु, इंक़लाब की मशाल,
जलाने को एक मुट्ठी आग ले के आ गया
****************************************
श्री उमाशंकर मिश्र
कुंडली
मुट्ठी में सूरज लिए, अंगारों में जान|
क्रांति बीज है पल रहा,जाग रहा इंसान||
जाग रहा इंसान,भ्रष्टता, दूर भगाओ|
जनगण हैं तैय्यार,अनल भर मुट्ठी लाओ||
धुआँ हो रही आग,पिये हम विष की घुट्ठी|
देंगे अब बलिदान,भींचते सब हैं मुट्ठी||
___________________________________
मेरी दूसरी रचना प्रस्तुत है
चौपाई दोहा सहित
चौपाई १६,१६,मात्रा दोहा १३,११,
युवा ह्रदय पीर है भारी|नफ़रत आग रूप है धारी||
देय शिक्षा यहाँ बेकारी|खालीपन है लगता भारी ||
देखे भ्रष्टाचार अपारा|कुंठित मन होता बेचारा||
कुंठा ने है आग लगाईं|नफ़रत की ज्वाला सुलगाई||
बंद मुष्टिका सब हैं धारे |खड़े हुवे अपने को मारे||
धुआँ उठ लग रहा गुबारा|बुझते दीपक नर संहारा||
युवा देश भविष्य बनाये|इनकी चिंता माँ अकुलाए||
रोको इनको देश बचाओ|प्रेम राह इनको दिखलाओ||
राष्ट्र प्रेम की धार बहाओ|पावक को शीतल कर जाओ||
देश प्रेम ज्वाला बन जाए|आओ ऐसा दीप जलाएं||
दोहा :-वैश्वानर मुष्टिक भरे, युवा फँसे ना जाल|
दोष उमर का है बड़ा,ये भारत के लाल||
***************************************
आदरणीय प्रज्ञाचक्षु श्री आलोक सीतापुरी
(प्रतियोगिता से अलग)
अंगारा भर हाथ में, करें नक्सली जंग.
निकले मुट्ठी से धुआँ, जला रहे हैं अंग.
जला रहे हैं अंग, देश भर में हंगामा.
घूम रहे यह लोग, लिए विस्फोटक सामा.
कहें सुकवि आलोक, जल रहा असम हमारा.
यदि चाहें कल्याण, बुझा दें यह अंगारा||
आलोक सीतापुरी
*********************************
अम्बरीष श्रीवास्तव
(प्रतियोगिता से अलग)
मुट्ठी में अंगार है, रणचंडी का वेश.
भारत माँ ने जो धरा, सुलगे सारा देश..
सुलगे सारा देश, धुआँ मुठ्ठी से निकले.
देख इसे भयभीत, भ्रष्ट सारे हैं दहले.
अम्बरीष यह रूप, सुलगती जैसे भट्ठी,
भागे भ्रष्टाचार, खुलेगी अब यह मुट्ठी..
____________________________________
छंद: 'कुकुभ'
(प्रतियोगिता से अलग)
(मात्रायें : १६-१४ अंत में दो गुरु)
वोट-नीति के चक्कर में जो, चल जाते गहरी चालें.
लुटती-पिटती भोली जनता, वह तो उसका मत पा लें.
मुट्ठी में अंगार भरा है, सुलग रही है यह भाई.
जहाँ हुआ अन्याय जगत में, पर्वत सी होती राई.
लहू खौलता आज सभी का, बोल रहा यह अंगारा.
अभी समय है सुधरें वरना, फूट चलेगी यह धारा.
राम-राज सा एक नियम हो, सब हों प्रभु के अनुरागी.
तभी बनेगा सोने जैसा, देश हमारा बड़भागी...........
________________________________________
छंद कुंडलिया
कुंडलिया =(दोहा + रोला)
मुट्ठी में जो आग है, वही हृदय में आग.
हत्यारे जो भ्रूण के, उन्हें दीजिए दाग.
उन्हें दीजिए दाग, सदा अंतर में ऐसा.
त्यागें झूठी शान, व्यर्थ इज्जत औ पैसा.
अम्बरीष अविराम, चेताएं ले कर लट्ठी.
यदि मारा फिर भ्रूण, याद रखना यह मुट्ठी..
