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बहुत खूब!
आदरणीय saurabh sab. ग़ज़ल तो आकार ले पायी थी पहले ही मगर दूसरी समस्या की वजह से आप को सही समय से भेज नहीं पाया था . दाद के लिए शुक्रिया कुबूल करें. अभी में पूरी तरह से OBO से जुड़ नहीं पाया हूँ इसलिए थोड़ी परेशानी भी हो रही है अपरिपक्वता की वजह से
इस्लाह के लिए धन्यवाद . फिलहाल तो जिस रूप में ग़ज़ल है रहने दिया जाय . वैसे सिखने की कोई उम्र सीमा नहीं होती, ऊपर से मैं तो अभी तिफ़्ले मकतब से ज़्यादा कुछ नहीं .
वह वह क्या बात है
सादर
खूब खूब सूरत गजल पर बधाई लीजिये!!
आदरणीय सुशील ठाकुर जी, तरही मुशायरे की समाप्ति के बाद आपकी ग़ज़ल आकार ले पायी होगी. या कोई अन्य समस्या रही होगी कि उस ऑनलाइन इण्टरऐक्टिव आयोजन का यह हिस्सा नहीं बन पायी. जो हो, ग़ज़ल बहुत ही संयत एवं प्रभावशाली है.
काश यह ग़ज़ल मुशायरा का हिस्सा हुई होती. दिल से दाद कुबूल करें.
एक बात अवश्य साझा करना चाहँगा, मतले के मिसरा ए उला और सानी को आपस में क्यों न बदल कर देखा जाये. सानी में आया भी बात की अपूर्णता दखाता हुआ सा लग रहा है. ऐसा मेरा सोचना है.
बहरहाल, इसग़ज़ल के लिए बहुत बहुत बधाई.
सादर
sundar rachna....badhai
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