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मन की

विभिन्न चेष्टाओं के

फिसलने धरातल पर

असंख्य आवर्तन

धकेलती कुण्ठाओं के.

 

पूर्वजों से

अर्जित संस्कारों का क्षय

आत्मघाती विचारों का

प्रस्फुटन और लय.

 

क्षितिज अवसादों के,

दिखाते शिथिल आयामों की

सूनी डगर

टूटते स्वप्नों पर

पथराई नजर.

 

उभरती शंकाएं, विचलित श्रद्धाएं.

हाहाकार करते, प्रश्रय खोजते

थके हारे प्रयास

अनन्त शून्य की अनन्त यात्रा

भय से बिखरा विश्वास.

 

त्रासित प्राण

कब लेगा विश्राम?

या पाएगा परित्राण

जब होगा प्रयाण?

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 18, 2013 at 2:29pm

फिसलते धरातल का अर्थ इस हिसाब से कत्तई न लें कि धरातल फिसलने लगी. हालाँकि शाब्दिक अर्थ यही होता है. शब्दार्थ के अलावे निहितार्थ औ भावारथ भी बिम्ब को कई-कई मायनों में अभिव्यक्त करते हैं.

सादर

Comment by डा॰ सुरेन्द्र कुमार वर्मा on April 18, 2013 at 1:35pm

मान्यवर पांडेयजी,

आभार. पहले भी निवेदन कर चूका हूँ  कि फिसलन भरे धरातल को फिसलनी या  'फिसलने धरातल' लिखने के अतिरिक्त विकल्प नहीं मिला. हम फिसलते हैं, धरातल नहीं. जिसे dialect कहा जाता है, भाषा के स्थानीय स्वरुप को, वो यहाँ राजस्थान में काफी फिसलना या फिसलनी है और फिसलने होने पर यहाँ तो कोई अंतर नहीं पड़ता. अब जो जिस प्रकार से फिसलना चाहे, स्वतंत्र है, मुझे किसी परिवर्तन, सुझाव या स्वरुपांतर से कोई आपत्ति नहीं है. आपकी अकिंचन पर  दृष्टि अदृष्ट के भय को कम करती है!


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 18, 2013 at 2:13am

’आज’ का बियाबान कितना भयातुर करता है !

सुन्दर रचना के लिए हृदय से बधाई.

मन की

विभिन्न चेष्टाओं के

फिसलने धरातल पर

असंख्य आवर्तन

धकेलती कुण्ठाओं के.... .  में फिसलते धरातल होना समीचीन होगा.

सादर

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on April 13, 2013 at 3:47pm

उभरती शंकाएं, विचलित श्रद्धाएं.

हाहाकार करते, प्रश्रय खोजते

थके हारे प्रयास

अनन्त शून्य की अनन्त यात्रा

भय से बिखरा विश्वास.

बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति 

बधाई सर जी 

Comment by डा॰ सुरेन्द्र कुमार वर्मा on April 12, 2013 at 9:22pm

सभी सुधि पाठकों का आभार: सुझाव 'फिसलनी धरातल' के सही और स्वीकार्य. (परिणाम तो फिसलन ही...!!!)

Comment by Ashok Kumar Raktale on April 12, 2013 at 8:30am

सुन्दर  अभिव्यक्ति आदरणीय. "फिसलने" को "फिसलनी" किया जा सकता है क्या?  

Comment by बृजेश नीरज on April 10, 2013 at 6:25pm

बहुत सुन्दर प्रयास! बधाई आपको।

Comment by वेदिका on April 10, 2013 at 2:13pm

उभरती शंकाएं, विचलित श्रद्धाएं.
अंतर के द्वंद को उभरती रचना पर  शुभकामनायें स्वीकारे  आदरणीय सुरेन्द्र जी!
वैसे फिसलने धरातल का एक और विकल्प हो सकता है फिसलनी धरातल .....
सादर गीतिका 'वेदिका'

Comment by ram shiromani pathak on April 9, 2013 at 7:49pm

पूर्वजों से

अर्जित संस्कारों का क्षय

आत्मघाती विचारों का

प्रस्फुटन और लय.

 

क्षितिज अवसादों के,

दिखाते शिथिल आयामों की

सूनी डगर

टूटते स्वप्नों पर

पथराई नजर.

अच्‍छी रचना हुई है आदरणीय !हार्दिक बधाई

Comment by डा॰ सुरेन्द्र कुमार वर्मा on April 9, 2013 at 5:32pm

राजेशजी की भाव ग्राहिता को प्रणाम. मेरी अभिव्यक्ति की कमजोरी है... फिसलन भरे धरातल को फिसलानी या  'फिसलने धरातल' लिखने के अतिरिक्त विकल्प नहीं मिला. हम फिसलते हैं, धरातल नहीं...पृष्ठभूमि की ग्रहणशीलता के लिए आपका आभार. 

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