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ओहहो सौरभ जी को बाग़ नहीं दिखाया !!!!!!!!!
फिर तो दो नन्हे-नन्हे जीवों से भी यकीनन नहीं ही मिलवाया होगा :((((
हा! हा! हा !
आ० सौरभ जी आप ने सही कहा उस वक़्त हम सभी काव्य सागर में डुबकियाँ लगाने में इतने व्यस्त हो गए थे की घर के बाहर ही नहीं निकले बाद में ये ख्याल मन में आया भी था|चलो अबकी बार गार्डन में ही काव्य गोष्ठी रखेंगे आपको जल्दी ही इनवाईट करुँगी |
अच्छा, तो आदरणीया राजेशजी ने मुझे अपना ये बाग नहीं दिखाया था !
:-)))
आ० राजेश जी,
इस मुलाक़ात के लिए थैंक्स एक-दूसरे को नहीं बल्कि समय को ही देना चाहिए....कि एक तरफ तो आप भी मुम्बई से वापिस आ गयी थीं और वहीं दूसरी तरफ मेरे पतिदेव को भी आपके घर के बिल्कुल पास ही में कुछ ऑफिशियल काम था...तो मसूरी से लौटते हुए ये खूबसूरत इत्तेफाक ..अचानक एक छोटी और मधुर मुलाक़ात में परिणत हो सका.
सच में वो पल जब कोइ अपना अपनी सी बातें करता है..समझता है..और हमें जो हम हैं वैसे ही सचमुच पहचानता है तो आसपास की सकारात्मकता हमें जिस उल्लास ऊर्जा सुकून आह्लाद से भर देती है...वो शब्दों के परे ही होता है.
सादर.
रीयली अविस्मर्णीय पल थे वो शब्दों में बयाँ नहीं कर सकती कि मुझे वो पल कितने अच्छे लगे.thanks for visit dear.
बागों में बहार है :-)
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