मेरी ज़िंदगी ग़म का जंगल रही है
खुशी तेरे पैरों की चप्पल रही है
कहीं कोई तो बात है साथ उसके
कमी बेवफ़ा की बड़ी खल रही है
इसी ग़म का तो बोझ है मेरे जी पे
इसी ग़म से तो शायरी फल रही है
उमीदें, वफ़ायें, मुहब्बत, भरोसा
सभी ख़त्म हैं, आरजू पल रही है
मैं इस ज़िंदगी को कहूँ तो कहूँ क्या
जुदा है मुहब्बत से और चल रही है
परेशान हूँ उस सनम के लिए मैं
वही जो मुझे प्यार से छल रही है
मेरा ज़िस्म है मोम का एक पुतला
बहुत तेज़ है आग जो जल रही है
गिरावट है हर शय में मेरी मुसलसल
मगर तेरी चाहत नहीं ढ़ल रही है
है मुमकिन बहुत शाम तक लौट आये
सुना है वो थोड़ी सी चंचल रही है
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आ. भाई अनिल जी, सादर अभिवादन। गजल का प्रयास अच्छा है। गुणीजनों के विचारों का संज्ञान लेकर इसे और बेहतर बना सकते हैं । फिलहाल बधाई स्वीकारें।
आपके सतत प्रयास और अभ्यास के लिए हार्दिक बधाई, भाई राहुल डांगी पांचाल जी.
ग़ज़ल और समय चाहती तो है लेकिन पृष्ठभूमि की तुष्टि के साथ. नुख्ता पर पटल के दो विद्वानों ने अपनी राय रखी है. भाषायी तौर पर मैं बहुत प्रभावित नहीं होता. श्रद्धेय बुद्धिनाथ शर्मा की राय मानें तो या तो नुख़्ते को लेकर या तो पूरी तरह सजग हो जायँ, या, त्राण पा लें. आधी-अधूरी जानकारी और तदनुरूप प्रयोग आधा तीतर, आधा बटेर का परिणाम ही देंगे. जैसे, आपने ज़िंदगी तो लिखा, लेकिन उस हिसाब से ज़िंदग़ी सही शब्द है.
आगै, आपकी रुचि और उसके अनुसार प्रयास.
जय-जय
जनाब राहुल डांगी जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है, बधाई स्वीकार करें ।
'कहीं कोई तो बात है साथ उसके'
इस मिसरे पर जनाब अमीरुद्दीन जी से सहमत हूँ ।
नुक़्तों के बारे में भी उनकी बातों पर ध्यान दें ।
जनाब राहुल दांगी पांचाल जी आदाब, अच्छी ग़ज़ल हुई है मुबारकबाद पेश करता हूँ। चन्द अशआर ग़ज़लियत के ऐतबार से बदलाव के हामिल हैं -
'कहीं कोई तो बात है साथ उसके - यार उसमें
कमी बेवफ़ा की बड़ी खल रही है'
'परेशान हूँ उस सनम के लिए मैं - सनम शब्द पुल्लिंग है हालांकि यह मर्द और औरत दोनों के लिए इस्तेमाल होता है, जैसे शब्द- महबूब
वही जो मुझे प्यार से छल रही है' 'सनम' की वज्ह से रदीफ़ से इन्साफ़ नहीं हो रहा है, यहाँ 'सनम' की जगह 'बला' कर सकते हैं।
भाषा की शुद्धता के लिए ख़ुशी और आरज़ू शब्दों पर नुक़्ता लगा लें और जिस्म और ढल शब्दों से नुक़्ता हटा लें। सादर।
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