For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

ओबीओ ’चित्र से काव्य तक’ छंदोत्सव" अंक- 63 की समस्त रचनाएँ चिह्नित

सु्धीजनो !

दिनांक 16 जुलाई  2016 को सम्पन्न हुए "ओबीओ चित्र से काव्य तक छंदोत्सव" अंक - 63 की समस्त प्रविष्टियाँ 
संकलित कर ली गयी हैं.





इस बार प्रस्तुतियों के लिए दो छन्दों का चयन किया गया था, वे थे दोहा और कुकुभ छन्द.



वैधानिक रूप से अशुद्ध पदों को लाल रंग से तथा अक्षरी (हिज्जे) अथवा व्याकरण के अनुसार अशुद्ध पद को हरे रंग से चिह्नित किया गया है.

यथासम्भव ध्यान रखा गया है कि इस आयोजन के सभी प्रतिभागियों की समस्त रचनाएँ प्रस्तुत हो सकें. फिर भी भूलवश किन्हीं प्रतिभागी की कोई रचना संकलित होने से रह गयी हो, वह अवश्य सूचित करे.

सादर
सौरभ पाण्डेय
संचालक - ओबीओ चित्र से काव्य तक छंदोत्सव, ओबीओ
********************************************************

१. आदरणीया राजेश कुमारीजी
दोहे
सावन की अठखेलियाँ,निर्धन को न सुहाय|
थोड़ी सी बरसात में ,घर में पानी आय||

बिजली बादल देख के, होता मन बेचैन|
टूट गई खपरैल है, कैसे आये चैन||

टप-टप टपरी चू रही,दिवस कटे ना  रात|
इंतजाम करलें अभी ,रुकी हुई बरसात||

दूर नगर से आ रहे ,मेहमान कुछ आज|
कर लें जल्दी ठीक छत ,बच जायेगी लाज||

 

मौसम ने धुलवा दिया, है रंजिश का मैल|
मिलकर भाई जोड़ते, अब टूटी खपरैल||

लटक रहे पीछे वहीँ, कुछ  बिजली के तार|
खतरे में है जिन्दगी, लेकिन हैं लाचार||

ध्यान मग्न हो कर रहे ,बातें कुछ गंभीर|
दोनों भाई  बाँटते, इक दूजे की पीर||

महलों वाले खा रहे ,चाट पकौड़े खीर|
चौमासे की थाप पर, काँपे रंक फ़कीर||

द्वीतीय प्रस्तुति

कुकुभ छंद
कच्ची पक्की सड़कें हों या , कोई छत या अलमारी 
करनी पड़ती चौमासे की, सब ग्रामों में तैयारी||
कहीं टपकती छत तो चीजें ,इधर- उधर खिसकाते|
धूप तनिक निकले तो बिस्तर, खटियों पर सब फैलाते

टूटी है खपरैल बड़े की ,छोटे को करुणा आई|
छत की जाकर करें मरम्मत , दोनों मिलजुल कर भाई||
दूरी है रिश्तों में घर पर , कभी नहीं आते जाते|
कोई विपदा आन पड़े तो , भूल सभी कुछ मिल जाते ||

अब भी दिखती है ग्रामों में ,प्रेम भाव से खुश हाली| 
शहरों में तो द्वेष जलन की,बदरी छाई  बस  काली|| 
आज मदद तू उसकी करले ,तभी करेगा वह तेरी|
इक दूजे का हाथ बटाओ,कहता चित्र सुनो मेरी||

(संशोधित)
*********************
२. आदरणीय अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव जी
दोहा छन्द
=======
छप्पर छाते प्रात से, घर घर में मजदूर।
मिर्च भात औ’ प्याज से, भरें पेट भरपूर॥

खपरे सब रंगीन हैं, सुंदर लगे कतार।
मानो शाला ड्रेस में, बच्चे खड़े हजार॥

काम करो तो होश में, जोश बने ना काल।
ऊपर खतरा जान का, तारों का है जाल॥

दोनों सच्चे मित्र की, छोटी छोटी आस।
खुश रहते हर हाल में, ईश्वर पर विश्वास॥

छप्पर छप्पर कूदकर, बंदर करे कमाल।
पैसे जब जादा मिले, खाते सब्जी दाल॥

 

बूँद बूँद चहुँ ओर से, छप्पर रोया रात।
खटिया खिसकाते रहे, फिर भी बनी न बात॥

कच्चे खपरे सा बदन, रखना खूब सँभाल।
मानव मरकट रूप है, हर दिन करे धमाल॥

द्वितीय प्रस्तुति ..... कुकुभ छन्द
========================

यहाँ वहाँ फिरता है बादल, अपनी धुन में रहता है।                                                               

जहाँ जरूरत नहीं बरसता,  मनमानी वो करता है॥

गाँव गाँव की धरती प्यासी, और मेघ मतवाला है।

आ जाओ अब काले बादल, सावन आने वाला है॥


घन बरसो धूम धड़ाके से, हम सब हैं आस लगाये।
हर घर में छप्पर छाने का, काम हमें ही मिल जाये॥
बीत गया है पूरा जीवन, बारिश में छप्पर छाते।
मित्र पुराने धनुवा बलुवा, काम करें आल्हा गाते॥

