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तो फिर जन्नतों की कहाँ जुस्तजू हो
जो मुझ में नुमायाँ फ़क़त तू ही तू हो.
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ये रौशन ज़मीरी अमल एक माँगे
नदामत के अश्कों से दिल का वुज़ू हो.
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जो तख़लीक़ सब की सभी से जुदा है
भला राह मुक्ति की क्यूँ हू-ब-हू हो.
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कभी हो ख़यालात से ज़ह’न ख़ाली
ख़लाओं से भी तो कभी गुफ़्तगू हो.
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वो मुल्हिद नहीं हो मगर ये है मुमकिन
उसे बस सवालात करने की ख़ू हो.
(मुल्हिद--नास्तिक) (ख़ू -आदत)
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निलेश "नूर"
मौलिक/…
Added by Nilesh Shevgaonkar on September 18, 2024 at 4:51pm — 4 Comments
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