Posted on April 9, 2017 at 4:26pm — 8 Comments
Posted on April 2, 2017 at 12:06am — 6 Comments
समझता था ख़ुद को ज़र्रे से भी कमतर मगर
मिला वज़ूद से तो सैलाब निकला...
ज़ेहन में पड़े हैं अब भी बहुत से किर्च मगर
बहुतों के हिसाब से आफ़ताब निकला...
ढूंढा चाँद को सबने फ़क़त मगर
आँखवाला नहीं कोई भी जनाब निकला...
जाते हैं रस्ते से सब ही इसी तरह
कुछ के पैरों से रस्ता बेहिसाब निकला...
निकला न करो छुप कर हमसे मेरे नसीब
तुमसे भी कभी मेरा इख़्तियार निकला...
फ़ुरसत के पल न ढूंढा करो मिलने के
जब जब रहा ज़ेहन में तेरा दीदार…
Posted on February 27, 2017 at 12:00am — 4 Comments
मुझे याद है
जानबूझ कर वो मेरा सामान भूल जाना....
ज़ोर देकर तुमने
जिसे कहा बार बार कि ले जाना ...
कि इसी बहाने
चोरी से तुम उसे रख दोगी...
और मुझे फिर
एक बहाना मिल जाएगा
इस तरह मुस्कुराने का....
मौलिक और अप्रकाशित।
Posted on January 4, 2017 at 8:00pm — 14 Comments
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सदस्य कार्यकारिणीमिथिलेश वामनकर said…
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