--अम्बरीष श्रीवास्तव
**********************************
श्री नीरज
घनाक्षरी
''उग्रवादी,देशद्रोही,जन विरोधी लोग कुछ,
आम जनता पे हथ-गोले हैं चला रहे.
गैर देश के गुलाम, आततायी धूर्त कुछ,
छलने की कूटनीति चाल हैं चला रहे.
शूरवीर मेरे देश वासी रणबांकुरे हैं ,
देश द्रोहियों को संग्राम में बुला रहे .
उग्रवाद के खिलाफ साहसी शपथ लेता ,
हाथ में पकड़ के अंगार हैं बुझा रहे.. ''
*****************************************
श्री अरुण कुमार निगम
(प्रतियोगिता से बाहर एक कुण्डलिया.)
अंगारा बँधता नहीं , मुट्ठी में मत बाँध
किसे शौर्य दिखला रहा,तू उचका कर काँध
तू उचका कर काँध , मिलेंगे तुझे न कंधे
अति का होता अंत , बंद कर गोरख धंधे
हुई सत्य की जीत , दम्भ है हरदम हारा
कर जाएगा धुँआ , तुझे तेरा अंगारा ||
****************************************
श्री विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी
(दोहे)
नफरत का अंगार ये,हर जन उर धुधुआय।
नेता रोटी सेंकते,आग और भड़काय॥1॥
इस नफरत की आग को,बदलो जन समुदाय।
बंद मुष्टिका आग बन,परिवर्तन को लाय॥2॥
क्षुब्ध व्यवस्था आग है,हर सूं देश जलाय।
अपना ही अंगार है,अपना अंग जलाय॥3॥
देश जला हम भी जले,शेष बचे बस राख।
धुआं उड़े जब विश्व में,गिरती अपनी शाख॥4॥
दया प्रेम करुणा जली,ममता लागी आग।
नेह नेह का कम हुआ,जाग मनुज अब जाग॥5॥
बाहर लागी आग को,शीतल नीर बुझाय।
मन की लागी आग है,नहीं बुझाई जाय॥6॥
हर मन में शोला जले,हर मुट्ठी अंगार।
तो शायद इस देश से,कम हो भ्रष्टाचार॥7॥
हम उनको देगें बता,आग नहीं कमजोर।
बस मुट्ठी में एक हो,चले क्रांति की ओर॥8॥
मुट्ठी में है एकता,तिसमें हो जब आग।
समझो अपने खुल गये,उसी समय से भाग॥9॥
कैसी होती आग है,क्या जाने नादान।
मुट्ठी में है भर लिया,अंत हाथ दहकान॥10॥
______________________________________
॥दिए गए सुझाव के उपरान्त संशोधित दोहे॥
नफरत का अंगार ये,हर जन उर धुधुआय।
नेता रोटी सेंकते,आग और भड़काय॥1॥
इस नफरत की आग को,बदले जन समुदाय।
बंद मुष्टिका आग बन,परिवर्तन को लाय॥2॥
क्षुब्ध व्यवस्था अंगारा ,हर सूं देश जलाय।
अपना ही अंगार है,अपना अंग दहाय॥3॥
देश जला हम भी जले,शेष बचे बस राख।
धुआं उड़े जब विश्व में,गिरती अपनी साख॥4॥
दया प्रेम करुणा जली,ममता लागी आग।
नेह का नेह घट गया,जाग मनुज अब जाग॥5॥
बाहर लागी आग को,शीतल नीर बुझाय।
मन की लागी आग है,नहीं बुझाई जाय॥6॥
हर मन में शोला जले,हर मुट्ठी अंगार।
तो शायद इस देश से,कम हो भ्रष्टाचार॥7॥
हम उनको देगें बता,आग नहीं कमजोर।
बस मुट्ठी ज्यों एक हो,चले क्रांति की ओर॥8॥
मुट्ठी में है एकता,उसमें हो जब आग।
समझो अपने खुल गये,उसी समय से भाग॥9॥
कैसी होती आग है,क्या जाने नादान।
मुट्ठी में है भर लिया,अन्त हाथ दहकान॥10॥
__________________________________________
॥घनाक्षरी छंद॥
(16-15 वर्ण)
नैन में हो शान्तिगार,उर में हो नेह प्यार,
साथ हर हाथ में,अंगार होना चाहिए।
