भारतीय वाड.मय में अध्यात्म
श्रुति कहती है कि शरीर एक आवरण मात्र है जिसके पीछे एक अरूप, परमस्वतन्त्र एवं अविनाशी सत्ता की चैतन्य उपस्थिति है जो हर प्रकार से पूर्ण है । इस परम सत्ता के दो रूपों 1. अगुण एवं 2. सगुण रूप का भी विवरण मिलता है जिनमें परम सत्ता के लीलामय रूप को सगुण रूप एवं मूल सत्ता को अगुण रूप या प्रणव रूप भी कहा गया है । भारतीय दर्शन इसी परमसत्ता के साक्षात्कार हेतु अध्यात्म का मार्ग सुझाता है और जिसे परिभाषित करते हुए गीता कहती है : ‘’अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोsध्यात्ममुच्यते’’ (अध्याय-4, श्लोक- 3)
अर्थात् ब्रह्म का क्षरण नहीं होता एवं आत्मा का ‘स्व-भाव’ ही अध्यात्म है । चूंकि आत्मा को ब्रह्मरूप ही माना गया है अत: आत्मा के दिव्य स्वरूप में रम जाना ही अध्यात्म है तथा शेष सभी ‘पर-भाव’ हैं ।
भारतीय दर्शन की अनेकों विशेषताओं में प्रमुख विशेषताएं इस प्रकार हैं 1. यह परमात्मा की पंथ निरपेक्षता सिद्ध करता है । 2. यह आत्म निरीक्षण पर बल देता है एवं यही भावना इस्लाम में भी ‘जेहाद’ के रूप में भी मिलती है जिसका मूलार्थ आन्तरिक युद्ध करना एवं अपनी मनोवृत्तियों पर विजय प्राप्त करना ही है । यहां तक कि पूरा का पूरा सूफीवाद भी इसी आत्मचिंतन को लेकर चलता है । 3. यह मनुष्य को ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ रचना मानता है । ‘ पुरूषो वाव सुकृतम्’ (ऐतरेय उपनिषद) कहकर इसी को रेखांकित किया गया है । 4. यह मनुष्य के अंग-प्रत्यंग में देवताओं का वास मानता है, नचिकेता को बह्मविद्या का उपदेश करते हुए यमराज कहते हैं कि मनुष्य के अंग-प्रत्यंग में देवताओं का वास है अर्थात पूरा मनुष्य शरीर ही देवताओं का निवास स्थल है 5. यह मानता है कि विगत जन्मों के पुण्य कर्मों के कारण ही मनुष्य जन्म होता है एवं 84 लाख योनियों में यही सर्वश्रेष्ठ है एवं शेष सभी भोग योनियां हैं जहां कर्म करने की आजादी नहीं होती केवल पूर्वकर्मों के फलों को भोगना पड़ता है । इन योनियों को ‘ असुर्या नाम ते लोका’ (अर्थात् नरक समान) माना गया है, एवं सर्वोपरि 6. यह मानता है कि मनुष्य के हृदय में ही परमात्मा निवास करते हैं ‘’ ऋतं पिबन्तौ सुकृतस्य लोके/गुहा प्रबिष्टौ परमे परार्धे (कठोपनिषद) द्वारा यही बात कही गई है, साथ ही यह भी कहा गया है कि मनुष्य शरीर में परमात्मा ब्रह्मरंध्र को चीरकर प्रविष्ट होते हैं ‘ स एतमेव सीमानं विदार्यैताद्वार प्रापद्यत (ऐतरेय उपनिषद) ।
एक अद्भुत तथ्य यह भी है कि लैटिन से उत्पन्न Spirituality अपने प्रसार के लिए शुरू से ही विभिन्न पंथों (विशेष रूप से कैथोलिक) का मुंह ताकती रही एवं एक समय तो ऐसा भी रहा जब इसे प्रेतविद्या का पर्याय माना गया जबकि भारतीय शास्त्रों में प्रेतविद्या एक अलग ही विधा के रूप में पुष्पित एवं पल्लवित होती रही है । यह क्रम तबतक चलता रहा जबतक पाश्चात्य Spirituality का साबका भारतीय अध्यात्म से नहीं पड़ा एवं जैसे ही भारतीय अध्यात्म के संसर्ग में वह आई, उसका भी संवर्धन एवं परिवर्धन भारतीय उदात्त प्रकृतियों के अनुरूप हो गया जिसके कारण वह अध्यात्म के पयार्यवाची के रूप में प्रतिष्ठित हुई ।
