ग़जलः
2122 2122 2122 212
मुन्तज़िर थे हम मगर मिलना मयस्सर ना हुआ
वस्ल तो तय थी नसीबा पर हमारा ना हुआ
चाँद रातों में तड़पता वस्ल की खातिर कोई
वो मुहर लब पर हुई कब वो नज़ारा ना हुआ
चाँदी की दीवारें आड़े आईं आशिक प्यार के
मुफलिसों को प्यार का या रब सहारा ना हुआ
जो पहुँचना था हमें अफलाक की ऊँचाइयों,
रह गये बैठे जमीं कोई हमारा ना हुआ ।
टूटती साँसे रही मकतल बना अस्पताल अब,
ज़िन्दगी तेरा भरोसा…
Added by Chetan Prakash on June 2, 2021 at 11:30am — 4 Comments
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