जो लूट धन देश को,है भेजता विदेश को,
ऐसा देशखोर गिरफ्तार होना चाहिए॥
यद्यपि हैं शान्तिदूत,भारती के वीर पूत,
आये देश संकट,खूंख्वार होना चाहिए।
है प्रांतों में आग लाग,हिय में भी आग लागे,
सोय रहे वीर तो,भिन्सार होना चाहिए॥
॥सवैय्या छंद॥
(22 वर्ण)
दाहक पावक हाथ गहे,जिय सोचत है यक वीर व्रती।
धूम उठे जब आगि जरै,अब देश जरै तब कौन गती॥
फूंकत है घर तापत हैं,मन मोदत हैं अब जाड़ मिटी।
मूरख जानत नाहि मनो,दिन नाहि कटी जब धूपतपी॥
_____________________________________________
॥कुण्डलिया छंद॥
(दोहा+रोला)
पावक साखी दै कहौं,आइ राम कै राज।
स्वर्ण विहग भारत बनी,पहिलै जुरै समाज॥
पहिले जुरै समाज,हाथ में हो अंगारा।
रखै जहां भी हाथ ,जरै खरदूषण सारा॥
मुट्ठी सम दिल जला,बची वेदना राखी।
धुआं उड़ा आकाश,कहौं दै पावक साखी॥
___________________________________
ये तो कवि का हाथ है,पकड़ लिया अंगार।
कर इसका है दीप या,लाया सूर्य उतार॥
लाया सूर्य उतार,जमीं पर हलचल भारी।
शंकित सारे धूर्त,भ्रष्ट औ अत्याचारी॥
शब्द शब्द अंगार,भरे हैं इस कवि ने तो।
हिय मुट्ठी से धुआं,नहीं हृदय जला ये तो॥
_
*******************************************
श्री संजय मिश्र 'हबीब
"कुण्डलिया" (प्रतियोगिता से पृथक)
(1)
संकल्पित मन हो सदा, राह कभी न बंद।
सुलगा सूरज बंध गया, मुट्ठी में निर्द्वंद।
मुट्ठी में निर्द्वंद, पथिक ले कर अंगारा।
चाहे जिस दिस मोड, उफनती नदिया धारा।
साहस का परिणाम, रहा है सदा अकल्पित।
अम्बर डाले लांघ, विहग नन्हा संकल्पित॥
(2)
हृदय दहकता दंभ से, गरल भरा व्यवहार।
छोड़ बिताओ हर्षमय, जीवन के दिन चार॥
जीवन के दिन चार, क्रोध में गल मत प्यारे।
समझ परस्पर बैर, कालिमा बिखराता रे॥
धार प्रेम हथियार, देख फिर जगत महकता।
अन्दर बिखरी ओस, बुझा दे हृदय दहकता॥
(3)
मुट्ठी जन जन की बंधी, अङ्गारों सा जोश।
सम्मुख सबके लुट रहा, अटल हिन्द का कोश॥
अटल हिन्द का कोश, लूट कर खुद ही बेटे।
हिन्द बना कर रोम, बने नीरो सब लेटे॥
_____________________________________
दोहे
भगत गुरु सुखदेव हैं, जिस भू के आधार।
अङ्गारों का देश है, कितना अब लाचार॥
सब जानें मर जायगा, किस विध भ्रष्टाचार।
फिरें चकोरा बन सभी, अरु चुगते अङ्गार॥
जाने क्यों सुलगे हुये, हैं सब के उदगार।
अङ्गारों का फल रहा, खूब यहाँ व्यापार॥
ज्ञान चराचर देव है, दिव्य रूप साकार।
अंतर में ज्वाला जली, हारा है अँधियार॥
माया छाया मोह की, काया को अङ्गार।
ज्वाला हाथों में लिए, नाच रहा संसार॥
अम्बर में छायेँ चलो, बन कर प्रेम उदभार।
हम बरसें बुझ जायगा, हर दिल से अङ्गार॥
क्रोध अंकुरित जो हुआ, बन जाता अङ्गार।
क़हत हबीब न राखिये, मन में किंचित रार।
_______________________________
सारा हिंदुस्तान, सुलगता बन कर भट्ठी।
लहरा करे सवाल, सकल हाथों की मुट्ठी॥
**********************************************
श्री दिनेश रविकर 'फैजाबादी'
कुंडलिया
(प्रतियोगिता से अलग )
जीवन भर करता रहा, अपनी मुट्ठी गर्म ।
