दिनांक 18 मार्च 2017 को सम्पन्न हुए "ओबीओ चित्र से काव्य तक छंदोत्सव" अंक - 71 की समस्त प्रविष्टियाँ 
 संकलित कर ली गयी हैं.
 
 इस बार प्रस्तुतियों के लिए दो छन्दों का चयन किया गया था, वे थे  सार छन्द और कुण्डलिया छन्द.
 वैधानिक रूप से अशुद्ध पदों को लाल रंग से तथा अक्षरी (हिज्जे) अथवा व्याकरण के अनुसार अशुद्ध पद को हरे रंग से चिह्नित किया गया है.
यथासम्भव ध्यान रखा गया है कि इस आयोजन के सभी प्रतिभागियों की समस्त रचनाएँ प्रस्तुत हो सकें. फिर भी भूलवश किन्हीं प्रतिभागी की कोई रचना संकलित होने से रह गयी हो, वह अवश्य सूचित करे.
 
 सादर
 सौरभ पाण्डेय
 संचालक - ओबीओ चित्र से काव्य तक छंदोत्सव, ओबीओ
**********************************************
1. आदरणीय समर कबीर जी
रंग बिरंगे फूल खिले हैं,टेसू का है जंगल ।
 फागुन की मस्ती में कर दें, हम जंगल में मंगल।। 
कुछ शाख़ें सूनी हैं कुछ पर, फूलों के हैं झुमके ।
 फागुन की जब हवा चलेगी, ये मारेंगे ठुमके ।।
टेसू के फूलों से आओ, ऐसे रंग बनायें ।
 नक़्श बनें कुछ ऐसे दिल पर, यारो छूट न पायें ।।
फूल गले मिलते हैं कैसे , सीखो भाई चारा ।
 क़ुदरत का संदेश अनोखा, लागे कितना प्यारा ।।
देखा टेसू के फूलों को, दिल पर मस्ती छाई ।
 क़ुदरत ने दे दिया इशारा, रुत फागुन की आई ।।
नफ़रत के इस युग में हम भी, जीना सीखें ऐसे ।
 सूखे झाड़ों में हैं खिलते, देखो टेसू जैसे ।।
 *********************
 २. आदरणीय सत्यनारायण सिंह जी 
   
 बाहें फैलाये खड़ा, स्वागत में आकाश।
 बन में ठूँठी डाल पर, फूला आज पलाश।।
 फूला आज पलाश, मनस उत्साह जगाता।
 खुश रहना हर हाल, सीख हमको सिखलाता।।
 पतझड़ दुर्दिन सत्य, मान खिल भर ना आहें।
 खुशियाँ मिले अपार, जगत फैलाकर बाहें।१।
रितु मदमाती हो गयी, फागुन छेड़े राग।
 लाल रंग टेसू खिले, बन में दहकी आग।।
 बन में दहकी आग, झुलसता तन पिंजर सा।
 मन साँसों का खेल, लगे उजड़ा बंजर सा।।
 रह रह पुरवा सत्य, हवा मन को सहलाती।
 मादक महुआ गंध, लुभाये रितु मदमाती।२। ............. (संशोधित)
बनवासी तुम हो गये, तज आशा मन मोह।
 आश्रय जंगल में लिया, नहीं शहर से छोह।।
 नहीं शहर से छोह, तजी सब सुख सुविधायें।
 मानस के सब द्वन्द, मिटा मन की दुविधायें।।
 जीने का यह ढंग, तुम्हारा है विसवासी।
 रँग केसरिया आज, फबे तुम पर बनवासी।३।
 ********************
 ३. आदरणीया प्रतिभा पाण्डेय जी 
 गीत [ सार छंद आधारित ]
   
 भरा हुआ आशा से मन तो, हर मुश्किल है हारी I
 सूखी शाखों के पीछे से ,मुस्काती फुलवारी II
  
 शुष्क आज जीवन है तो क्या , कल बादल आयेंगे I
 सोंधी मिट्टी की खुश्बू से, मन को भर जायेंगे II
 सपनों का पीछा मत तजना ,कोशिश रखना जारी I
 सूखी शाखों के पीछे से, मुस्काती फुलवारी II
  