छप्पर छप्पर बंदर कूदे, बच्चों का मन बहलाये।
ब्याह रचाऊँ बिटिया का जब, पैसे जादा मिल जाये॥
नीचे ऊपर आजू बाजू , खपरे खूब सजाते हैं।
तेज बहुत बारिश हो लेकिन, बूँद टपक ना पाते हैं॥

 

बारिश का मौसम आते ही, खुशियाँ दूनी हो जाये।

सुखी सभी मजदूर कृषक हों, दिन त्योहारों के आये॥  

फूले फलें और शिक्षित हों , चौकस जवान हो जाये।

यह देश रहे खुशहाल सदा, दुश्मन ना आँख दिखाये॥

(संशोधित)

**************************
३. आदरणीया प्रतिभा पाण्डेय जी
कुकुभ छंद

छत पर चढ़ खपरैल मरम्मत, करें यहाँ पर दो भाई
वर्षा के आने से पहले ,कुछ तो हो ले जुड़वाई
सपनों में दोनों के बसता ,घर इक पक्की छत वाला
कर्ज महाजन का धमका कर, जोड़े सपनों पर ताला

इक दूजे का हाथ बँटाते, दिखती है गहरी यारी
बचपन के साथी मिल बाँटें ,दुख जो भी दिल पर भारी 
कहाँ कहाँ पैबंद लगाएँ ,जीवन कच्चे घर जैसा
दुख घुस आते खुल्लम खुल्ला , हो गरीब से डर कैसा .... (संशोधित)

 
दोहा छंद

कच्चा घर खपरैल का ,छत पर चढ़ दो यार I
टूट फूट को जोड़ते ,वर्षा है अब द्वार II

पक्की छत बन जायगी ,जोड़ रक़म इस सालI
उम्र कटी इस आस में ,घर जर्जर बेहाल II

जीवन की तस्वीर से ,उड़े हुए सब रंग I
किससे जा शिकवा करें ,लड़ते अपनी जंगII

पक्का घर हर एक को ,बड़ी बड़ी थी बात I
सभी उजाले उस तरफ ,इनके हिस्से रात II

पीछे है तस्वीर में ,बिजली का इक पोलI
हर जन तक पहुँचे नहीं ,उस विकास में झोलII
*******************
४. आदरणीय सतविन्द्र कुमारजी
मुक्तक(आधार :कुकुभ छंद)
===============
मन भावन जीवन जीने को काम करे यह मतवाला
संग सहायक लगा हुआ है दोनों ने छप्पर डाला
संघर्षों से हुए मुनासिब जिसने भी जो सुख पाए
यही सोच कर आज लगा है मजदूरी करनेवाला।

धूप-ताप को सहकर जो भी काम सभी कर जाता है
वह अपने जीवन को देखो अच्छे से जी जाता है
नजर चुराए जो मिहनत से जीना है उसका ऐसा
हर छोटी ठोकर पर टूटा कब सम्भल वह पाता है?

काठ-बाँस को जोड़-जोड़ कर छत्ता नया बना डाला
काम करे और पूण्य भोगे जो है छत देने वाला
नर-प्राणी का रैन-बसेरा बन जाता है फिर यह तो
आश्रय पाकर खुश हो जाता आ इसमें रहने वाला।

दूसरी प्रस्तुति
नवगीत (आधार:दोहा छंद)
==============
श्रम साधना से बजे,जीवन का संगीत
चल ये मन में धार के,हो मेरे मनमीत

बूँद-बूँद रिसकर गिरे,जो हो टूटी छात
बिन रोके रुकती नहीं,आज मानले बात
बाँस-फूँस ही काटकर,ढक दे खाली भीत।

काम करें जीवन चले,है जीवन अनमोल
पर तू अपने काम से,कभी उसे ना तोल
मग्न रहा हर काम में,रख जीवन से प्रीत।

आगे बढ़ते जब चलें,इक साथी हो संग
कर्म करें फिर साथ में,यह जीने का ढंग।
सच्चा साथी साथ हो,बने हार भी जीत।
***********************
५. आदरणीय कालीपद प्रसाद मण्डल जी
दोहा छन्द
=======

पक्की छत चूती नहीं, न टूटती हर साल

चूती छत खपरैल की, मसला है विकराल |

कच्चे घर हैं गाँव के, कच्चे है सब छाद
कठिनाई बरसात की, सबको रहती याद |

चूता पानी छाद से, हरदम तंग किसान
किया नहीं कुछ आज भी, इसके हित विज्ञान

रात रात भर जागते, जब बारिश घन घोर
बिजली ना बाती कहीं, जल है चारो ओर |

स्वार्थ छोड़ सोचो ज़रा, ओ भारत संतान
कठोर श्रम से देश को, करते खाना दान |

कुकुभ छंद ---एक प्रयास (द्वीतीय रचना)
===========================
गरमी की तपती दोपहरी, बीत गयी है अब भाया
कही धूप,कहीं बादल अभी, धरती की है यह माया |
वैशाख गया आषाढ़ गया, श्रवण भाद्र आने वाले
सभी सोचकर चिन्तित होते, जो हैं कच्चे घर वाले