हुआ रिटायर आज जो, घायल होता मर्म ।
घायल होता मर्म, धर्म-संकट है भारी ।
खुजलाये कर-चर्म, कर्म की है बीमारी ।
रविकर करे उपाय, हाथ रख दे अंगारा ।
मुट्ठी होती गर्म, भागता रोग बिचारा ।।
____________________________________
गारा अंगारा लिए, अंगुली जैसी ईंट |
छंदों की सौ मंजिलें, खिंची *ढीट पर ढीट |
खिंची *ढीट पर ढीट, कक्ष मनभावन लागें |
कार सेवकों धन्य, मिली सेवा बिन मांगे |
ओ बी ओ की शान, बहे साहित्यिक धारा |
रहे जोड़ता हृदय, प्रेम का पावन गारा ||
*लकीर
विद्वान् और विदुषियों -
इन पंक्तियों में भ्रूण हत्या के विरोध का भाव भरते हुए-
अंगारों की बात कर के दिखाएँ -
आज के कंसों को सबक मिल जाय-
मुट्ठी गर माई सखे, मुट्ठा मामा कंस |
सिर पर भुट्टा भूंजता, मारे भगिनी वंश |
मारे भगिनी वंश, अंश माया का आया |
हाथ धरे अंगार, ज्योति ने जब भरमाया |
तू मारे क्या मोय, मरे रविकर अधमाई |
पैदा तेरा काल, देख मुट्ठी गरमाई ||
_________________________________
एक कुंडली की और आहुति
इन अंगारों में, इति ||
आगमजानी जानता, आग नीर का वैर |
ढेरों गम देकर दहे, जलते अपने गैर |
जलते अपने गैर, आग का पुतला बनकर |
आग बो रहा ढेर, तमाशा देखे डटकर |
रविकर असम जलाय, करे हरकत शैतानी |
फांके नित अंगार, रोकता आगमजानी ||
**********************************************
श्री कुमार गौरव अजीतेंदु
छप्पय
(१) बहुत हुआ रे अधम, छोड़ ये अपना खेला,
हिये दबी है आग, भड़कने की है बेला |
फैल रही है गंध, हवा में कह के जैसे,
निश्चित तेरा अंत, कहीं तू भागे भय से ||
गरज गगन को गुँजित करते, चले वीर विकराल हैं |
भय-पाप के शमन के लिए, हम बने महाकाल हैं ||
(२) रोक सके अब कौन, क्रोध के जलते शोले,
हर दिल है बेचैन, खड़ा कब दागे गोले |
नहीं बचा जो सहन, करे अब इसकी ज्वाला,
माथे चढ़ के बोल, रही है मानो हाला ||
शस्त्रों से सजधज के चली, ये सेना संग्राम को |
ले के प्रण मिटाने जड़ से, दानवता के नाम को ||
___________________________________________
मनहरण घनाक्षरी
इन्कलाब गाने वाली, गोरों को भगाने वाली,
शूल को हटाने वाली, आग ये पवित्र है |
भोर नयी लाने वाली, चेतना जगाने वाली,
मार्ग को दिखाने वाली, आग ये पवित्र है |
कर्म को कराने वाली, धर्म को निभाने वाली,
शीश को उठाने वाली, आग ये पवित्र है |
सत्य को जिताने वाली, झूठ को हराने वाली,
भ्रष्ट को मिटाने वाली, आग ये पवित्र है ||
**********************************************
श्रीमती राजेश कुमारी जी
(कुण्डलियाँ छंद)
काला धन फिर से मिले ,भागे भ्रष्टाचार
भड़क गया जो ये कहीं ,मुट्ठी का अंगार
मुट्ठी का अंगार , धुंआ बेहद जहरीला
कर देगा ये क्रोध ,चेहरा काला पीला
बंद करो ये बाँट ,विषमय मौत की हाला
अच्छा ना ये भ्रात ,कोयले सा मुख काला
___________________________________
मेरी दूसरी प्रविष्टि (दोहे )
(१) जिह्वा उगल रही जहर ,मुट्ठी में अंगार|
कोप धुंआ ढाता कहर ,झुलस रहा संसार||
