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दोहा पंचक. . . . विविध

दोहा पंचक. . . विविध

देख उजाला भोर का, डर कर भागी रात ।
कहीं उजागर रात की, हो ना जाए बात ।।

गुलदानों में आजकल, सजते नकली फूल ।
सच्चाई के तोड़ते, नकली फूल उसूल ।।

धर्म - कर्म  ईमान सब, बेमतलब की बात ।
क्षुधित उदर को चाहिए, रोटी चावल भात ।।

आँधी आई अर्थ की, दरकी हर दीवार ।
अपनी ही दहलीज पर, रिश्ते सब लाचार ।

नवयुग के परिवेश में, प्यार बना व्यापार ।
प्यार नहीं है  जिस्म को, जिस्मानी दरकार ।।

सुशील सरना / 9-11-24

मौलिक एवं अप्रकाशित 

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' 4 hours ago

आ. भाई सुशील जी, सादर अभिवादन। सुंदर दोहे हुए हैं।हार्दिक बधाई।

भाई रामबली जी का कथन उचित है। "केवल रोटी भात" करके समाधान हो सकता है। 

Comment by Sushil Sarna 9 hours ago

आदरणीय रामबली जी सृजन आपकी मनोहारी प्रतिक्रिया से समृद्ध हुआ । बात  आपकी सही है रिद्म में विकल्प न होने से चावल काम में लिया । रोटी दाल व भात कैसा रहेगा सर 

Comment by रामबली गुप्ता yesterday

बड़े ही सुंदर दोहे हुए हैं भाई जी लेकिन चावल और भात दोनों एक ही बात है। सम्भव हो तो भात की जगह दाल सेट करिये।

कृपया ध्यान दे...

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