वर्षा ऋतु में खपरैल छतें, हरदम टप टप टपकाते
गीले कपडे, गीले बिस्तर, दुख लोगो के बढ़ जाते
मरम्मत कर रहे हैं छत की, अब मिलकर दोनों भाई
होता जो नुकसान बाढ़ में, होती कभी न भरपाई

बारिश के आते ही बच्चे, उन्मत्त नाचते गाते

किसान खेत में हल चलाते, हवा से धान लहराते

टूटे खपरे टूटे ढाँचें, सबके सब है बदलाना

सावधान हो इस सावन में, कुछ बिलकुल नहीं भिगाना

(संशोधित)
****************
६. आदरणीय गिरिराज भंडारी जी
सात दोहे
=======
आज दे रहा साथ मैं , कल तू देना साथ
राह बने मंज़िल अगर, मिले हाथ को हाथ

टूटे ना खपरैल सुन , रखना ज़रा खयाल
जिनके सर पर छत नहीं, वो फिरते बदहाल

छत ही छत को जानती, नही जानती भीत
रक्षक को भी भूलना , क्या अच्छी है रीत

खपरैली छप्पर सजे, अब सावन है पास 
वातावरण बिगाड़ के, है वर्षा की आस

सावन की आहट हुई, बढ़ी मिलन की प्यास
मेघों से कह जा उधर, करा उन्हें अहसास

अति वर्जित है हर जगह, धार न मूसल होय
बाढ़ बनी, बारिश अगर, सावन आँसू रोय

घर में थीं खुशियाँ बहुत, जब तक थी खपरैल
सीमेंटी छत तो लगी , आदत से गुस्सैल
***************************************
७. आदरणीय तस्दीक अहमद खान जी
(1 ) कुकुभ छन्द
============
दो मज़दूर पेट की खातिर ,मज़दूरी करने आए ।
सोच रहे हैं जल्दी जल्दी ,खपरों की छत बन जाए ।
काम ख़त्म करके मंडी से ,आटा सब्ज़ी लाएंगे ।
उसके बाद घरों को अपने ,यह बेचारे जाएंगे ।

माना खपरों की इस छत को ,केवल है आज बनाना । 
बिजली के तारों से खुद को ,देखो है हमें बचाना । 
काम बड़ी मेहनत का है यह , मिल जुल कर साथ निभाना । 
एक दूसरे के हाथों में , खपरों को है पहुंचाना ।

(संशोधित्)

दोहा छन्द
=======
खपरों की छत डालना ,कब बच्चों का खेल ।
इसी लिए मज़दूर दो ,बना रहे खपरेल ।

काम किये जा यार तू ,कर मत अब आराम ।
रोज़ाना मिलता नहीं ,मज़दूरी का काम ।

धुन में अपने काम की ,नहीं भूलना यार ।
छत के ऊपर जा रहे ,कुछ बिजली के तार ।

खपरों को चुन जल्द से ,मत कर तू बकवास ।
शाम हुई जाना नहीं ,क्या बच्चों के पास ।

घर की ग़ुरबत ने किया ,जब बेहद मजबूर ।
मज़दूरी करने लगे ,मेहनतकश मज़दूर ।

पहले पूरा काम कर ,फिर कर कोई बात ।
नहीं पता है क्या तुझे ,है सर पर बरसात ।

बहे पसीना जिस्म से ,होटों पर है प्यास।
मज़दूरों को सिर्फ है ,मज़दूरी की आस ।

पेट अगर देता नहीं ,मानव को भगवान।
ज़िल्लत ,ताने ,मुश्किलें ,क्यों सहता इन्सान।
****************************
८. आदरणीय रविकर जी
प्रथम प्रस्तुति
दोहे
===
जेठ जुल्म करके गया, आगे ठाढ़ असाढ़ |
मानसून आता दिखे, आ जाए ना बाढ़ ||

यूँ ही गर गरमी रमी, थमी नहीं तत्काल |
होंय काल-कवलित कई, हे प्रभु तनिक सँभाल ||

खपरैली छत उड़ गई, गुजर गया तूफान |
चलो बना ले छत पुनः, भूल-भाल नुक्सान ||

छोटी सी यह झोपड़ी, बड़े-बड़े अरमान |
पढ़ें-लिखें बच्चे बढ़ें, हो जीवन आसान ||

छिति-जल-पावक ने किया, खपरा नया तयार |
मगन गगन है देख के, खुश है मंद-बयार ||

खपरे होते एकजुट, करें व्यूह तैयार |
करते दो दो हाथ फिर, क्या मौसम की मार ||

द्वितीय प्रस्तुति
कुकुभ छन्द
========
हरा पेड़ जो रहा खड़ा तो, गरमी हरा नहीं पाई |
गड़ा पड़ा बिजली का खम्भा, बिजली किन्तु कहाँ आई |
चला बवंडर मचा तहलका, रहा बड़ा ही दुखदाई |
उड़ी मढ़ैया रविकर भैया, विपदा साथ खींच लाई ||

