उफ़ ! वह रात... आँखों देखी – 3
भूमिका : मैं इससे पहले आपको बता चुका हूँ कि भारत के अंटार्कटिका अभियान की सूचना कब और क्यों हुई. अंटार्कटिका का सूक्ष्म परिचय भी मैंने आपको दिया है लेकिन यह एक ऐसा विशाल विषय है कि इस पर किसी भी आलोचना या विचार विमर्श का अंत मुझे नहीं दिखता.
आप सब जानते हैं कि अंटार्कटिका एक महाद्वीप है जिसको घेरकर दक्षिण महासागर (Southern Ocean ) का रहस्यमय साम्राज्य है. यह महाद्वीप पृथ्वी के दक्षिण छोर पर होने के कारण यहाँ दिन-रात का चक्र कुछ दूसरे ही नियम से चलता है. ठीक दक्षिण ध्रुव पर छह महीने लगातार सूर्य की रोशनी मिलती है और अगले छह महीने तक लगातार अँधेरा रहता है. जैसे-जैसे हम ध्रुव से दूर हटते जाते हैं अर्थात महाद्वीप के किनारे की ओर अग्रसर होते हैं,प्रकाश और अंधकार की यह अवधि घटती जाती है. इसका तात्पर्य है कि लगातार अंधकार और लगातार सूर्य के क्षितिज से ऊपर रहने का समय कम होता जाता है तथा इन दो अवस्थाओं के बीच में सूर्योदय व सूर्यास्त दोनों होते हैं. एक स्थान पर सूर्य क्षितिज से ऊपर कितनी देर रहेगा अथवा सूर्यास्त के बाद कितनी देर में सूर्योदय होगा यह निर्भर करता है उस स्थान की भौगोलिक स्थिति पर और प्रतिदिन इस समय में एक निश्चित नियम से बदलाव आता है.
दक्षिण गंगोत्री स्टेशन महाद्वीप के बिलकुल किनारे बसा हुआ है. यहाँ दो महीने तक लगातार अँधेरा और दो महीने तक लगातार प्रकाशमय रहता है. बीच की अवधि में सूर्योदय और सूर्यास्त होते रहते हैं. इस क्षेत्र में नवम्बर के मध्य से लेकर जनवरी के तीसरे सप्ताह तक सूर्यास्त होता ही नहीं है. फिर सूर्यास्त होना शुरु होता है. पहले दिन मात्र कुछ सेकण्ड के लिए सूर्यास्त होता है. यह अवधि हर रोज़ बढ़ती जाती है. मार्च से अँधेरे का दामन दिन के उजाले पर हावी हो जाता है और उजाले की अवधि घटते-घटते मई के तीसरे सप्ताह में सूर्यास्त होता है तो अगले दो महीने तक उसके दर्शन नहीं होते. जुलाई के तीसरे सप्ताह में किसी दिन कुछ सेकण्ड के लिए सूर्योदय के साथ एक नया चक्र शुरु हो जाता है.
यही कारण है कि अंटार्कटिका अभियान वहाँ की गर्मियों में अर्थात नवम्बर-दिसम्बर के महीने में भेजा जाता है. तापमान के नीचे गिरने के साथ ही फरवरी में दक्षिण महासागर (Southern Ocean) धीरे-धीरे जमना शुरु हो जाता है. मई में जब सूर्य दो महीने के लिए विदा लेता है तब तक यह समुद्र बहुत दूर तक – लगभग दो हजार किलोमीटर दूर तक – जम गया होता है. इस मोटे बर्फ़ को तोड़कर किसी जहाज़ का अंटर्कटिका के नज़दीक पहुँचना सम्भव नहीं होता.