 चिंता आशंका जाले में ,मन को कैद न रखना I
 एक किरण जो बुझी राह में, दूजी मन में भरना II
 नहीं थाल में सजी मिलेगी, खुश रहने की बारी I
 सूखी शाखों के पीछे से , मुस्काती फुलवारी II
  
 बाधाओं के पार खड़ी है, प्रीत सलोनी तेरी I
 आस मिलन की जोड़ चला चल ,करनी क्यों अब देरी II
 शूल गड़े हों मन में लेकिन, बुझे नहीं चिंगारी I
 सूखी शाखों के पीछे से , मुस्काती फुलवारी II
 ********************
 ४. आदरणीया सीमा मिश्रा जी 
करती पुष्पित शाख से, सूनी शाखा प्रश्न
 कब तक देखें राह हम, तुम सब करती जश्न
 तुम सब करती जश्न, न बरसी हम पर ममता
 हमसे छीने पात, हाय मौसम की समता?
 खिलते मादक फूल, बहारें तुम पर मरती 
 हम लगते हैं दीन, गर्व तुम कितना करती
  
 खिलते देखो फूल तो, हरक्षण पालो आस 
 तुमको इकदिन फूलना, होना नहीं उदास
 होना नहीं उदास, समय है आता सबका
 खिलना गिरना भाग्य, अभय है जीवन किसका
 होता जब-जब योग, रंग भी सुन्दर मिलते
 साक्षी है आकाश, दिखे बंजर भी खिलते
  
 माता सबको सींचती, सबका रखती ध्यान
 जैसा जिसका है समय, वैसा उसका मान
 वैसा उसका मान, उपेक्षा ना है करती
 सजते क्रम से सभी, तभी सजती है धरती
 टेसू झरते सूख, निखर गुलमोहर जाता
 आती सबकी बार, विभेद न करती माता
 *********************
 ५. आदरणीय चौथमल जैन जी 
छन्न पकैया छन्न पकैया ,लेकर आओ रोली। 
 देखो आई आज वही फिर , पतझड़ के संग होली ॥
छन्न पकैया छन्न पकैया , कानों मिश्री घोली। 
 तान छेड़कर फिर से बोली , कोयल मीठी बोली ॥
छन्न पकैया छन्न पकैया, पेड़ बने सब सूली। 
 अंबिया बौराई है वन में , पलास टेसू फूली ॥
छन्न पकैया छन्न पकैया , धरती हुई नशीली। 
 ढांक का रंग हुआ गुलाबी , खेतों सरसों पीली ॥ 
 ********************
 ६. आदरणीय बासुदेव अग्रवाल ’नमन’ जी 
कुण्डलियाँ (बसन्त और पलाश)
दहके झूम पलाश सब, रतनारे हों आज।
 मानो खेलन फाग को, आया है ऋतुराज।
 आया है ऋतुराज, चाव में मोद मनाता।
 संग खेलने फाग, दुल्हन सी प्रकृति सजाता।
 लता वृक्ष सब आज, नये पल्लव पा महके।
 लख बसन्त का साज, हृदय रसिकों के दहके।।
शाखा सब कचनार की, लगती कंटक जाल।
 फागुन की मनुहार में, हुई फूल के लाल।
 हुई फूल के लाल, बैंगनी और गुलाबी।
 आया देख बसंत, छटा भी हुई शराबी।
 'बासुदेव' है मग्न, रूप जिसने यह चाखा।
 आमों की हर एक, लदी बौरों से शाखा।।
हर पतझड़ के बाद में, आती सदा बहार।
 परिवर्तन पर जग टिका, हँस के कर स्वीकार।
 हँस के कर स्वीकार, शुष्क पतझड़ की ज्वाला।
 चाहो सुख-रस-धार, पियो दुख का विष-प्याला।
 कहे 'बासु' समझाय, देत शिक्षा हर तरुवर।
 सेवा कर निष्काम, जगत में सब के दुख हर।।
कागज की सी पंखुड़ी, संख्या बहुल पलास।
 शोभा सभी दिखावटी, थोड़ी भी न सुवास।
 थोड़ी भी न सुवास, अरे किस पे इतराते।
 झड़ के यूँ ही व्यर्थ, पैर से कुचले जाते।
 कहे 'बासु' समझाय, बनो नहिं झूठे दिग्गज।
 लिख लो कुछ तो सार, रहो नहिं कोरे कागज।।
द्वितीय प्रस्तुति
 सार छंद (पलाश और नेता) 
छन्न पकैया छन्न पकैया, टेसू सा ये नेता।
 सूखी उलझी डालों सा दिल, किसका भी न चहेता।। 
 