गया जेठ तो दोनों भैया, साथ साथ घर आया है |
बहना घर में रहे अकेली, बादल दल भी छाया है |
किया इकट्ठा नरिया-थपुआ, बाँस फाँस सरियाया है |
इसीलिए आपातकाल सा, झटपट छत बनवाया है ||

तृतीय प्रस्तुति
कुकुभ छंद

आसमान थाली समान जब, साफ गरीबी ने देखा।
माथे पर फिर खिंची हुई क्यों, हे रविकर चिंता रेखा।
हुई दुपहरी गर्मी भारी, नीचे तनिक उतर आओ।
माना बिजुली नहीं आ रही, पेड़ तले ही सुस्ताओ।।

ना चिड़िया की ची ची सुनते, न कोई पशु ही आया।
लू के तेज थपेड़ों ने तो, पेड़ों को भी तड़पाया।
अम्बिया की चटनी दो रोटी, खाकर थोडा सुस्ताओ।
चार बजे के बाद दुबारा, बचा काम फिर निपटाओ।।
*********************
९. आदरणीय सुलभ अग्निहोत्री जी
दोहे
===
सावन दरवाजे खड़ा, टूट गयी खपरैल।
री बुधिया ! तू देख ले, चारा, गोरू, बैल।

रोके रख बरसात को, एक रोज भगवान।
बह जाएगा अन्यथा, घर का सब सामान।

कल से बरसो झूम कर, ओ ! बादल महराज।
कट जायें कंटक सभी, बन जायें सब काज।

ताड़ सरीखी बढ़ रहीं, बिटियाँ सालों-साल।
आँगन की रौनक बनीं अब जी का जंजाल।

अबकी ऐसा धान हो, भर जायें कोठार।
पीले कर दें हाथ जो, बड़की के इस बार।

ककुआ पीछे देख के, खपड़ी पे हैं तार।
बिजुरी घर माफी नहीं, रक्खे नहीं उधार।

द्वितीय प्रस्तुति
==========
पिता -
बरखा ने खटका दी कुण्डी, आ जा चल देखें छपरा।
चल कर दद्दू जोप-थोप लें कुटी-मड़ैया, छत-खपरा।
तार तने ये सर के ऊपर प्राण खींच लें छूते ही।
लेकिन इनसे बिजली वाले लट्टू जलते नहीं कभी।

बेटी -
दैया बापू क्या करते हो, पाटे देते हो छत्ती !
कैसे झांकेगा अब चंदा ख्याल नहीं तुमको रत्ती ?
निशिकर इससे रात-रात भर करता है मुझसे बातें।
लाता है वह सस्मित सपनों की सुरभित शुभ सौगातें।

माता
कच्ची दीवारें क्या तेरा बाप रखायेगा नठिया ?
जाकर चूल्हे पर अधान धर बैठी तोड़ रही खटिया।
बह जायेंगे बरतन-भाँड़े, तेरा क्रीम-पाउडर भी।
सड़ जायेंगे कपड़े-लत्ते, नाज-बखारी औ कथरी।
*******************
१०. आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव
दोहा छन्द
=======
दीख्र रहा है सामने एक विहंगम चित्र
मन कुछ कहना चाहता इस विधान पर मित्र

सावन का संगीत अब गया चतुर्दिक फ़ैल
आवश्यक है इसलिये सम करना खपरैल

श्रमजीवी संलग्न दो मिल करते उपचार
टपके पावस मेंनही अपनी छत इस बार

सफल मनोरथ है वही वही रहा है जाग
कुआँ खोदता है नहीं जो लगने पर आग

झाँक रहे है पार्श्व से तरुवर के कुछ पात
प्रकृति पहरुआ है सदा सब दिन सारी रात

काल-कर्म की गति विरल मनुज रहा है भोग
जीवन यापन के लिए आवश्यक उद्योग

जीवन में सुख शांति की है यदि उत्कट चाह
करना होगा रोम से अविरल सलिल प्रवाह

सिखा रहा है श्रमिक द्वय का सारा व्यापार
श्रम ही है इस जगत में जीवन का आधार

सधे हुए हैं पास में कुछ बिजली के तार
उजियारा देता नही सम सबको करतार
***********************
११. आदरणीय सचिनदेव जी
दोहा-छंद
======
लकड़ी का टट्टर बना, उस पर दो मजदूर
लगता है इस काम में, हैं दोनों मशहूर

