कितने ही मरुथल
छूट गये पीछे
पगली आशाओं को
मुट्ठी में भींचे
नदिया सी रेतीली
राहों में बहती
कलुष भी वहन करतीं
धाराएँ जीवन की
अवचेतन में, गुपचुप
सुख दुःख को बांचें
स्त्री मन की गाठें-
अनगिन असंख्य गाठें !
दादी अम्मा का
भैय्या को दुलराना
चुपके से, दूध- भात
गोद में खिलाना
किन्तु 'परे हट' कहकर,
उसे दुरदुराना
रह- रहकर कोचें
वह शैशव की फासें
स्त्री मन की गाठें-
अनगिन असंख्य गाठें !
जागी…
Added by Vinita Shukla on August 31, 2013 at 3:04pm — 16 Comments
Added by Vinita Shukla on August 23, 2013 at 11:15am — 24 Comments
Added by Vinita Shukla on August 20, 2013 at 9:37am — 14 Comments
टूट तो जाने ही थे
अन्तस् के बंध;
विष से उफनाये वे-
कटुता के छंद !
शब्द ही तो थे...
वह उद्दात्त मन का…
ContinueAdded by Vinita Shukla on August 4, 2013 at 4:00pm — 34 Comments
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