(२) नफरत की इस आग से ,कोई ना बच पाय |
धीमे -धीमे फैलती ,सभी भसम कर जाय ||
(३) क्रोध,द्वेष ,इर्ष्या,जलन ,मति के चार विकार |
सुज्ञान ,विनम्रता ,विनय ,ये तीनो उपचार ||
(४) प्रेम भाव से जो रहे ,प्रभु में ध्यान लगाय |
मुट्ठी में अंगार की, लौ शीतल हो जाय ||
(५) क्रोधाग्नि अंगार है ,संयम शीतल धार |
जो इतना समझा यहाँ ,उसका बेडा पार ||
(६) विवेक हरे अज्ञानता ,शान्ति हरता क्रोध |
उर में जिसके आग है,उसे नहीं कछु बोध ||
(७) त्याग करे जो बैर का, प्यार चित्त में लाय|
प्रभु उसका कल्याण कर , मोक्ष पंथ दिखलाय ||
_________________________________________
संशोधित दोहे
(१) जिह्वा उगल रही जहर ,मुट्ठी में अंगार|
कोप धुंआ ढाता कहर ,झुलस रहा संसार||
(२) नफरत की इस आग से ,कोई ना बच पाय |
धीमे -धीमे फैलती ,सभी भसम कर जाय ||
(३) क्रोध,द्वेष ,इर्ष्या,जलन ,मति के चार विकार |
विनम्रता सु ज्ञान ,विनय ,ये तीनो उपचार ||
(४) प्रेम भाव से जो रहे ,प्रभु में ध्यान लगाय |
मुट्ठी में अंगार की, लौ शीतल हो जाय ||
(५) क्रोध अगन अंगार है ,संयम शीतल धार |
जो इतना समझा यहाँ ,उसका बेडा पार ||
(६) ज्ञान हरे अज्ञानता ,शान्ति हरता क्रोध |
उर में जिसके आग है,उसे नहीं कछु बोध ||
(७) त्याग करे जो बैर का, प्यार चित्त में लाय|
प्रभु उसका कल्याण कर , मोक्ष पंथ दिखलाय ||
**********************************************
श्री धर्मेन्द्र शर्मा
(कुंडलिया)
मुट्ठी अंगारों भरी, आँखों में तूफ़ान
पल पल खुद को मारता, गुस्से में इंसान
गुस्से में इंसान, ना जाने आगा पीछा
रख धीरज को पास, अरे क्यूँ नाहक खीजा
समझ भाव की लहर, अभी जो ज़हन में उट्ठी
हो जा बंदे कूल, अरे अब खोल दे मुट्ठी
********************************************
आदरणीय श्री गणेश जी बागी
घनाक्षरी (प्रतियोगिता से अलग)
भय से मुक्त सारा ही, संसार होना चाहिए,
जोर और जुल्म प्रति-कार होना चाहिए |
गलती से भेज दिया, उनको जो चुन कर,
वापस बुला लें अधि-कार होना चाहिए |
बहू बेटियों की जो भी, इज्जत न समझे तो,
ऐसे पापियों का बहिष्कार होना चाहिए |
बदलेगा भारत औ, बदलेगी दुनिया भी,
"बागी" देखो मुट्ठी में अंगार होना चाहिए ||
***********************************************
श्री अविनाश एस० बागडे
छन्न पकैया .......
*******************
छन्न पकैया , छन्न पकैया , मुट्ठी में है आग!
घोटालों की हुई इन्तहा , अब तो मुर्दे जाग.
----
छन्न पकैया , छन्न पकैया , है ये चित्र प्रतीक.
आक्रोशित मन को दर्शाता , कहता बात सटीक.
----
छन्न पकैया , छन्न पकैया , हुई उंगलियाँ लाल!!
बहने को तत्पर है लावा , मुट्ठी रही संभाल.
----
छन्न पकैया , छन्न पकैया , खौल रहा है खून....
ठंडा करना इसे जरुरी , अच्छा नहीं जुनून.
----
छन्न पकैया , छन्न पकैया , है ये नाज़ुक दौर.
हुई जा रही संयम की अब , पतली पतली डोर!!!
----
छन्न पकैया , छन्न पकैया , आशा और विश्वास!!
मुट्ठी की ये आग बनेगी , कोई मकसद खास!!!!!!