खुला हुआ बादल अभी, करते जल्दी काम
शुरू हुई बारिश अगर, होगी नींद हराम

कूड़ा करकट साथ में, जमी हुई है मैल
हो जायेगी साफ़ तो, चमक उठे खपरैल

गर्मी का मौसम गया, अब आई बरसात
छप्पर से पानी गिरे, कट ना पाये रात

मिटटी की दीवार पर, घास-पूस कुछ बांस
फिर ऊपर खपरैल रख, रहे न बाकी सांस

सिर के पीछे दिख रहे, बिजली के कुछ तार
गलती से छू ले अगर, होगा बंटाधार

मौसम का इंसान से, रिश्ता बड़ा अजीब
पैसे वाला ले मजा, चिंता करे गरीब

मीठी-मीठी नींद में, पलते स्वप्न हजार
नीचे छप्पर के बसे, इक पूरा संसार
***************
१२. आदरणीय सुधेन्दु ओझा जी
दोहा गीत
======
रुत पावस की आगई,
गहे पवन का हाथ।
थूनी-छप्पर भी उड़े,
पाकर अदभुत साथ॥

रुत है बहुत सुहानी
बरसता झम-झम पानी

बूँद-बूँद जो गिर रही,
बरखा रात-बिरात।

मुइ माटी की भीत भी,
कर गइ भीतर-घात॥

घर-घर में नई कहानी
हुए घर पानी-पानी

गीली-सीली भीत भइ,
अर-र-र र-र-र धड़ाम।
ताल-तलैया सा भया,
बुधीराम का धाम॥

डूबते नाना और नानी
पुलकित है नई जवानी

ज्यों बानर घुस बाटिका,
करें अजब से खेल।
पवन-जलद के मेल से,
धूसरि भइ खपरैल॥

झूलें हैं राजा और रानी
झेलें सब निरधन प्रानी

नीड़ का निरमान फिर,
बुधीराम लाचार।
सहयोगी जन को करें,
शत-शत वह आभार॥

हरिबंस की यही जबानी
रहे चलती जिनगानी
****************
१३. सौरभ पाण्डेय
पाँच दोहे
=======
सादा जीवन गाँव का, हर मौसम से नेह
स्वागत है बरसात का, करें व्यवस्थित गेह

आयी ऋतु बरसात की, ले चौमासी रंग
नरिया-थपुआ साधिये, यही सुरक्षा ढंग

भाई छप्पर साजिये, साझें खपड़ा-पाँत
और रखें परिवार को, गौरैय्या की भाँत

बेटा शहरी हो गया, बाँधे महल-अटार
इधर लसरते रोज हम, सह मौसम की मार

सर्दी गर्मी बारिशें, और किसानी कर्म
प्रकृति सुलभ जीवन सहज, निभे मानवी धर्म
***************
१४. आदरणीय सुरेश कुमार कल्याण जी
एक प्रयास (कुकुभ छन्द)
===============
छत करती मेरी टपर-टपर, नई खपरैल है लानी।
सबसे सुन्दर इसे बनाऊँ, बन्द हो जाए ये पानी।
मिलता सबको यहाँ आसरा, वो खुदा नहीं बेगाना।
मेल जोल से रफ्ता-रफ्ता, बनेगा ये आशियाना।

चौमासे की झड़ी आ गई, बादल से जल बरसेगा।
धनवानों की नींद उड़ेगी, निर्धन फिर ना तरसेगा।
महल नहीं है मेरा ऊँचा, कुटीर पे आस हमारी।
महलों में अभिमान बसे हैं, इसमें बसते बनवारी।

दीवारों पे अटकी है छत, छत में साँसें हमारी।  
मिलकर इसकी मरम्मत करें, बरसन पहले पनिहारी।
अब लौटेंगी राग बहारें, झूम उठेगा जग सारा।
सूखे तड़ाग भर जाएंगे, छलकेगी निर्मल धारा।

द्वितीय प्रस्तुति
दोहा छन्द
========
अस्थि चमड़ी सूख चली, नग्न हमारे पैर।
सर पे छत भी ना रही, कौन जन्म का बैर। (1)

टपर-टपर के खेल में, बीती सारी रात।
छत का बंदोबस्त हो, हो आया प्रभात। (2)

बरखा आई छत गिरी, जर्जर हुआ मकान।
खपरैलों को जाँच के, फिर से डालें जान(3)

टूटी टपरी देखके, मनुवा भया उदास।
टूटी की मरमत करो, ठीक होन की आस। (4)

सावन ये पगला गया, हमें किया बर्बाद।
मिल जाएं दो यार तो, रह जाएं नाबाद ।(5)

महलों में अभिमान है, टपरी है खुशहाल।
अभिमानी कंगाल है, निर्धन मालामाल। (6)

(संशोधित)
****************************
१५. आदरणीया नयना(आरती)कानिटकर जी
दोहे
====
चीटी रेला चढ रहा, घर की ये मुंडेर
पावस आना तय हुआ, करके देर सवेर--१

पावस की रुत आ गई, करना छत तैयार
बच्चों बूढों के लिए, करके जतन हजार--२

छत पर बैठा है भोलू, टपरा है खपरैल
छाना कवेलू लेन मे, उसके हाथो मैल--३

अपने मकान के लिए , डेरा छत पर डाल
हाथ ऐसे है लगे ,भूखे पेट बेहाल---४

छाने से पहले घटा , छज्जा ले आकार
ले हल चला खेतो मे, बोनी को तैयार -५
************************
१६. आदरणीय सतीश मापत्तपुरी जी
कुकुभ छन्द
========
यह तो अपना राजमहल है ,हम ही इसके हैं राजा .
ना घोड़ा ना हाथी - सेना , ना गाजा है ना बाजा .
दिन भर जम कर मिहनत करते ,दो जुन की लाते रोटी .
रात में उनको नींद न आये ,जिनकी नीयत हो खोटी .