ऑक्टोबर से यह समुद्री बर्फ़ पिघलनी शुरु होती है और दिसम्बर का अंत आते आते लगभग विलुप्त हो जाती है. फलत: अभियात्री जहाज अंटार्कटिका के शेल्फ आईस तक पहुँच सकता है. शेल्फ आईस महाद्वीप से लगा हुआ वह समुद्री हिस्सा है जो हमेशा जमा रहता है. अंटार्कटिका को घेरता हुआ इस शेल्फ आईस की औसत मोटाई लगभग 300 मीटर है.
दक्षिण गंगोत्री स्टेशन ऐसे ही शेल्फ आईस पर बनाया गया था. बर्फ में बने होने के कारण यह धीरे धीरे नीचे धँसता जा रहा था और साथ ही धूल की तरह उड़ते बर्फ के कण हर तूफानी मौसम में इसे ऊपर से ढँकते जा रहे थे. पहले ही कह चुका हूँ 1986 फरवरी में जब हमने स्टेशन संभाला, बर्फ की सतह स्टेशन के छत के पास पहुँच चुका था.
तारीख अभी ठीक से याद नहीं, शायद 25 फरवरी 1986 के दिन जहाज एम.वी. थुलीलैण्ड शीतकालीन दल के हम चौदह लोगों को शेल्फ आईस पर छोड़कर हम से दूर होता गया, घर की ओर अपनी वापसी यात्रा में. इससे पहले लगभग दो घण्टे तक भारतीय वायुसेना और नौसेना के हेलिकॉप्टरों ने हमें आकाश से सलामी दी. वह दृश्य देखने लायक था.....हम चौदह लोग विशेष गौरवान्वित हो रहे थे. जैसे – जैसे जहाज़ के चलने का समय नज़दीक आता गया दोस्तों के बिछुड़ने का अहसास जैसे हम पर हावी होता गया. शुभकामनाओं का दौर निरंतर चल रहा था. लग रहा था जीवन भर दोस्ती निभाने की कसमें खाते नौजवान वैज्ञानिक और सैनिकों के वादे कभी ख़त्म नहीं होंगे. अभियान दल के नेता के लिये बहुत मुश्किल समय था सबकी भावनाओं का आदर करते हुए, नियम-श्रृंखला अटूट रखकर समय से कार्यक्रम के अनुसार सब काम पूरे करना. अंतत: वह समय भी आ ही गया और जहाज़ ने अपना लंगर उठा लिया. तीन बार – अंटार्कटिका में पहली बार, भोंपू (hooter) बजाकर जहाज़ के कप्तान और नाविकों ने हमें सलामी दी. देखते ही देखते वह विशाल जहाज़ हमारी आँखों से ओझल हो गया. एक सन्नाटा सा छा गया इस बोध के साथ कि अगले दस महीने तक हम किसी पंद्रहवें भारतीय से रूबरू नहीं होंगे और उस सुनसान महाद्वीप में निकटतम मानव उपस्थिति 100 किलोमीटर दूर रूसी वैज्ञानिक केंद्र नोवोलज़ारेव्स्काया (Novolazarevskaya) में थी. लेकिन इसी अनुभूति के समानांतर हम लोगों के थके हुए शरीर और मन में एक अद्भुत प्रशांति छा गयी परिचित दुनिया की बे-लगाम दौड़ और आपाधापी से मुक्ति पाकर.
कथा : हवा थम गयी थी, शायद हमारी भावनाओं को पढ़ने के प्रयास में. शीतकालीन दल के नेता ने, जिन्हें स्टेशन कमाण्डर कहा जाता है, आग्रह किया कि बिना और देरी किये हम अपने स्टेशन लौट चलें तथा अभियान के नये अध्याय की प्रस्तुति प्रारम्भ करें. हमारी पिस्टन बुली (Pisten Bully) गाड़ी समुद्र की ओर पीठ कर उस बर्फीले रेगिस्तान में दौड़ चली, बर्फ पर पहले से बने उसके ट्रैक के निशान, कम्पास और जी.पी.एस. यंत्र की सहायता लिये. इनकी सहायता के बिना 15 किलोमीटर दूर दक्षिण गंगोत्री स्टेशन तक पहुँचना सम्भव नहीं होता क्योंकि हर तरफ केवल सफेद रेगिस्तान था. गाड़ी का रेडियो हर पल हमें जहाज़ की स्थिति से अवगत करा रहा था, जहाज़ से हमारे साथी लोग हमसे बात करना चाहते थे लेकिन अब हमें यह सब बेतुका लगने लगा था. हम अंटार्कटिका के सन्नाटे में मानो समाहित हो गये थे.