 पाँच साल तक आँसू देता, इसका पतझड़ चलता।
 जिस में सोता कुम्भकरण सा, जनता का जी जलता।।
छन्न पकैया छन्न पकैया, कब खुल्ले में आता।
 जब चुनाव नेड़े आते हैं, तब यह शोर मचाता।। 
 
 ज्यों बसंत में टेसू फूले, त्यों चुनाव में नेता।
 पाँच साल में एक बार यह, जनता की सुधि लेता।।
छन्न पकैया छन्न पकैया, रंग ढंग है कैसा।
 रंग बदलता चाल भाँप के, गिरगिट के ये जैसा।।
चटक मटक ऊपर की ओढ़े, गन्ध हीन टेसू सा।
 चार दिनों की शोभा इसकी, फिर उलझे गेसू सा।।
 ********************
 ७. आदरणीया कल्पना भट्ट जी 
छन्न पकैया छन्न पकैया,नारी लागे भोली
 नीली पीली चूनर ओढ़े, खेल रही है होली
 
 छन्न पकैया छन्न पकैया,भीग गई है चोली
 रंगों की मस्ती में झूमे,नाचे कूदे टोली
 
 छन्न पकैया छन्न पकैया,आ जाओ हमजोली
 टेसू के रंगों में डूबें, आओ खेलें होली
 
 छन्न पकैया छन्न पकैया,अलबेलों की टोली
 घोटी भांग सभी ने मिलकर,पी कर खेलें होली
 
 छन्न पकैया छन्न पकैया,ऐसी होती होली
 रिश्तों की डोरी में बांधे, हम सबको हमजोली 
(संशोधित)
************************
८. आदरणीय सुरेश कुमार 'कल्याण' जी 
 कुण्डलिया छंद
अंबर को है छू रहा,भूला निज औकात।
 गंध रहित यह फूल भी,कुदरत की सौगात।
 कुदरत की सौगात,अजब है इसकी मस्ती।
 लाल रंग से आज,सजे सब जंगल बस्ती।
 ढाक करे 'कल्याण',खड़ा है बन पैगंबर।
 आज रंग में एक,हुए हैं धरती अंबर।।
 
 टेसू तेरी डाल पर,फूल खिले जो लाल।
 नीरस का मन मोह लें,ज्यों गोरी के गाल।
 ज्यों गोरी के गाल,रंग रतनार खिला है।
 बनी ठनी यह नार,नहीं तो लाल किला है।
 लगता है 'कल्याण',मदन भी करता फेरी।
 जग में अद्भुत आज,छटा है टेसू तेरी।।
 
 टेसू टहनी लाल है,लिए हाथ में फूल।
 ज्यों गोरी हो आ रही,आसमान में झूल।................... संशोधित
 आसमान में झूल,पिया मन आग लगाई।
 महका रूप वसंत,लालिमा नभ पर छाई।
 सजने को 'कल्याण',पड़ी है विपदा सहनी।
 गिरा पुराने पात,लाल है टेसू टहनी।। 
 
 द्वितीय प्रस्तुति 
 सार छंद आधारित गीत
  
 कुदरत सबको देती अवसर,अद्भुत इसकी माया।
 जलता रहता टेसू खुद ही,जलकर यौवन पाया।
  
 रंगों का ये मौसम आया,छाई है रतनारी।
 टेसू सिर से आग उगलता,सुंदर है सरदारी।
 मीनध्वज से धरा सजी है,तन मन सब हर्षाया ............... (संशोधित)
 जलता रहता टेसू खुद ही,जलकर यौवन पाया।
  
 धूप छाँव की कर ना चिन्ता,वक्त सभी पर आता।
 हँसकर सहता सुखदुख जो भी,वह पारस बन जाता। .........(संशोधित)
 गिरा पात ज्यौं फूले टेसू,देखो फागुन आया।
 जलता रहता टेसू खुद ही,जलकर यौवन पाया।
  