नरिया - खपड़ा का घर अपना ,पर हम हैं मन के दानी .
हम गरीब पर मैल नहीं है , जीवन जस निर्मल पानी .
रोग- वैद्य से नहीं है रिश्ता ,औषधि से नहीं है नाता .
शीश तान कर शान से रहते , सादा जीवन ही भाता .
**********************
१७. आदरणीय अरुण कुमार निगम जी
दोहा छन्द
=======
लुप्त निरंतर हो रहे, मिट्टी के खपरैल
अब फिर से पाषाण युग,घर मानव द्वय शैल ।

चैत्र और बैशाख में, होते थे ये काम
बोनी पहले बोहनी,मिलते थे कुछ दाम ।

श्रम विलोक घन पावसी, बरसाते थे नीर
कंकरीट को देख घन, होते नहीं अधीर ।

रोजगार को तरसते,अब कलुआ-बुधराम
पहले पावस पूर्व ही, मिल जाते थे काम ।

देख कवेलू गाँव की, बरबस आई याद
मिट्टी का घर-आंगना,आँगन के आल्हाद ।
***********************
१८. आदरणीय अशोक कुमार रक्ताले जी
कुकुभ छंद

छत पर आकर बैठे साथी , चिंताओं ने तब घेरा |
दिखा गगन पर दिन-दिन बढ़ता, जलवाहों का जब फेरा,
खपरैलों को लगे जमाने, छप्पर है तो आशा है,
वरना तो माने हर निर्धन, चारों ओर निराशा है ||

लिए कवेलू बैठे आगे, पीछे है लटपट डोरी |

जहाँ गाँव में बिजली आयी , सीखे सब सज्जन चोरी,
दिनभर चलता है अब टीवी, बनती हीटर पर रोटी,
दृश्य गाँव का कहता फिरभी  , इनकी है किस्मत खोटी || .. .. . . (संशोधित)

दोहे (द्वितीय प्रस्तुति)

गाँवों में अब घर हुए, कितने आलीशान |
मगर कहाँ सबको मिला, है ऐसा वरदान ||

अब भी जुतते खेत जब, लल्लू बनता बैल |
भरता सबका पेट वह , या चढ़कर खपरैल ||

चित्र हमें दिखला रहा, श्रम करते मजदूर |
या छत पर वानर बनें , बैठे दो मजबूर ||

खुला गगन है आज तो, झटपट कर लें काम |
पायेंगे कल्लू तभी, बारिश भर आराम ||

हरे वृक्ष की छाँव भी , है बस थोड़ी दूर |
मजदूरों की ही तरह, लगती वह मजबूर ||

तारों का जाला बना, बिलकुल घर के पास |
जिससे रहती है सदा , मजदूरों को आस ||

खप्पर जमनें दे अभी, फिर आना बरसात |
नहीं दिखाना है तुझे , भीतर के हालात ||
************************

Views: 5406

Replies to This Discussion

आदरणीय 

दुख लोगो ने - के बदले  "दुख लोगों के बढ़ जाते " कर दे 

ढांचा को" ढाँचे"  करें 

सादर 

आदरणीय कालीपद जी, आपके ऊपर दिये सुझावों में अभी और अशुद्धियाँ हैं. मैं एक-एक कर उन पर आऊँगा. 

आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी ,सादर नमस्कार |आपको हार्दिक धन्यवाद, आपने विस्तार से समझाया तो पूरी बात समझ में आ गयी | यथास्थान पर सुधार कर दुबारा भेज रहा हूँ | संकलन में वैसा ही सुधार कर देने की कृपा करें    सादर

कालीपद ‘प्रसाद’

सुधार : प्रथम दोहा: पक्की छत चूती नहीं, न टूटती हर साल

                 चूती छत खपरैल की, मसला है विकराल |

      दूसरा दोहा : पहला पद : कच्चे घर हैं गाँव के, कच्चे है सब छाद

     तीसरा दोहा –दूसरा पद : किया नहीं कुछ आज भी, इसके हित विज्ञानं

     चौथ दोहा –पहला पद में वारिश के बदले –बारिश कर दें

कुकुभ छन्द :

प्रथम पद : गरमी की तपती दोपहरी, बीत गयी है अब भाया

चौथ पद : सभी सोचकर चिन्तित होते, जो हैं कच्चे घर वाले

पांचवाँ पद : वर्षा ऋतू में खपरैल छतें, हरदम टप टप टपकाते

छठवाँ पद : गीले कपडे, गीले बिस्तर, दुख लोगो के बढ़ जाते

आठवा पद दूसरा चरण :होती कभी न भरपाई

नवां- से बारहवाँ पद:

बारिश के आते ही बच्चे, उन्मत्त नाचते गाते

किसान खेत में हल चलाते, हवा से धान लहराते

टूटे खपरे टूटे ढाँचें, सबके सब है बदलाना

सावधान हो इस सावन में, कुछ बिलकुल नहीं भिगाना |

पक्की छत चूती नहीं, न टूटती हर साल  .. 