याद है दक्षिण गंगोत्री पहुँचने के तुरंत बाद हम लोगों ने हल्का भोजन किया. दलनेता ने कुछ आवश्यक बातें कही और सात महीने के अथक परिश्रम के बाद पहली बार निश्चिंत निद्रा में खो जाने की तमन्ना लेकर हम सब अपने अपने कमरों में बंकर पर जाकर लेट गये. हर कमरे में ऊपर नीचे दो बंकर थे. मेरे वरिष्ठ साथी ऊपर वाले बंकर पर चल्रे गये और मैंने नीचे वाला बंकर ले लिया. महीनों की थकावट से शरीर चूर-चूर हो रहा था. हम दोनों बिना कोई बात किये स्लीपिंग बैग के अंदर घुस गये. नींद ठीक से आयी थी या नहीं ध्यान नहीं है – बंदूक से गोली चलने की आवाज़ ने हमें तटस्थ कर दिया. आँखें खुल गयीं और एक अजीब सा डर मन में डेरा डालने लगा. बंदूक अर्थात अपराध. क्या अंटार्कटिका में भी अपराध भावना हमारा पीछा नहीं छोड़ेगी ? .......एक....दो...तीन.... लगातार तीन धमाके और हुए. अब लेटे रहना अनुचित भी था और असम्भव भी. हम दोनों एक झटके में अपने पैरों पर थे. मन में एक ही प्रश्न था ‘कौन किसको मार रहा है...आखिर क्यों’ . हम कमरे से बाहर निकले तो कॉमन रूम में दो तीन और साथी मिल गये जो हमारी ही तरह आवाज़ सुनकर निकल आए थे. हम लोगों ने स्टेशन का चप्पा चप्पा छान मारा. इस दौरान भी हमें गोली चलने की आवाज़ सुनाई दी, यहाँ तक कि पूरे स्टेशन में हल्के कम्पन का भी आभास हुआ. लेकिन हमें कुछ भी पता नहीं चला. कुछ देर बाद आवाज़ आना बंद हुआ. हम वापस बिस्तर पर गये अशांत चित्त से. नींद नहीं आयी तो स्टेशन कमाण्डर को हमने जगाया. चौदह लोगों के इस दल में वे ही एकमात्र ऐसे सदस्य थे जिन्हें अंटार्कटिका में एक वर्ष बिताने का पूर्व अनुभव था. सारी बातें बयां करने के बाद हमने आशंका व्यक्त की कि कहीं हमारे ऊपर सन्नाटे का असर तो नहीं हो रहा जिसकी वजह से हमारा दिमाग कल्पना करने लगा है !! हमारी आशंका सुनने के बाद बड़े शांत ढंग से उन्होंने कहा “ मैंने भी वह आवाज़ सुनी थी लेकिन सोचा नहीं था कि आपको उसका कारण नहीं मालूम ” . फिर एक कप चाय पीते पीते उन्होंने बताया कि ज्वार आने के समय समुद्र की लहरें नीचे से शेल्फ आईस को आघात करती हैं. इस आघात के फलस्वरूप शेल्फ आईस में दरारें पड़ती हैं और कहीं कहीं पर वे टूट भी जाती हैं. ऐसे हालात में जिस शब्द तरंग की उत्पत्ति होती है वह बर्फ़ में से होकर बहुत दूर तक फैल जाती है. दक्षिण गंगोत्री स्टेशन में हमारा बंकर बर्फ के अंदर 35 फीट नीचे होने की वजह से हमारे कान में वह आवाज़ सीधे पहुँची और हमें गोली चलने का भ्रम हुआ. यह हम लोगों के लिये एक असाधारण अनुभव था. मन ही मन मैंने निश्चय किया कि चैतन्य रहूँगा.....ऐसा अवसर फिर मिले न मिले.... हर अनुभव को आत्मसात करने का भरसक प्रयत्न करता रहूँगा....
....और अंटार्कटिका ने तो मेरे लिये प्रकृति का एक अनोखा पिटारा खोल दिया...
( मौलिक व अप्रकाशित सत्य घटना )
महाशून्य से अंटार्कॅटिका दक्षिण महासागर से घिरा हुआ. दक्षिण अमरीका, अफ्रीका, मदागास्कर और ऑस्ट्रेलिया भी दिख रहे हैं.
छत के किनारे तक बर्फ़ में डूबा हुआ दक्षिण गंगोत्री स्टेशन - 1986
बर्फ के अंदर करीब 40 फीट नीचे दक्षिण गंगोत्री स्टेशन का कॉमन रूम
शेल्फ आईस के किनारे अभियात्री जहाज़
Comment
श्रद्धेय विजय जी, हमेशा की तरह आपका स्नेह मिला....हार्दिक आभार. दक्षिण गंगोत्री का कॉमन रूम 1983-84 में तीसरे अभियान के समय स्टेशन बनने के साथ ही बना था. उस समय पूरा स्टेशन बर्फ़ की सतह पर था. फिर समय के साथ वह पूरा structure थोड़ा नीचे धँसता गया और उड़ते हुए बर्फ़ के बारीक कण स्टेशन बिल्डिंग से टकराकर वहीं ढेर होते गये तथा बर्फ़ की सतह लगातार ऊपर आता गया. इस तरह हम लोगों का वह प्यारा सा स्टेशन बर्फ़ में समाहित होता गया. आज उसका नामोनिशान नहीं है...केवल यादें हैं. आने वाली किसी कड़ी में मैं और चित्र देकर यह बात स्पष्ट करूँगा. आपका स्नेह और आशीष बने रहना चाहिये. सादर.
आदरणीय सौरभ जी, यदि किसी रचना को आप जैसे पाठक की टिप्पणी मिल जाए तो रचना की सार्थकता को विशेष आयाम मिल जाता है. प्रथम अनुच्छेद में जिस पाण्डित्य की झलक मिलती है वह आम पाठक की लेखनी में दुर्लभ है.....मेरा अंटार्कटिका पर अपने अनुभव साझा करना तो मानो बहाना था....जिस ज्ञान के साथ परिचय हो रहा है उसकी विशालता को सादर नमन. इच्छा है कभी अवसर मिलने पर स्लाईड्स की सहायता से आप इच्छुक लोगों को उस अद्भुत महाद्वीप में मेरे अनुभवों के साथ परिचय कराऊंगा. आगे की कड़ी लिखने के लिये जो सहज और स्वत:स्फूर्त प्रोत्साहन दिया उसके लिए हार्दिक आभार.
आदरणीय शरदिन्दु जी:
आपका यह तीसरा लेख पढ़ कर आगामी वर्णन की उत्सुकता और भी बढ़ गई है।
इसे पढ़ते हुए एक ख़याल बार-बार आता रहा कि आप सभी कितने साहसी होंगे,
और इस प्रयास से आपको जीवन की कठिनाईयाँ सहने के लिए किस प्रकार की
प्रेरणा मिली होगी!
दक्षिण गंगोत्री स्टेशन के दो महीने तक प्रकाशमय होने के विषय में मैं समझ
सकता हूँ कि पहली बार ऐसे में आपको कैसा लगा होगा ... नीरा जी और मैं कुछ
वर्ष हुए अलास्का गए थे... वहाँ क्षितिज के एक तरफ़ थोड़ा सा अंधेरा था, और
अन्य सभी दिशाओं में सारी रात दिन का प्रकाश रहता था।
४० फ़ुट नीचे कामन रूम ... इसको कैसे बनाया गया ... यह जानने की और
जिज्ञासा है।
आपको धन्यवाद और बधाई।
सादर,
वि्जय निकोर
प्रकृति की सुषमा किन-किन रूपों में अभिव्यक्त होती है यह कौतुक मात्र नहीं अबूझ सा रहस्य ही है. इस धरती के आकाश के अलग अंदाज़ हैं तो समन्दर का बहुत बड़ा हिस्सा खँगाल लेने के बावज़ूद हम इन गहराइयों को कितना कम जानते हैं !
सहारा और थार का मरु अपने विन्यास में गोबी के मरु से कितना भिन्न है ! वहीं लद्दाख के परग्रही के से प्रतीत होते अव्यक्त पठार इंडीज़ की ऊँचाइयों के सौंदर्य से नितांत भिन्न होते हुए भी अपनी मोहक संज्ञा के कारण हमारा बराबर ध्यान खींचते हैं. हिमालय का मुखर पौरुष आल्प्स की कमनीयता को मानों मौन प्रेम-पत्र लिखता रहता है. भारत की गर्भिणी शस्यशामला धरती अंटार्कटिका के निपट श्वेत साम्राज्य के सापेक्ष लद-फद बनी रहती है, लेकिन वहाँ ऊसर मात्र हो यह भी नहीं है. जीवन का जो रूप वहाँ है वह आर्कटिक के सपाटपन से एकदम भिन्न है.
ऐसे में आप जैसे अति भाग्यशालियों द्वारा पोस्ट हुआ यह रोमांचक यात्रा-वृतांत हम सभी को खूब लुभाता है. कई-कई रोचक घटनाओं को समेटे तथा उम्मीदी-नाउम्मीदी के बीच जिये जा रहे जीवन को हमारे समक्ष प्रस्तुत करना हम सब पर आपका अतिशय उपकार है, आदरणीय शरदिन्दुजी. जिन कठिन परिस्थितियों में रह कर भारत के सपूत मानवता की भलाई के लिए हो रहे दूरगामी कार्यों को सम्पन्न कर रहे हैं वह प्रत्येक भारतीय के लिए आत्मगौरव का कारण है.
इस आलेख में आपने जिस तरह से तथाकथित गोली चलने की ध्वनि पर मानव-सुलभ प्रतिक्रिया प्रस्तुत की है, वह इस लेख का रोचक विन्दु है. फिर उसके परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत हुई जानकारी प्रकृति के अद्भुत रूप से परिचित कराती है.
पारदर्शियाँ अत्यंत सुन्दर हैं, विशेषकर वह जिसमें धरती के दक्षिणी गोलार्ध का अनुप्रस्थ रूप प्रदर्शित है. सही कहूँ, ऐसा चित्र मैं पहली बार दख रहा हूँ. और कॉमन-रूम का चित्र रोमांचित कर गया, गोया हम भी उस विशिष्ट स्थान का एक भाग हों ! वहीं पार्श्व में काष्ठ दीवार पर श्रीमती गाँधी का बड़ा सा चित्र इस एक्सपेडिशन की सफलता में उनके योगदान के प्रति सभी संलग्नों की कृतज्ञता के भाव की सुन्दर अभिव्यक्ति है.
इस शृंखला में आगे की कड़ियों की प्रतीक्षा रहेगी.
सादर
बधाई एव सुभकामनाए
प्रिय किशन कुमार जी, आपका हार्दिक आभार. मेरे अनुभव के आधार पर कहानी आप अवश्य लिख सकते हैं....क्यों नहीं....क्या इसमें कोई रोक है? और भी अनुभव शीघ्र ही पोस्ट करूंगा. आप लोग प्रेरणा देते रहें, बड़ी कृपा होगी. सादर.
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