 दर्द और कड़वी बोली जब,मीठी लगने लगती।
 खुशियाँ जीवन में भर जाती,नई आस है जगती।
 कर्म भूमि में तपता है जो,कर्मवीर कहलाया।
 जलता रहता टेसू खुद ही, जलकर यौवन पाया।
 *******************
 ९. आदरणीया राजेश कुमारी जी
नीले नीले नभ दर्पण में ,अद्भुत छटा निराली|
 जाल बनाती बिन पत्तों की ,उलझी उलझी डाली|
 
 डाली डाली फुनगी फुनगी, टेसू गुच्छे फूले| 
 निरख निरख खुद की माया को,वनमाली मन झूले| 
 
 महक रहे हैं जंगल जंगल,टेसू केसर छाए|
 झरे पुराने पत्ते सारे, नव पल्लव बौराए| 
 
 सब ऋतुओं में शीर्ष मुकुट का, है ऋतुराज नगीना|
 कुसुमित सौरभ से बहका है ,फागुन मस्त महीना| 
 
 लाल गुलाबी पुहुप पुहुप से, नाजुक डाल सजाना|
 करे अचंभित ये कुदरत का, सबको नेक खज़ाना|
 
 बन की झाड़ी काँटों में भी, कैसा नूर बिखेरा|
 स्वयं बलैय्या लेता उनकी, ऊपर बैठ चितेरा|
 
 सूखी डाली पर नव टेसू ,जीवन आस जगाए|
 जीर्ण शीर्ण हो जाए तन पर,मन ये हार न पाए|
चमत्कार समझो अब चाहे ,या कुदरत की माया|
 भिन्न भिन्न ऋतुओं में उसने,भिन्न भिन्न रूप दिखाया|
 **********************
 १०. आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी 
 कुण्डलिया 
माटी के संसार में है यह सत्य अतीव
 जर्जर होते एक दिन सब जड़-जंगम-जीव
सब जड़-जंगम-जीव आस के स्वप्न सजाते ..................... (संशोधित)
रहता भूत सजीव सभी सुधि में सुख पाते
 अरुणिम होता गात यही जीवन परिपाटी
 जन्म दिया अवदात मिटा भी देगी माटी
  
 सार छंद 
बूढा होता वृक्ष समय से पात सभी झर जाते
घाव मिले जो इस जीवन में कहाँ कभी भर पाते ................  (संशोधित)
शेष रहा पिंजर जीवन का तुमको कौतुक लगता
पारे सा जब उम्र पिघलती तब अंतर्मन जगता
  
 अब मेरा सुख नव-पादप में जिसमे यौवन आया
 खडा हुआ है शांत पार्श्व में व्रीड़ा से अरुणाया
 जर्जर मानव तुम भी अपनी नव-संतति से खेलो 
 बहुत दूर जाने वाले हो थोडा सा सुख ले लो 
 *********************
 ११. आदरणीय अशोक रक्ताळे जी 
 सार छंद
 
 पत्र नए गुलमोहर पर हैं, और आम है रीता |
 टूटी सूखी शाखाएं हैं , फागुन भी जब बीता ||
 
 कैसे रंग बिखेरे अपना , कैसे सुख-दुख बाँटें |
 टेसू की मोहक कलियों को, छेड़ रहे जब काँटें ||
 
 किसी हाथ की रेखाओं सी, उलझी डाली-डाली |
 कैसे-कैसे दृश्य दिखाता , जीवन में वनमाली ||
 
 टेसू की फूलों से लद ली , देखो डाली-डाली |
 आम शुष्क है लेकिन वन में, छायी है हरियाली ||
 
 मैंने टेसू के फूलों में, मीठा रस है पाया |
 लगा दहकते पुष्पों में हो, जैसे प्रभु की माया ||
 
 नीलगगन ने खेली होली, आगे गाल बढाया |
 टेसू के पुष्पों ने सूने , नभ पर रंग चढाया ||
 *******************
 १२. आदरणीय तस्दीक अहमद खाँ जी 
 (1 ) कुण्डलियां 
  
 पतझड़ का मौसम गया ,दिखने लगी बहार 
 सच्चे दिल से बागबाँ ,कर इसका सत्कार 
 कर इसका सत्कार ,बहारें चली न जाएँ 
 जहाँ जहाँ हैं खार ,वहाँ कलियाँ मुस्काएँ 
 कहे यही तस्दीक़ ,न हो जाए कुछ गड़बड़ 
 अभी बागबाँ देख ,चमन से गया न पतझड़
  