पक्की छत चूती नहीं, ना टूटे हर साल .. 

उपर्युक्त दोनों में से किस पंक्ति को पढ़ने में अधिक प्रवाह बन रहा है आदरणीय कालीपद जी. 

आपकी प्रस्तुति संशोधित हो गयी. 

सादर

आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी  छंदोत्सव के दौरान आदरणीय अखिलेश जी व् आदरणीया राजेश जी ने ' दुःख '  को  दुख लिखने की सलाह दी थी क्यों कि ' दुःख ' में मात्रा बढ़ जाती है  पर  आपने उन पंक्तियों को लाल नहीं किया है I  दूसरे कुकुभ  छंद में  कृपया इस प्रकार  संशोधन करने का कष्ट करें ..  सादर 

.इक दूजे का हाथ बँटाते, दिखती है गहरी यारी
बचपन के साथी मिल बाँटें ,दुख जो भी दिल पर भारी 
कहाँ कहाँ पैबंद लगाएँ ,जीवन कच्चे घर जैसा
दुख घुस आते खुल्लम खुल्ला , हो गरीब से डर कैसा 

  

आदरणीया प्रतिभाजी, आपने छूट गयी पंक्ति को ओर इशारा किया है, आपका सादर धन्यवाद. यह भूलवश ही हुआ है और ऐसा होना असंभव नहीं है. 

यह सही है कि दुःख की कुल मात्रा तीन होगी और दुख की दो. 

आपकी संशोधित पंक्तियाँ पेस्ट कर दी गयी हैं. 

सादर

श्रद्धेय सौरभ पांडे जी सर छन्दोत्सव के सफल संचालन के लिए हार्दिक बधाई एवं त्वरित संकलन प्रस्तुति के लिए सादर आभार । आदरणीय कुकुभ छन्द आधारित दूसरा बन्द एवं तीसरा बन्द परिष्कृत करने का प्रयास इस प्रकार है कृपया इन्हें यथोचित प्रतिस्थापित कर कृतार्थ करें:-

बन्द-2

चौमासे की झड़ी आ गई, बादल से जल बरसेगा।
धनवानों की नींद उड़ेगी, निर्धन फिर ना तरसेगा।
महल नहीं है मेरा ऊँचा, कुटीर पे आस हमारी।
महलों में अभिमान बसे हैं, इसमें बसते बनवारी।

बन्द-3 की प्रथम दो पंक्तियाँ

दीवारों पे अटकी है छत, छत में साँसें हमारी।
मिलकर इसकी मरम्मत करें, बरसन पहले पनिहारी।

श्रद्धेय इसी प्रकार दोहा छन्द में परिष्कृत करने का प्रयास भी निवेदित है:-

दोहा-1

अस्थि चमड़ी सूख चली, नग्न हमारे पैर।
सर पे छत भी ना रही, कौन जन्म का बैर।

दोहा-3 के तीसरा व चौथा चरण

खपरैलों को जाँच के, फिर से डालें जान।

दोहा-5 के तीसरा व चौथा चरण

मिल जाएं दो यार तो, रह जाएं नाबाद ।

सादर।

आदरणीय सुरेश कल्याण जी, कहते है न .. करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान .. 

 

आपकी संलग्नता और अभ्यास से कई पहलू आपके लिए खुल कर साफ हुए हैं. वैसे अब भी कई विन्दु हैं जिन पर ध्यान करने की आवश्यकता है. लेकिन उन पर धीरे-धीरे आप अपने अभ्यास से सहज होते जायेंगे.

फिलहाल मैं आपके बताये संशोधनों को स्वीकार कर ले रहा हूँ. 

 

एक बात आप अवश्य जानें, कि लावणी या कुकुभ या ताटंक छन्द ही नहीं जिस किसी छन्द के चरणों या पदों का समापन समकलों से हो उनका पदान्त या चरणान्त त्रिकल से नह करना चाहिए. चाहे यह बात लिखी गयी है या नहीं. जैसे कुकुभ छन्द के पदों (पंक्तियों) का समापन दो गुरुओं से होना तय है. लेकिन प्रथम चरण केलिए कुछ विशेष नहीं कहा गया है तो प्रथम चरण को भी समकल शब्दों से ही  समाप्त करने की कोशिश होनी चाहिए. यह किसी छन्द के लिए सही है. हम सीख रहे हैं तो हम इस विन्दु का ध्यान अवश्य रखें. 

 

उदाहरण के लिए - चौमासे की झड़ी आ गई, बादल से जल बरसेगा.. .. 

