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मुक्तक (आधार छंद - रोला )

मुक्तक
आधार छंद - रोला
10-10-21

छूट गए सब संग ,देह से साँसें छूटी ।
झूठी देकर आस, जगत ने खुशियाँ लूटी ।
रिश्तों के सब रंग ,बदलते हर पल जग में -
कैसे कह दें श्वास ,देह से कैसे टूटी ।

---------------------------------------------------

बहके-बहके नैन, करें अक्सर मनमानी ।
जीने के दिन चार, न बीते कहीं जवानी ।
अक्सर होती भूल, प्यार की रुत जब आती -
भर देती है शूल, जवानी मैं नादानी  ।

सुशील सरना /

मौलिक एवं अप्रकाशित 

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on October 27, 2021 at 7:08am

आ. भाई सुशील जी, सादर अभिवादन। सुंदर रचना हुई है । हार्दिक बधाई। 

Comment by Sushil Sarna on October 16, 2021 at 7:16pm
आदरणीय समर कबीर जी, आदाब, सृजन आपकी मनोहारी प्रशंसा का दिल से आभारी है सर । सहमत
Comment by Samar kabeer on October 11, 2021 at 7:21am

जनाब सुशील सरना जी आदाब, मुक्तक का अच्छा प्रयास हुआ है, बधाई स्वीकार करें I 

`झूठी देकर आस, जगत ने खुशियाँ लूटी `

इस पंक्ति में `ख़ुशियाँ` शब्द बहुवचन है इसलिये `लूटी` की जगह `लूटीं` होना चाहिए , तुकांतता ग़लत हो रही है , ध्यान दें !

Comment by Sushil Sarna on October 10, 2021 at 8:42pm
आदरणीय चेतन प्रकाश जी सृजन के भावों को आत्मीय मान से सम्मानित करने का दिल से आभार सर ।
Comment by Chetan Prakash on October 10, 2021 at 7:33am

 नमस्कार,  भाई  सुशील सरना  ! खूबसूरत  छंद आधारित  मुक्तक हैं, दोनों, बधाई  !

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