भारतीय दर्शन में कर्मसिद्धांत को बड़ी मान्यता प्राप्त है, भगवदगीता में स्वयं श्रीकृष्ण कहते हैं कि मनुष्य कर्म करने को बाध्य है ‘ न हि कश्चित्क्षणमति जातु तिष्ठत्यकर्मकृत / कार्यते ह्यावश: कर्म सर्व प्रकृतिजैर्गुणै’ चूंकि मनुष्य मात्र ही ऐसा है जो अपने कर्म से अपनी अनन्त यात्रा की गति को मोड़ सकता है इसी कारण मनुष्य के लिए निदेश किया गया कि ‘’उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत’’ (कठोपनिषद) । अब चूंकि कर्म करने का निदेश दिया गया तो प्रश्न स्वाभाविक उठा कि कौन सा कर्म किया जाए जिससे सुख प्राप्त हो ? नचिकेता को यमराज स्पष्ट कहते हैं कि सुख प्राप्ति के दो साधन हैं 1. श्रेय जिसे विद्या एवं परा विद्या भी कहा गया जिससे परमतत्व की प्राप्ति हो एवं 2. प्रेय या अविद्या या अपरा विद्या जिससे सांसारिक सुखों की प्राप्ति हो (नोट : अपने बृहत्तम रूप में अपरा विद्या में परा विद्या भी समाहित हो जाती है ठीक वैसे ही जैसे इड़ा एवं पिंगला सुषुम्ना में प्रवाहित होने लगती है) ।
अब जबकि कर्म का निदेश भी हो गया एवं सुख प्राप्ति का मार्ग भी बता दिया गया तो पुन: प्रश्न उपस्थित हुआ कि इस विद्या का अनुशीलन किस प्रकार किया जाए क्योंकि यह तो बड़ी गूढ़ विद्या है ? उत्तर स्वयं भगवान ने गीता में कुछ इस प्रकार दिया ‘ न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते’ अर्थात ज्ञानमार्ग से उत्तम कुछ भी नहीं । किंतु प्रश्न अशेष ही रहा, ज्ञान तो प्राप्त हो पर ज्ञान प्राप्ति की योग्यता क्या हो, गुरूवर ज्ञान तो दे दें परंतु किसे...... यह कैसे पता चले.... अगले ही पल उत्तर प्रस्तुत था ‘श्रद्धावांल्लभते ज्ञानं तत्पर: संयतेन्द्रिय:’ अर्थात् श्रद्धावान, साधनापारायण एवं जितेन्द्रिय मनुष्य ही ज्ञान को प्राप्त करते हैं (यहां एक तथ्य और भी स्पष्ट होता है कि गुरू के पास ज्ञान के लिए जाने की भी यही योग्यता होती है ।) यहां जितेन्द्रिय शब्द विशेष अर्थ रखता है जिसके बिना श्रद्धा एवं साधना दोनों ही निष्फल हो जाते हैं क्योंकि ये (इन्द्रियां) मन को बरगलाती हैं । प्रश्न अभी भी खत्म नहीं हुआ, पूछा गया कि जितेन्द्रिय कैसे हों ? बस इसी जगह अध्यात्म उत्तर लेकर उपस्थिति होता है । हमारी अन्तर्यात्रा के इस पथ पर हमारा एकमात्र संबल अध्यात्म ही होता है जो शरीर के चारों प्रकार (अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय) का शोधन कर उसे पंचम शरीर जिसे आनंदमय शरीर कहा गया, उससे मिलाता है एवं प्राण, अपान, समान, व्यान को परिशोधित करता हुआ उदान तक व्याप्त होता है । इस पूरी प्रक्रिया को साधने के लिए एक सुगम विधि बताई गई जिसे ध्यान कहा गया एवं ध्यान में क्या हो और क्या ना हो इस विषय पर बड़ा ही सुंदर श्लोक मुण्डक उपनिषद में आता है : ‘’ प्रणवो धनु: शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते / अप्रमत्तेन वेद्धत्यं शरवतन्मयो भवेत’’ अर्थात् ओंकार(प्रणव) ही धनुष है, यह जीवात्मा ही बाण है एवं ब्रह्म ही उसका लक्ष्य है एवं प्रमाद रहित मनुष्य ही उसे बेधकर तन्मय होता है । इसी को यज्ञ भी कहा गया ‘ प्राणापानपरिचलनवात्या हि वाचष्चित्तस्य चोत्तरोत्तरक्रमो यद्यज्ञ:’से जिसकी पुष्टि होती है ।
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ऊँ तत्सत्
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अध्यात्म की गूढता और विस्तार को बहुत ख़ूबसूरती से आपने इस संक्षिप्त आलेख में प्रस्तुत किया है आदरणीय राजेश झा जी....
क्षमा चाहूंगी कि इस आलेख को इतने दिनों के बाद, आज ही देख पायी.
आपनें गागर में सागर को समेट लिया है...
बहुत बहुत आभार इस सार्थक प्रस्तुति के लिए.