_________________________________________
मुट्ठी भर दोहे....
---------------------------------------------
धधक रही है मुट्ठी में,स्वप्न-भंग की आग.
धुंये में है भटक रहे , बुझ कर सभी चिराग.
--
लावा बाहर आ रहा , मुट्ठी में जो कैद.
डर है हांथों में कहीं , हो ना जाए छेद.
--
मुट्ठी क़े आकार का , दिल कहलाता यार!
संकेतों में दृश्य कहे , दिल में भरा गुबार!!
--
पानी से ना बुझ सके , भड़की है जो आग.
इसे बुझाने क़े लिये , आवश्यक है त्याग!!!
--
अनशन-आन्दोलन नही , ना कोई टकराव.
देश - भावना हो सही , तभी मिलेगा ठांव.
***********************************************
श्री सतीश मापतपुरी
दोहे (प्रतियोगिता से अलग)
हैरत से ना देख तू , मुट्ठी की यह आग .
अब ना इससे भाग तू , यही तुम्हारा भाग .
हर मुट्ठी में आग है , हर दिल में तूफ़ान .
अब तो नींद से जाग लो , वरना काम तमाम .
जिनके मत से आप हो ,जल रहे उनके हाथ .
चाँदनी है बस चार दिन , फिर तो काली रात .
अब तलक तो कैद है , हर मुट्ठी में आग .
खुल गयी , कुर्सी सहित , हो जाओगे ख़ाक .
भ्रष्टाचार औ लूट की , बंद करो अब फाग .
वरना सब जल जाएगा , धधकेगी जब आग .
----- सतीश मापतपुरी
********************************************
श्री अशोक कुमार रक्ताले
भागता मानव कहाँ है!(रुपमाला छंद)
जब जहां धू धू जला वो,नहि बचा संसार/
हर कहीं आतंक की ही, फ़ैल रहि अंगार//
हर कहीं होता धुवाँ सा,कोय नहि आधार/
हर घडी गर्मा रहा है, भर्म का बाजार//
आ गये लेकर उमींदे,छोड़ कर घर बार//
जा रहे हैं लौटकर के,मोह कैसा प्यार//
आँख से आंसू बरसते, और सीने आग/
भागता मानव कहाँ है,ले मुठ्ठियों आग//
______________________________________
दोहे का पंच.(रचना द्वितीय)
शोला बन बहता लहू, रही मुट्ठियाँ भींच/
कैसी कौमे बो रही, मन शत्रुता के बीज//
प्यार वफ़ा सब है धुँआ,कैसी है यह रीत/
भाई भाई लड़ रहे, मीत रहा ना मीत//
नफ़रत की आंधी चली,उजड गये बागान/
लोहित जैसे रुठ गयी,उधम करें शैतान//
चीख पुकारों में दबा, मानवता का शोर/
बेबस अबला क्या करे,चले न कोई जोर//
जोर शोर से चल रही, फिर भी खींचातान/
लो फिर आगया बयान,बयान और बयान//
************************************************
श्रीमती रेखा जोशी
दोहे
दावानल मुट्ठी लिये , बढ़ते आगे वीर |
आज़ादी पर मर मिटे, लाखों हुए शहीद|
......................................................
बुन्देल के हरबोलों ,से सुनते यह राग |
झांसी बनी ज्वाला , मरदानी थी आग ||
...................................................
कूद पड़े लड़ाई में ,मुट्ठी लिए अंगार |
रंगा बसंती चोला,पहन मौत का हार ||
................................................
धधक रही मुट्ठी वही, सीने में ज़ज्बात |
मिटी गुलामी खून से, हमको मिली निजात ||
....................................................
खून बहा सरहद रँगें, इस धरती के वीर|
शत-शत करते हम नमन, अँखियों में भर नीर ||
______________________________________
सार छंद (छन्न पकैया)
छन्न पकैया,छन्न पकैया, लिये मुट्ठी में आग |
रौशन कर जहां को हमने,|बनाया दिव्य संसार ||
छन्न पकैया, छन्न पकैया ,रखो इसको संभाल |
हिम्मत देगी जीवन में अब, मुट्ठी भरी यह आग||
छन्न पकैया,छन्न पकैया,अब लो कसम तुम आज|
भ्रष्टाचार हम मिटा देंगे , लिए मुट्ठी में आग ||
छन्न पकैया,छन्न पकैया,रहों अब तुम तैयार |
बंद मुट्ठी में सुलगे आग ,भड़क रहा है अंगार ||
छन्न पकैया,छन्न पकैया,धधक उठी अनल आज |
मुट्ठी भर अंगारों से अब ,कट जाएगी यह रात ||
_______________________________________
संशोधित सार छंद (छन्न पकैया)
छन्न पकैया,छन्न पकैया, मुट्ठी में ले लाया |
रौशन दीपक कर के हमने,दिव्य संसार बनाया ||
..............................................................
