एक समय था जब अक्सर मेरे ह्रदय में यह प्रश्न उठता था। हे प्रभु 'आखिर क्यों' तुमने मुझे यह जीवन दिया जिसमे इतनी तकलीफें हैं, इतना संघर्ष है, इतना कष्ट है। आखिर क्यों मुझे दूसरों सा नहीं बनाया। क्यों मैं औरों की तरह चल फिर नहीं सकता। क्यों मुझे रोज़मर्रा के कामों के लिए दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है।
मैं जितना अधिक इस विषय में सोंचता था उतना अधिक दुखी होता था। मैंने ईश्वर के अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह अंकित कर दिया। ईश्वर नहीं है। होता तो मुझे इतना कष्ट क्यों देता। यदि ईश्वर है भी तो वह निर्दयी है। तभी तो मुझे यह तकलीफ दी है।
मन में अवसाद घर करने लगा। मेरे रोने, खीजने या शिकायत करने का कोई परिणाम नहीं निकला। निकलता भी कैसे। अवसाद के कीचड़ में कमल नहीं खिलता। उसमें तो केवल कीड़े पड़ते हैं जो आपके जीवन को दुर्गंधमय बना देते हैं।
किन्तु ईश्वर दयालु है। उसने मेरी शिकायत एवं उसके प्रति दिखाई गयी कृतघ्नता के बावजूद मुझे उस कीचड़ से उबार लिया। कोई अकस्मात् घटना घटी हो ऐसा नहीं हुआ किन्तु कुछ छोटे छोटे संकेतों के माध्यम से उसने मेरी सोंच की दिशा बदलनी शरू की।
कभी किसी पुस्तक के किसी अंश के द्वारा, या किसी टी .वी . कार्यक्रम के बीच में अथवा किसी से बातचीत करते समय मैं महसूस करता की दुनिया में कोई भी कष्ट से अछूता नहीं है। बहुत से लोग ऐसे हैं जिनके पास मुझसे भी कम अवसर हैं किन्तु वे जीवन के प्रति निराश नहीं हैं। उन्हें किसी प्रकार की शिकायत नहीं है। वो पुरानी कहावत है 'मैं अपने नंगे पैरों को रोता रहा जब तक ऐसे व्यक्ति से नहीं मिला जिसके पाँव ही नहीं थे।'
मैंने महसूस किया कि जीवन अँधेरे में भटकने के लिए नहीं वरन उजाले की ओर बढ़ने के लिए है। कुछ लोगों ने मुझे ऐसी पुस्तके पढ़ने को दीं जिन्होनें इस विचार को और पुख्ता किया। मैंने सोंचने का तरीका बदल दिया। अब मैं जीवन के सकारात्मक पक्षों को देखने लगा। मेरी शारीरिक स्तिथि के बावजूद मुझे शिक्षा का अवसर मिला जिसने मुझे यह अवसर दिया कि मैं पुस्तकों से ज्ञान अर्जित कर सकूं और स्वयं को निराशा के भंवर से उबार सकूं।
मेरे आस पास ऐसे लोग मौजूद हैं जो सदैव मेरा उत्साहवर्धन करते हैं। किसी भी व्यक्ति के जीवन में सबसे बड़ा सहयोग उसके परिवारजनों का खासकर उसके माता पिता का होता है। इस विषय में भी ईश्वर मुझ पर पूर्ण दयालु रहे।
मैनें महसूस किया कि पिछले कुछ समय से ईश्वर किस प्रकार चुपचाप मेरे जीवन को एक सही दिशा की ओर ले जा रहे थे। मैं उन्हें निर्दयी समझ रहा था किन्तु वो मेरे भले के लिए कार्य कर रहे थे।
मेरे मन में फिर वही प्रश्न उठा 'प्रभु आखिर क्यों' किन्तु इस बार भाव अलग था। शिकायत की जगह कृतज्ञता थी। मैं पूँछ रहा था की मैं तो इस योग्य नहीं था फिर 'आखिर क्यों।'
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आदरणीय आशीष जी:
आपका यह आलेख पढ़ना अच्छा लगा... विशेषकर इसलिए कि आप अपनी सकारात्मक सोच के बल से
ईश्वर के प्रति "आखिर क्यों" से उनके प्रति सदभाव उकेर सके। आशा है आपसे कई लोगों को प्रेरणा मिलेगी।
मेरे जीवन में भी कई कष्ट आए हैं, परन्तु मैंने कभी भी ( बचपन से अब तक ) ईश्वर को नहीं कोसा, अपितु
even in negative times, I have not only thanked Him with emotion, but in addition, looked
for something positive even in the negative. He knows His total scheme और उन्होंने मुझको
सदैव अपनी हथेली पर संभाल रखा है।
मैं प्रतिदिन केवल पूजा के समय ही नहीं, हर समय आते-जाते हर
छोटी और बड़ी चीज़ के लिए/घटना के लिए ईश्वर को धन्यवाद देता हूँ।
ईश्वर बहुत दयालु हैं ... हम मानव उनके तरीकों को कभी भी पूर्णत्या न समझ पाएँगे। यह भी तो
हो सकता है कि जो लोग कष्ट झेल रहे हैं, ईश्वर की आँखों में वह लोग ऊँचे हैं क्यूँ कि वे अन्य लोगों
के लिए सहनशीलता का दिव्य उदाहरण हैं।
सादर,
विजय निकोर
नमस्कार
आपने सही कहा है की ईश्वर दयालु है किन्तु अक्सर हम अपनी स्वार्थी सोंच के कारण यह समझ नहीं पाते है फिर भी वह हमारी सहायता करता है।
