२१२२/ २१२२/२१२२/२१२
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जाने कितने ग़म उठाता हूँ ख़ुशी के नाम पर,
ज़हर मै पीता रहा हूँ तिश्नगी के नाम पर.
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ऐ सिकंदर!! जंग तूने जो लड़ी, कुछ भी नहीं,
जंग तो मै लड़ रहा हूँ ज़िन्दगी के नाम पर.
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अधखिली कलियों की बू ख़ुद लूटता है बागबाँ,
शर्म सी आने लगी है आदमी के नाम पर.
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शुक्रिया उस शख्स का जिसने बना…
ContinueAdded by Nilesh Shevgaonkar on September 6, 2014 at 5:25pm — 27 Comments
२१२२/११२२/22 (११२)
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यूँ वफ़ाओं का सिला मिलता रहा,
ज़ख्म हर बार नया मिलता रहा.
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एक छोटी सी मुहब्बत का गुनाह,
और इल्ज़ाम बड़ा मिलता रहा.
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मै तुझे दोस्त मेरा कैसे कहूँ,
तू भी तो बन के ख़ुदा मिलता रहा..
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कोई मंज़िल न मिली मंज़िल पर,
सिर्फ मंज़िल का पता मिलता रहा.
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Added by Nilesh Shevgaonkar on September 4, 2014 at 4:30pm — 27 Comments
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