22/ 22/ 22/ 22/ 22/ 22/ 22/ 2
.
जैसे धुल कर आईना फ़िर चमकीला हो जाता है,
रो लेता हूँ, रो लेने से मन हल्का हो जाता है.
.
मुश्किल से इक सोच बराबर की दूरी है दोनों में,
लेकिन ख़ुद से मिले हुए को इक अरसा हो जाता है.
.
फोकस पास का हो तो मंज़र दूर का साफ़ नहीं रहता,
मंजिल दुनिया रहती है तो रब धुँधला हो जाता है.
.
मन्दिर मस्जिद गुरुद्वारे में कोई काम नहीं मेरा
अना कुचल लेता हूँ अपनी तो सजदा हो जाता है.
.
ख़ुद की जानिब क़दम बढ़ाये जाता हूँ मैं सदियों से,
कभी सफ़र में फ़ानी दुनिया में रुकना हो जाता है.
.
यादों के नन्हे छौने जब चरते हैं माज़ी की दूब
पीछे पीछे फिरता ये मन चरवाहा हो जाता है.
.
हरदम लड़ता रहता है हर बात पे मुझ से मेरा दिल
और मेरे पीछे हटते ही समझौता हो जाता है.
.
जब वो गले लगाता है तो रूह महकती है मेरी,
बारिश की पहली बूँदों से घर सौंधा हो जाता है.
.
“नूर” वली से लगते हो जब मैख़ाने के होते हो
लेकिन दुनिया के होते ही सच झूठा हो जाता है..
.
निलेश "नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित
Comment
आदरणीय सादर प्रणाम
बता नहीं सकता इस ग़ज़ल को पड़ने के बाद कैसा लगा
इक इक शैर नायाब लगा नये जैसा लगा..........
मेरी सबसे पसंदिदा लाईन जो हर जगह याद आ ही जाती है
" रो लेते हैं रो लेने से मन हल्का हो जाता है "
धन्यवाद ऐसी नायाब ग़ज़ल से रू ब रु कराने के लिये........
शुक्रिया आ. अजय जी
आदरणीय निलेश जी.
उम्दा ग़ज़ल हुई है. शुभकामनाएं.
सादर
धन्यवाद आ. सौरभ सर,
निलेश (कृष्ण ) नाम है... अगली बार शिशुपाल के 100 गुनाह माफ़ कर दूँगा...
सादर
आ. सौरभ सर,
आपकी टिप्पणी की हमेशा ही प्रतीक्षा रहती है ...आज बड़े दिनों बाद आपकीदाद पाकर संतुष्टि हुई...
आपके दूसरे कमेंट से भी पूर्णत: सहमत हूँ कि रचना लेखक और पाठक को करीब लाती है ,,,उसी सम्बन्ध से रचनाकर्म समृद्ध भी होता है ..... आप सभी टिप्पणियों में वो सबसे पहली टिप्पणी देखें जिसके कारण मुझे बाद की सभी बातेंविवशता में लिखनी पडी...
कोई कैसे किसी के भावों को फैशनेबल सूफिज्म का हवाहवाई दर्शन कह के व्यंग्य कर सकता है... करेगा तो उचित जवाब भी पायेगा ...
सादर
इस प्रस्तुति पर आयी हुई सारी टिप्पणियाँ देख गया. मन व्यथित तो है लेकिन संयत भी है. आदरणीय नीरज जी और आदरणीय नीलेश जी दोनों एक-सी बातें दो ढंग में कर रहे हैं. ओबीओ के ढंग में ये बातें करें तो दोनों को एक-दूसरे की महती आवश्यकता है. शाब्दिक प्रस्तोता को पाठक-श्रोता चाहिए और श्रोता-पाठक को प्रस्तोता. दोनों के बीच अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है. और पाठक-श्रोता कई बार वाहवाही नहीं करता. तो प्रस्तोता भी अपनी शैली को भिन्न-भिन्न आयाम देता रहता है. साहित्य को दोनों चाहिए.
शुभेच्छाएँ
आज अरसे बाद आ पाया हूँ .. और आपकी प्रस्तुति देख रहा हूँ ..
आप बहुत बदमाश हैं .. काहे ऐसा लिखते हैं जी ?..
जलन होती है..
सलामत रहें.. सलामत रहें, आदरणीय नीलेश नूर जी
शुभ-शुभ
शुक्रिया आ. डॉ साहब
शुक्रिया आ. नन्द किशोर जी
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online