 आए हैं कुछ गुल कहीं ,सूखी कोई डाल 
 पूरा शायद हो गया ,पतझड़ का अब काल 
 पतझड़ का अब काल ,सामने देख बहारें 
 गुलशन है वीरान ,चलो हम इसे संवारें 
 कहे यही तस्दीक़ ,बागबाँ क्यूँ घबराए 
 गया खिज़ाँ का दौर ,बहारों के दिन आए
  
 सार छन्द 
  
 छन्न पकैया छन्न पकैया ,दौर खिज़ाँ का आया 
 पत्ते गिरने लगे ज़मीं पर ,गयी पेड़ की छाया 
छन्न पकैया छन्न पकैया ,केसा है यह मंज़र 
 एक पेड़ है उजड़ा उजड़ा ,फूल खिले दूजे पर
छन्न पकैया छन्न पकैया ,रुत बसंत की आई 
 कहीं खिले हैं फूल कही पर,वीरानी है छाई
छन्न पकैया छन्न पकैया ,आओ पेड़ लगाएँ 
 उजड़ न जाए अपनी धरती ,मिल कर इसे बचाएँ
छन्न पकैया छन्न पकैया ,हर कोई तरसेगा 
 पेड़ लगेंगे जब धरती पर ,तब पानी बरसेगा
छन्न पकैया छन्न पकैया ,उनकी याद सताए 
 फूल आगये हैं पेड़ों पर ,लेकिन सनम न आए
 ***********************
 १३. आदरणीय अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव जी 
 सार छन्द 
  
 लाल लाल कुछ केसरिया सा, तुम दिखते हो टेसू।
 बड़ी शान से ऊँचाई पर, तुम खिलते हो टेसू॥
फूल पात हैं रंग बिरंगे, सूखी पतली डाली।
 नीले आसमान के नीचे, वन की छटा निराली॥
ठंड गई तो बसंत आया, सब ऋतुओं का राजा|
 लगे आम भी बौराने अब, कोयल गीत सुना जा॥
भूल गए भगवन् टेसू में, गंध न मादक डाला।
 देव देवियों वर वधुओं को, पहनाते हम माला॥
मन उमंग से भर जाता है, लगते न्यारे टेसू।
 ध्वज केसरिया सा दिखते तुम, सब के प्यारे टेसू॥
 *******************
 १४. आदरणीय गिरिराज भंडारी जी 
 छन्न पकैय्या-सार छंद
  
 छन्न पकैय्या छन्न पकैय्या , मंज़र बड़ा निराला
 सूखी शाखों से दिखता है, अंबर फूलों वाला
  
 छन्न पकैय्या छन्न पकैय्या, पतझड़-टेसू ऐसे
 रोते रोते कोई सूरत , हँस देती हो जैसे
  
 छन्न पकैय्या छन्न पकैय्या , मरु में जैसे पानी
 पतझड़ में टेसू की रंगत , लगती बड़ी सुहानी
  
 छन्न पकैय्या छन्न पकैय्या, टेसू जब भी आये
 होली के कदमों की आहट, सबको सदा सुनाये
  
 छन्न पकैय्या छन्न पकैय्या, कुदरत का है खेला
 सारा जंगल जब सूखा तब, टेसू का है मेला
  