 

देखिये विषम चरण में ’आ गई’ होने से गई का त्रिकल आ रहा है. आप कहेंगे कि प्रवाह तो नहीं टूट रहा है. तो उत्तर होगा, पदान्त दो गुरु होन्बे से शुद्ध समकल है तो पंक्ति की गेयता समकल के हिसाब से नियत होगी. 

 

दूसरी बात दोहा को लेकर .. 

 

आप विषम और सम चरण के शब्दकलों के दिये गये सूत्र के हिसाब से ही शब्दों का संयोजन करें.   

 

उदाहरण केलिए - 

अस्थि चमड़ी सूख चली, नग्न हमारे पैर 

 

इस पंक्ति के विषम चरण को लीजिये - अस्थि चमड़ी सूख चली,

 

अस्थि के त्रिकल होने से शब्दकल का सूत्र होगा - ३, ३, २, ३, २ क्या आपकी पंक्ति का विषम चरण इस सूत्र को संतुष्ट कर रहा है ? 

अस्थि (३) चमड़ी (४) सूख (३) चली (३) 

 

अर्थात, उत्तर होगा नहीं. लेकिन पंक्ति की कुल मात्रा १३ है. इस तरह, मात्र १३ मात्राओं के विषम चरण होने से या ११ मात्राओं के सम चरण के होने से दोहे की पंक्तियाँ नहीं बन जातीं. 

 

विश्वास है, आपको मेरा कहा हुआ स्पष्ट हो रहा होगा.

शुभेच्छाएँ 

बहुत बहुत धन्यवाद श्रीमान सौरभ पाण्डेय जी आपने बहुत ही महत्वपूर्ण जानकारी देकर कृतार्थ किया। मैं आगे आपकी बताई बातों का ध्यान रखने की पूरी कोशिश करूँगा।हार्दिक आभार।

 आ.सौरभ सर प्रणाम, अपनी प्रस्तुती मे सुधर की कोशिश की है. दोहा क्रमांक ३- ४- व ५ को उचित लगे तो  निचे प्रस्तुत संशोधन  अनुसार करने का कष्ट करे,

ऊपर चढ बैठा भोलू,  टपरा है खपरैल

छाना कवेलू लेन से, उसके हाथो मैल--३

वर्षा बचाव के लिए , डेरा छत पर डाल

दोनो कामो से लगे  ,भूखे पेट बेहाल---४

छाने से पहले घटा , छज्जा ले आकार

खेतो मे ले हल चला , बोनी को तैयार --५

 मौलिक व  अप्रकाशित

 

RSS

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

Euphonic Amit replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-173
"आदरणीय Richa Yadav जी आदाब  ग़ज़ल के अच्छे प्रयास पर बधाई स्वीकार करें  2122 2122 2122…"
45 minutes ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-173
"2122 2122 2122 212 हंस उड़ने पर भला तन बोल क्या रह जाएगाआदमी के बाद उस का बस कहा रह जाएगा।१।*दोष…"
1 hour ago
Richa Yadav replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-173
"नमन मंच 2122 2122 2122 212 जो जहाँ होगा वहीं पर वो खड़ा रह जाएगा ज़श्न ऐसा होगा सबका मुँह खुला रह…"
2 hours ago
Admin posted a discussion

"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-115

आदरणीय साथियो,सादर नमन।."ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-116 में आप सभी का हार्दिक स्वागत है।"ओबीओ…See More
5 hours ago
Sushil Sarna commented on रामबली गुप्ता's blog post कुंडलिया छंद
"आदरणीय रामबली जी बहुत ही उत्तम और सार्थक कुंडलिया का सृजन हुआ है ।हार्दिक बधाई सर"
yesterday
Ashok Kumar Raktale replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
" जी ! सही कहा है आपने. सादर प्रणाम. "
Sunday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय अशोक भाईजी, एक ही छंद में चित्र उभर कर शाब्दिक हुआ है। शिल्प और भाव का सुंदर संयोजन हुआ है।…"
Sunday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"आ. भाई अशोक जी, सादर अभिवादन। रचना पर उपस्थिति स्नेह और मार्गदर्शन के लिए बहुत बहुत…"
Sunday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"अवश्य, आदरणीय अशोक भाई साहब।  31 वर्णों की व्यवस्था और पदांत का लघु-गुरू होना मनहरण की…"
Sunday
Ashok Kumar Raktale replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय भाई लक्षमण धामी जी सादर, आपने रचना संशोधित कर पुनः पोस्ट की है, किन्तु आपने घनाक्षरी की…"
Sunday
Ashok Kumar Raktale replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"मनहरण घनाक्षरी   नन्हें-नन्हें बच्चों के न हाथों में किताब और, पीठ पर शाला वाले, झोले का न भार…"
Sunday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"आ. भाई सौरभ जी, सादर अभिवादन। रचना पर उपस्थिति व स्नेहाशीष के लिए आभार। जल्दबाजी में त्रुटिपूर्ण…"
Sunday

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service