छन्न पकैया,छन्न पकैया,अब तक है संभाला |
संभल कर चलना आगे है ,मुट्ठी भर अंगारा ||
................................................................
छन्न पकैया,छन्न पकैया, मुट्ठी में अंगारे |
अब तो लेंगे सभी जन दम,जब भ्रष्टाचार भागे ||
................................................................
छन्न पकैया,छन्न पकैया,मत पीयो तुम हाला |
बंद मुट्ठी में सुलगे आग , उगले धुंआ काला ||
..............................................................
छन्न पकैया,छन्न पकैया,धधकती है ज्वाला |
मुट्ठी भर अंगारों से अब ,कट जाये गा पाला||
रेखा जोशी
*******************************************
डॉ० प्राची सिंह
डमरू घनाक्षरी छंद
( ३२ लघु वर्ण बिना मात्रा के, ८,८,८,८ पर यति, समतुकांत)
प्रतियोगिता से पृथक
नफरत अनबन , जब अगन जहन ,
धधकत जल जल , तब वतन अमन l
थल बसत कहर , नभ उड़त जहर ,
सब जगह सहर , छल रमत चमन l l
अकड़न जकड़न , हर तरफ पतन ,
भयमय जन गण , कब अगन शमन ?
धर अधर शहद , कर नज़र नरम ,
सम कथन करन , तब अनल दमन l l
*********************************************
श्री लक्ष्मण प्रसाद लड़ीवाला
(सार छंद छन्न पकैया)
छन्न पकैया छन्न पकैया, चल झट ओबीओ मेला
छंद रूप कुण्डलिया मेला, अम्बरीशअलबेला खेला
छन्न पकैया छन्न पकैया,सौरभ बागी मिश्रा भेला
लक्ष्मण रविकर अरुण भी, श्रोता बन आनंद झेला
छन्न पकैया छन्न पकैया,काव्यगोष्टी घर पर देख
आग लगे इस कहावत को,पैसा फैंक तमाशा देख
छन्न पकैया छन्न पकैया,ओबीओ में आकर सीख
मारुती सा चेला बन लक्ष्मण,तपते सूरज से सीख
छन्न पकैया छन्न पकैया, मुट्ठी में है आग
जादूगर करतब दिखाता, उगल मुहं से आग |
छन्न पकैया छन्न पकैया, मुट्ठी में रख आग
अफवाह के शोले बरसाते, भर मुट्ठी में आग
छन्न पकैया छन्न पकैया, नयनों में शौले जले
क्रोधाग्नि में देखो इनके, तनबदन में आग लगे
छन्न पकैया छन्न पकैया, राम का रावण से युद्ध
प्रभु राम लेआये अग्निबाण, हुए रावण पर क्रुद्ध |
छन्न पकैया छन्न पकैया, मेरे सीने में हो आग
पढने वाले के सीने में भी,लगजाय प्यार कीआग |
*********************************************
श्री गोपाल सागर
दोहे:
गिरते हुए चरित्र हैं, नीयत में है खोट|
इक दूजे में छल भरा, तभी पतन हो चोट||
भ्रष्ट तंत्र जो मुष्टि में, सुलग रही है मुष्टि|
करें नियंत्रित चित्त को, आये ऐसी दृष्टि||
*********************************************
श्री दिलबाग विर्क
कुंडलिया
भारी पडता प्यार पर, नफरत का व्यापार
जहर भरा है सोच में, मुठ्ठी में अंगार ।
मुठ्ठी में अंगार, चाहते आग लगाना
देखो कैसी राह, चला है आज जमाना ।
लड-लड मरते लोग, सुखों को ठोकर मारी
नफरत करके विर्क, चुकाई कीमत भारी ।
_____________________________________
कुंडलिया
खतरे से डरना नहीं, लो मुठ्ठी में आग
अब लाना बदलाव है, उठे क्रांति का राग ।
उठे क्रांति का राग, बुराइयाँ दफन कर दो
बोना ऐसे बीज, फसल अच्छाई की हो ।
झोंक दो वर्तमान, भविष्य हमारा सुधरे
कल की खातिर आज, उठाने होंगे खतरे ।
*************************************************
Tags:
इस साहित्य यज्ञ में अपने अपने चित्र आधारित अनमोल छंदों की आहुतियाँ देने हेतु आप सभी साहित्यकारों का हार्दिक अभिनन्दन है | सादर
'चित्र से काव्य तक प्रतियोगिता' अंक १७ के अंतर्गत पोस्ट किया गए सभी छंदों के इस संकलन पर किसी भी ओबीओ सदस्य की प्रतिक्रिया का न आना यह इंगित कर रहा है कि संभवतः ऐसे संकलन में किसी भी सदस्य की कोई रूचि नहीं है अतः भविष्य में होने वाले अगले आयोजनों में आने वाली रचनाओं को संकलित करना क्या उचित भी होगा ???