 छन्न पकैय्या छन्न पकैय्या, टहनी सूखी सूखी
 मुझको भी देखो, कहती है, मै भी तो हूँ भूखी
 *********************
 १५. आदरणीय सतविन्द्र कुमार जी 
 गीत(सार छ्न्द आधारित)
दुस्सह सर्दी-सी पीड़ा से
 सबको दो छुटकारा
 पुष्पित टेसू-से खिल जाओ
 जीवन हो ये न्यारा
जगति बनीं ये तरु पतझड़ का
 सूनी है हर डाली
 जिसको लखकर चिंतित रहता
 इस उपवन का माली
रक्त पुष्प तुम डाल सजा दो
 हर दल लगता प्यारा
 पुष्पित टेसू-से खिल जाओ
 जीवन हो ये न्यारा।
राग-रंग भी जाने क्यों अब
 देखो नहीं सुहाता
 घटता है हर जन का पौरुष
 काम नहीं वह आता
बन जाओ पौरुष की औषध
 ये है काम तुम्हारा
 पुष्पित टेसू-से खिल जाओ
 जीवन हो ये न्यारा
नील गगन के बीच दमक कर
 थोड़ा तो मुस्काओ
 संग पुष्प सब खिल-खिल जाएँ
 उनको साथ मिलाओ
हर कोंपल तरु की खुलकर हो
 पर्ण पल्लवित सारा
 पुष्पित टेसू-से खिल जाओ
जीवन हो ये न्यारा।
द्वितीय प्रस्तुति
 कुछ मुक्तक(आधार-सार छ्न्द)
(1)
 जीवन में पतझड़ के झोंके,आकर पीर भगाओ
 हर डाली अब लगती सूनी,सूनापन हर जाओ
 बनकर टेसू की कलियाँ तुम,प्रेम रंग ले फूलो
 लाल,गुलाबी,केसरिया से,सुन्दर डाल सजाओ।
(2)
 फूले हो टेसू के जैसे,जीवन डाल सजी है
 बहुत सहा पतझड़ को इसने,अब तो ख़ुशी मिली है
 महक नहीं है तो क्या गम है,खिलना जब सुखकारी
 बिन खुशबू के भी मौसम में,मोहक तान बजी है।
(3)
 डाल-डाल के बीच-बीच में,दिखता नील गगन है
 शुष्क डाल पर भी टेसू का,देखो पुष्प मगन है
 आस-पास है गम का आलम,उसको दूर भगाता
 यह खुद जलकर आज लगाता, हिय में प्रेम-अगन है।
(4)
 लाल,केसरी रंग लिए यह ,अंग अनोखा इसका
 पुष्प पलाश खिले सुगंध बिन,रूप मोहना जिसका
 पतझड़ का सब दर्द हरे यह,मधुमास लिए आए
 इसके आने से ही फागुन,मनता है किस-किसका
 ****************
 १६. आदरणीय अरुण कुमार निगम 
 कुण्डलिया छन्द:
पहचाना जाता नहीं, अब पलाश का फूल
 इस कलयुग के दौर में,मनुज रहा है भूल
 मनुज रहा है भूल, काट कर सारे जंगल
 कंकरीट में बैठ, ढूँढता अरे सुमङ्गल
 तोड़ रहा है नित्य, अरुण कुदरत से नाता
 अब पलाश का फूल, नहीं पहचाना जाता।।
सार छन्द :
आधे और अधूरे मन से, अब बसंत है आता
 सेमल टेसू अमरैया से, टूट रहा है नाता । 
फागुन भी हो रहा अनमना, नहीं रहा अब चंचल
 यदाकदा ही कूका करती, है मतवाली कोयल ।
चौपालों से फाग लुप्त है, चुप हैं ढोल नँगाड़े
 गुपचुप गुपचुप होली हो ली, चुपचुप सभी अखाड़े ।
संस्कारों का बोझ उठाये, कुछ शाखाएँ फूलीं
 कुछ शाखाएँ परम्पराएँ, क्या होती हैं भूलीं ।
गगन चूमती देखो कैसी, है विकास की सीढ़ी
 बाँझ भूमि पर जी पायेगी, कैसे भावी पीढ़ी ||
 *********************
 १७. आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी 
 सार छंद आधारित गीत
छोड़ रहे अपनी शाखों को पत्ते,
 हताश हूँ मैं।
 जीवन के पतझड़ में विजयी,
 खिलता पलाश हूँ मैं।
 
 अक्सर कहते- “तुझमें टेसू जीवन गंध नहीं है।”
 लेकिन परहित करना हो तो यह प्रतिबंध नहीं है।
 कड़ी तपन की पीड़ा को छाया का मरहम देता।
 स्वयं जलाकर अपने तन को सुख का बना प्रणेता।
 यह गुण मानव को जब तजते, देखा निराश हूँ मैं।
 जीवन के पतझड़ में विजयी,
 खिलता पलाश हूँ मैं।
 