सादर.
आपका हार्दिक आभार प्राची जी कि आपने मेरे आलेख को इस लायक समझा । मूलत: मैं आध्यात्मिक व्यक्ति नहीं हूं पर ओबीओ ने ही मुझे इस विषय पर चिंतन एवं अध्ययन को प्रेरित किया जिसके लिए ओबीओ पर उपस्थिति गुरूजनों को सादर नमन है
आदरणीय भाई राजेशजी, आपका आलेख अपने प्रवाह में अत्यंत ही संयत रूप में अन्यान्य कृतियों से महत्वपूर्ण विन्दु उठाता है. सनातनी या वैदिक अवधारणाओं को आपने सुन्दरता से समेटने का प्रयास किया है. प्रस्थानत्रयी के तीनों प्रारूप जहाँ मनुष्य के स्वभाव, उसके कर्म और तदोपरान्त व्यक्तिगत एवं सामुहिक वैचारिक उत्थान की बात करते हैं, वहीं षड्दर्शन समुच्चय में उन्नत वैचारिकता, तद्संबन्धी कर्म तथा व्यापक संतुलन एवं उसके निर्वहन की बात करते हैं. आपने इन्हीं तथ्यों की सीमा से कई-कई विन्दुओं को समेटने का सफल प्रयास किया है. परा-अपरा विद्याओं, श्रेय-प्रेय कर्म, मानसिक अवस्था के पाँचों कोषों आदि-आदि के उल्लेख ने आपके इस आलेख को बहुपयोगी कोण दिये हैं. सही उद्धृत किया है आपने, कि ’उस परम’ का वाचक या परिचायक प्रणव (ऊँ) ही है जो चाहे जैसे निरुपित हो, इस सनातन धरा पर पूरी तरह से पंथनिर्पेक्ष है.
पाश्चात्य अवधारणाओं को चाहे आज जितना प्रचारित किया जाय और सनातन ज्ञान की तथ्यात्मक गहराई के समकक्ष खड़ा कर तथाकथित संतुलन स्थापित करने के नाम पर वाग्जाल फैलाये जायँ, वैदिक या सनातनी विन्दुओं का व्यापक, विधिवत अध्ययन और मनन करने पर अनुभूत तथ्य और व्यापते हुए सत्य से कोई पाठक बिना दंग हुए नहीं रहता. हमारे ऋषियों-मुनियों के अद्भुत ज्ञान और विवेचनाओं के समक्ष नत हो जाता है.
यह अवश्य है कि कई-कई कारणों से हम, हमारी आज की पीढ़ी अपने अत्युच्च वाङ्गमय के और इसके लाभ से या तो वंचित हैं या न जानकारी के बावज़ूद षडयंत्रकारी मिथ्या प्रचार के कारण इनके विरोध में बोलते फिरते हैं. यह अवश्य है कि पंथ के नाम पर हो रहे समाज में ढोंग को ही सामान्य जन धार्मिकता मान कर इन उच्च विचारों को सुनने के पहले ही बिदक जाते हैं.
अवश्य है आदरणीय, कि आध्यात्म वैचारिक समझ है जो मनुष्य को उसके होने का भान करा कर सद्मार्ग पर चलने को उत्प्रेरित करता है.
इसे मेरी व्यक्तिगत व्यस्तता कहें या अन्य समूहों की रचनाओं का टेक्निकली मुखपृष्ठ पर न आ पाना, मैं अत्यंत खेद के साथ स्वीकार करता हूँ कि इस लेख को मैं आज, अभी, देख पाया हूँ. वह भी डॉ.प्राची की इस लेख पर टिप्पणी के ऊपर आपकी आभार प्रतिक्रिया को लेटेस्ट एक्टिविटी में देख कर. मैं स्वीकार करता हूँ कि यह मेरी व्यक्तिगत क्षति थी.
सादर
//सही उद्धृत किया है आपने, कि ’उस परम’ का वाचक या परिचायक प्रणव (ऊँ) ही है जो चाहे जैसे निरुपित हो, इस सनातन धरा पर पूरी तरह से पंथनिर्पेक्ष है //
आदरणीय, आपके इस कथन से आश्वस्ति मिली कि मेरा अध्ययन सही दिशा में हैं ।
//आध्यात्म वैचारिक समझ है जो मनुष्य को उसके होने का भान करा कर सद्मार्ग पर चलने को उत्प्रेरित करता है//
आपने एक ही वाक्य में पूरे आलेख का सार प्रस्तुत कर दिया, इसीलिए कहते हैं गुरू ही ब्रह्म है । आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि आपके आशीर्वाद से उस विराट की थोड़ी समझ मुझमें भी स-समय विकसित हो ही जाएगी । नमामी शमीशान निर्वाणरूपं ।
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