लेख पर राय देने का धन्यवाद।
आदरणीय आशीष कुमार त्रिवेदी जी, सुप्रभात व सादर प्रणाम! वाह अतिसुन्दर, लाजवाब, ईश्वर अनुकम्पा से परिपूर्ण। मेरी समझ में अभी तक इतनी अच्छी रचना मैनें इस मंच पर नही पढ़ी है। बहुत बहुत साधुवाद! जी हां! ईश्वर जो कुछ करते हैं हमारे भले के लिये ही करते हैं। हमें ही उनकी इस कृपा का सदज्ञान नही हो पाता है क्योंकि हमें तो बस भोग की आदत पड़ चुकी है। इसलिए भी हम दूसरों की बातो को महत्व नही देते हैं। इसके प्रतिकूल ईश्वर बड़ा ही दयालु है। उसे सदा ही सद्जनों की चिन्ता बनी रहती है और वे छप्पर फाड़ कर एकाएक कृपा का अमृत बरसाते हैं। सटीक सीधे हृदय को प्रभावित करती रचना। आपकी असीम कृपा इसी तरह बनी रहे और हम सभी को सकारात्मक एवं ज्ञानदायी रचनाओं का रसास्वादन मिलता रहे। हार्दिक बधाई स्वीकारें। सादर,
मुझे लगा आपने मेरी प्रोफाइल में मेरी डायरी वाला लेख पढ़ा हो, मै अबोध बालक उम्र में ही ५ वर्ष एस एम् एस
अस्पताल में व्यतीत कर अंततः ४०% अपंगता के कारण निशक्तजन की श्रेणी में आजाने और ८ वर्ष की उम्र में पढने
बैठने से अपने आपको कोसता था और यही सोंचता था की आखिर प्रभु ने क्यों साग में भेजा । पर धीरे धीरे १२ कक्षा पास
कर सरकारी सेवा (मेडिकल ज्युरिष्ट को 50 रु. रिश्वत देखर १९६५ में सरकारी सेवा में आगया, फिर पढ़ाई जारी रख m.com.
किया शादी हुई,प्रभु कृपा से सब बच्चे सहित भरा पूरा परिवार है । इश्वर की ही कृपा है, जो सभी सहयोग से अति गरीबी और कष्ट
से उभर आप सब लोगो के साथ हूँ असुर इश्वर के प्रति क्रतग्य हूँ । आपका लेख पढ़ कर भाव्वेश में यह लिख बैठा ।
अच्छा धनात्मक सुच के लेख हेतु हार्दिक बधाई भाई श्री आशीष त्रिवेदी जी
भाई लक्ष्मण जी:
उपरोक्त साझा करने के लिए आपका धन्यवाद। आपके साहस और सहनशीलता को नमन।
ऐसे ही प्रेरणा देते रहें.. साहस का उदाहरण बने रहें।
सादर और सस्नेह,
विजय निकोर
धन्यवाद।
प्रिय भाई,
आपने यह लिखा -
मैं जितना अधिक इस विषय में सोंचता था उतना अधिक दुखी होता था। मैंने ईश्वर के अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह अंकित कर दिया। ईश्वर नहीं है। होता तो मुझे इतना कष्ट क्यों देता। यदि ईश्वर है भी तो वह निर्दयी है। तभी तो मुझे यह तकलीफ दी है।
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जहाँ तक इंसान की बात है, वो पलायन वृत्ति में ज्यादा अपनेआप को सलामत पाता है.
सच तो यही है बंदे ! अगर ईश्वर ही सुख-दुःख देता है तो -
उन्हें कितना भरोसा होगा हम पर कि यह मेरा दिया हुआ सबकुछ सहर्ष स्वीकार कर लेगा.
जिसके अंदर सहन करनी की ताकत होती है या वो संभावना होती है या फिर उसके अंदर
हिम्मत का दीप प्रज्ज्वल्लित करने ईच्छा होती है ईश्वर की तभी वो हम पर दुःख देता है.
असल में वो दुःख होता ही नहीं बल्कि चैतन्य या ईश्वर की ओर आगे बढने का एक मात्र
जरिया होता है. अगर हम उसे समझ गएं तो दुःख नहीं होगा.
हमारे शरीर या मन की स्थिति समाज की विविध घटनाओं से बिगड सकती हैं.
आप ही कहें मीरां और नरसिंह ने क्या बिगाड़ा था इस दुनिया का? ऐसे तो कईं लोग हैं
जो ईश्वर की भक्ति करते हुए भी सुख से न रह सकें...
निराशा को छोडकर सकारात्मक सोच से कार्य करते रहें... खुद को प्यार करना सीख जाईये.
नमस्कार
जी मैंने सीख लिया है तभी मैं इस लेख के साथ सबके समक्ष आने का साहस कर सका हूँ। यह लेख मैंने यही दिखने के लिए लिखा है की आप अपनी सोंच बदल कर जीवन में अपेक्षित बदलाव ला सकते हैं।
सकारात्मक सोच नयी उर्जा प्रदान करती है इतना तो जानता हूँ. नकारात्मकता से सफलता अधूरी रह जाती है. सकारात्मक यानी धनात्मक, नकारात्मक मतलब ऋणात्मक. हर हाल में हमें सकारात्मक सोच रखनी चाहिए और ईश्वर में सम्पूर्ण आस्था. ...पर ब्याव्हरिकता में हम सभी कभी न कभी निराशा के गर्त में होते हैं ...और उस समय ही ईश्वर या ईश्वर की प्रेरणा से उठ खड़े होते हैं. बहुत अच्छा लगा इस बहस में भाग लेकर! निष्कर्ष यही कि हमें सकरात्मक सोच ही रखनी चाहिए हर स्थिति में... तभी हम सफल हो सकते हैं....धन्यवाद!
धन्यवाद
धन्यवाद
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