 यद्यपि यह भी सत्य चतुर्दिक कब उत्साह रहा है?
 किन्तु सदा किंशुक-मन ऋतु का नव रथवाह रहा है।
 लाल पंख धर आशाओं के, उड़ता नीलगगन में।
 अपराजित विपरीत दशा में, पुलकित तीक्ष्ण अगन में।
 मौसम के मन में उपजे उस तम का प्रकाश हूँ मैं।
 जीवन के पतझड़ में विजयी,
 खिलता पलाश हूँ मैं।
 
 तुच्छ समझकर तजते हैं सब, पद से सिर्फ बड़ा हूँ।
 हाय! स्वयं अपने मौसम से, लड़कर अड़ा खड़ा हूँ।
 पुष्प रहे हेमंत शरद के, सब दरबार-विलासी।
 रक्तपुष्प मैं ब्रह्मावृक्षक, सदा रहा वनवासी।
 अच्छे दिन आने वाले हैं, उनकी तलाश हूँ मैं।
 जीवन के पतझड़ में विजयी,
 खिलता पलाश हूँ मैं।
 ******************************
 १८. आदरणीय सुशील सरना जी
 मौसम -(सार छंद पर एक प्रयास )
  
 छन्न पकैया छन्न पकैया कैसा मौसम आया
 पर्ण विहीन कहीं शाखाएं कहीं पुष्प मुस्काया !!!१!
  
 छन्न पकैया छन्न पकैया पतझड़ ये समझाये
 सुख दुख पहलू हैं जीवन के, इक आये इक जाए !!२!!
  
 छन्न पकैया छन्न पकैया मन भावों का जंगल
 टेसू फूलों से पतझड़ में , हो जंगल में मंगल !!३!!
  
 छन्न पकैया छन्न पकैया,अज़ब ईश की लीला
 इक बसंत जीवन की सांसें ,इक पतझड़ का टीला !!४!!
  
नहीं क़हर कोई मौसम का ,मानव क्यों भरमाये 
 सुख दुख की परिभाषा मौसम बार बार समझाये !!५!!................ (संशोधित)
 ****************************
 १९. आदरणीय लक्ष्मण रामानुज लडीवाला जी 
 सार छंद आधारित गीत रचना
इस मौसम में खिलता टेसू, लाल रंग महकाए
 आस जगाती फूली सरसों, मन में खुशियाँ लाये ||
  
 कुदरत करती न्याय सदा ही,सरसों फूलें खेतो में
 सैर करे आकर सैलानी, झरे चांदनी रेतों में |
 फूला देख पलाश वनों में, ठूंठ कहाँ लहराए
 आस जगाती फूली सरसों, मन में खुशियाँ लाये
  
 तीजों के त्यौहार मनाते, गीत ख़ुशी के गाते,
 पूजा करते है पेड़ों की, ह्रदय प्रेम दर्शाते |
 पतझड़ में भी खिलता टेसू लाल रंग चमकाए
 आस जगाती फूली सरसों, मन में खुशियाँ लाये |
  
 हरने को नैराश्य धरा का, अरुण लालिमा आता
 खुश रहना पतझड़ में भी, सीख हमें दे जाता |
 प्रकृति के दृश्य ये सारे, हमको बहुत सुहाए
 आस जगाती फूली सरसों, मन में खुशियाँ लाये,
  
 लाल रंग टेसू खिल जाते, सुने कही किलकारी
 पत्ते झड़ते सूखे डाली, कही दिखें फुलवारी |
 और कभी बादल दिख जाते, मन में आस जगाये
 आस जगाती फूली सरसों, मन में खुशियाँ लाये |
द्वितीय प्रस्तुति 
 कुंडलिया छंद
पतझर में भी सूर्य से, दिखती स्वर्णिम आस
 ताप मिले जब सूर्य से, रख वर्षा की आस |
 रख वर्षा की आस, पेड़ सम्बन्ध निभाता
 फूला हुआ पलाश, ह्रदय उल्लास जगाता |
 लक्ष्मण करे प्रयास, काम क्या कोई दूभर
 सर्वभोम ये सत्य, सदा ये रहे न पतझर |
 (२) 
 नीला शोभित है गगन, स्वर्ण किरण हर छोर
 पतझर में पत्ते झरे, करें कौन अब शोर |
 कौन करे अब शोर, मौन बैठे सन्यासी
 फैला स्वर्णिम रंग, पेड़ हो जैसे बनवासी |
 सरसों उगती खेत, कृषक देख रंग पीला
 कृषक करे विश्वास, देखता अम्बर नीला |
 ************************* 
 २० आदरणीया नयना(आरती)कानिटकर जी
सारछंद पर एक प्रयास---
 