ऐसी बात नहीं है, आदरणीय अम्बरीषभाईजी.
किसी प्रविष्टि के रचनापरक होने से पाठकों की प्रतिक्रियाओं का आप्लावन अत्यावश्यक होता है. ऐसे में प्रतिक्रियाएँ उक्त रचना के रचनाकार से संवाद बनने का कारण होती हैं. वहीं, कुछ प्रविष्टियाँ सूचनापरक अथवा घटनापरक होने के कारण पाठकों के लिये एक अनुभूति या एक स्मृति या एक साक्षी की तरह हुआ करती हैं, जो किसी सूचक-पत्थर की तरह व्यतीत काल का आकलन कराती प्रतीत होती हैं. अब, कोई पाठक यदि व्यतीत आयोजन की मात्र रचनाएँ ही देखना चाहे तो ऐसी प्रविष्टियाँ एक तरह से सनद की तरह समक्ष होती हैं.
संकलनकर्त्ता के महती प्रयास और योगदान को सभी पाठक समझते हैं और इस तरह की प्रविष्टियों पर पूर्व में खुल कर हार्दिक आभार अभिव्यक्त किया भी गया है. सभी सदस्य समझते हैं, आदरणीय, कि इसतरह का संकलन कितनी कष्टसाध्य प्रक्रिया है. हाँ, यह अवश्य है कि अनुभूत आभार मौन स्वीकृति के स्थान पर यदि शब्दों में अभिव्यक्त हो तो संकलनकर्त्ता को अपने किये प्रयास पर पार्श्वस्य (Lateral) संतुष्टि होती है.
आपके या इसतरह के आयोजन की रचनाओं के संकलनकर्ता के प्रति हृदय से आभार.
सादर
धन्यवाद आदरणीय सौरभ जी ! सादर
धन्यवाद भाई विन्ध्येश्वरी जी !
आदरणीय अम्बरीश जी
सादर प्रणाम, जैसे ही मुझे संकलन की जान कारी मिली मै इस ओर भागा. क्योंकि यह संकलन मेरे लिए बहुत ही अनमोल है कई गलतिया मै इन्हें पढ़कर सुधार पाता हूँ. आपकी अनुपस्थिति में यह मेरे लिए मृत गुरु का कार्य करते हैं.
मै जानता हूँ आपके पास समयाभाव है किन्तु कुछ ऐसी व्यवस्था हो जाए की संकलन में प्रकाशित रचनाओं में जहाँ गलती हो उसे रेखांकित कर दिया जाए ताकि कोई गलत जानकारी ले कर भर्मित ना हो.
संकलन की सकारात्मक पहल के लिए आपका हार्दिक आभार.
धन्यवाद मित्र ! आपका सुझाव उत्तम है ! इस दिशा में भी प्रयास किया जाएगा !
पुनः धन्यवाद मित्रवर
धन्यवाद आदरणीय लक्ष्मण प्रसाद जी ! ओबीओ से अनेक देशों के लोग जुड़े हैं, इस हिसाब से यह एक राष्ट्रीय स्तर का मंच होने के साथ साथ अंतर्राष्ट्रीय स्तर का मंच है |
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |