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भारत तीर्थ

 (कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कविता से क्षमायाचना सहित कुछ पंक्तियों का हिन्दी भावानुवाद)
ओ मेरे मन जागो जागो

पुण्य तीर्थ में धीरे,

भारत के जन-मानस के
सागर तीर में.
यहाँ खड़े कर बाहु प्रसारित

नर-नारायण को नमन करुँ मैं,
उदार छन्द में परम आनन्द से,

उनका आज वंदन करुँ मैं.
ध्यानमग्न है यह धरती -

नदियों की माला जपती,

यहीं नित्य दिखती है मुझको

पवित्र यह धरणी रे -

भारत के जनमानस के सागर तीर में.
किसका था आवाहन, मानव
धारा में ऐसे लीन हुआ -

कौन जानता कहाँ से बह कर
सागर में विलीन हुआ.
यहाँ आर्य और यहीं अनार्य

यहाँ द्रविड़ व चीन,

शक, हूण, पठान, मुग़ल
सब हुए एक में लीन.
(अब) पश्चिम ने खोला है द्वार
लाते सब नाना उपहार,

आदान-प्रदान हो घुल-मिल जायें

हृदय के नीर में,

भारत के जनमानस के सागर तीर में.

(कवींद्र रवींद्र के 152 वें जन्मदिन पर श्रद्धांजलि – अप्रकाशित मौलिक रचना)
..........................शरदिन्दु मुकर्जी

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Comment

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Comment by vijay nikore on May 15, 2013 at 6:52pm

अति सुन्दर! अति सुन्दर!! साझा करने के लिए धन्यवाद।

 

सादर और सस्नेह,

विजय निकोर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 15, 2013 at 4:47pm

उच्च वैचारिकता के कंगूरे से आवाज़ लगाती हुई पंक्तियो के लिए बधाई और इस रचना के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ

सादर

Comment by राजेश 'मृदु' on May 13, 2013 at 3:53pm

आदरणीय शरदिंदु जी क्‍या यह रविंद्र संगीत है, मुझे कुछ ऐसा ही लग रहा है, सादर


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on May 12, 2013 at 1:49am

धन्यवाद आदरणीय श्री कुशवाहा व केवल प्रसाद जी. मूल बांगला में कविगुरु ने लिखा था " हे मोर चित्तो पुन्नो तीर्थे जागोरे धीरे, एई भारोतेर महामानोबेर सागोर तीरे.." इस भाव को हिंदी में व्यक्त करना मेरा दु:साहस है, फिर भी ओ.बी.ओ. ने और आप लोगों ने इसे स्वीकारा, यह मेरा सौभाग्य है.

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on May 11, 2013 at 11:31am

बहुत सुन्दर प्रयास और आज के परिवेश में भी सार्थक रचना।  बधाई स्वीकारें।   सादर,

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on May 10, 2013 at 5:08pm

सादर बधाई 

आदरणीय महोदय 

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