 छन्न पकैया छन्न पकैया, रंग बसंती छाया
 टेसू टेसू केसर फूटे, संग आम बौराया ll
छन्न पकैया छन्न पकैया, डाल डाल इठलाया 
 गाते ताल ढोलक के संग, सोम धरा पर आया ll
छन्न पकैया छन्न पकैया ,फूल-फूल रस भीने
 कितना तप-तप कर पाई है, यह शोभा धरती ने ll
 
 छन्न पकैया छन्न पकैया,जो दीं गूँथ किसी ने
 धरती पे ऋतुओं को बदल कर, आगंतुक वसंत ने ll
 
 छन्न पकैया छन्न पकैया, रंगो सबको गीला
 संगियो संग खेरो होली, मुख को कर दो पीला ll
 ******************
Tags:
परम आदरणीय सौरभ जी सादर प्रणाम,
१) ओबीओ चित्र से काव्य तक छन्दोत्सव अंक ७१ के सफल आयोजन एवं संकलन हेतु सादर बधाई निवेदित है. आदरणीय आपसे निवेदन है कि निम्नवत संशोधित रचना को मूल रचना से कृपया प्रतिस्थापित करें
रितु मदमाती हो गयी, फागुन छेड़े राग।
 लाल रंग टेसू खिले, बन में दहकी आग।।
 बन में दहकी आग, झुलसता तन पिंजर सा।
 मन साँसों का खेल, लगे उजड़ा बंजर सा।।
 रह रह पुरवा सत्य, हवा मन को सहलाती।
 मादक महुआ गंध, लुभाये रितु मदमाती।२। (संशोधित)
२) “तुम्हारा” में मात्रा भार ५ या ६ होगा कृपया इस संदर्भ मे मुझे भ्रम है अतएव आपका मार्गदर्शन चाहता हूँ क्योंकि मात्रा भार ६ की स्थिति में रचना की निम्न पंक्ति में संशोधन अपेक्षित होगा
जीने का यह ढंग, तुम्हारा है विसवासी।
कृपया मार्गदर्शन करें, सादर
आदरणीय सत्यनारायणजी, आपकी संशोधित पंक्तियाँ प्रतिस्थापित कर दी गयी हैं.
तुम्हारा शब्द की कुल मात्रा ५ ही होगी.
सादर
सादर आभार आदरणीय
is tippani ke aadhaar par maan kar chaaloon tumhaara kee maatra 5
मल्हार में स्वराघात ल्हा की आ की मात्रा पर होने से आधे ल पर बल नहीं पड़ता. इसी तरह उन्हें, जिन्हें आदि जैसे शब्द हैं. जिनके आधे न पर उच्चारण के समय बल नहीं पड़ता. किन्तु, किन्ह जैसे शब्द को लीजिए कि की मात्रा गुरु हो जाएगी क्यों कि ह के साथ आधा न उच्चारित होता है. जो अपने से पूर्व क् लघु को गुरु कर देता है.
saadar
hindi font load nahi hua hai atev kshma chaahta hoon.
आपने सही समझा है, आदरणीय सत्यनारायण जी.
आदरणीय सौरभ सर सदर प्रणाम। ... छंदोत्सव -71 के त्वरित संकलन हार्दिक बधाई एवम संकलन में मेरी प्रस्तुति को स्थान देने के लिए हार्दिक आभार। सर प्रस्तुति के ५वें छंद को निम्न छंद से प्रतिस्थापित कर अनुगृहीत करें यदि आपको ये सही लगे तो। सादर ....
नहीं क़हर कोई मौसम का ,मानव क्यों भरमाये 
सुख दुख की परिभाषा मौसम बार बार समझाये !!५!!
यथा निवेदित तथा संशोधित आदरणीय सुशील सरना जी
आदरणीय सौरभ सर आपका हार्दिक आभार।
यथा निवेदित तथा प्रतिस्थापित , आदरणीय सुरेश कल्याण जी
शुभेच्छाएँ
आदरणीया कल्पना जी, यथा निवेदित तथा प्रतिस्थापित
सादर
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
    © 2025               Created by Admin.             
    Powered by
     
    
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |