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बदी की राह से अब तो निकाल दे मुझको

बदी की राह से अब तो निकाल दे मुझको

खुदाया जब भी दे रिज्के हलाल दे मुझको

नहीं मैं राई को पर्वत, न तिल को ताड़ कहूं

ज़ुबान  साफ़ औ' सादा  ख़याल दे  मुझको .

तेरे लिए भी ये आसां नहीं है फिर भी कभी

तू आके चुपके से हैरत में डाल दे मुझको

जुनूने इश्क़ कहीं कुफ्र तक न पहुँचा दे

तू अपने गोशाये दिल से निकाल दे मुझको

मुझे भी पी के बहकना कभी गंवारा नहीं

मगर जो गिरने पे आऊँ, संभाल दे मुझको

"मौलिक व अप्रकाशित"

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Comment by MAHIMA SHREE on July 4, 2013 at 11:25pm

तेरे लिए भी ये आसां नहीं है फिर भी कभी

तू आके चुपके से हैरत में डाल दे मुझको

जुनूने इश्क़ कहीं कुफ्र तक न पहुँचा दे

तू अपने गोशाये दिल से निकाल दे मुझको

मुझे भी पी के बहकना कभी गंवारा नहीं

मगर जो गिरने पे आऊँ, संभाल दे मुझको... वाह वाह बहुत ही शानदार गजल ...बधाई

Comment by बृजेश नीरज on July 4, 2013 at 10:05pm

बहुत सुन्दर! ढेरों बधाई स्वीकार करें।

Comment by Neeraj Nishchal on July 4, 2013 at 3:09pm

अप्रतीम आदरणीय सुशील जी ..........
आदरणीय सौरभ जी ने सराही आपकी कविता ...
तो अब तो कुछ कहने को बचा ही नही .....


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on July 4, 2013 at 12:17pm

वांछित सुधर कर दिया गया है आदरणीय.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 4, 2013 at 11:34am

आदरणीय सुशील भाई, आपकी कोई पहली प्रस्तुति से गुजर रहा हूँ. ह्रदय से बधाइयाँ इस ग़ज़ल पर. इन अश्आर पर तो मैं विशेष दाद कह रहा हूँ.

तेरे लिए भी ये आसां नहीं है फिर भी कभी

तू आके चुपके से हैरत में डाल दे मुझको

जुनूने इश्क़ कहीं कुफ्र तक न पहुँचा दे

तू अपने गोशाये दिल से निकाल दे मुझको

मुझे भी पी के बहकना कभी गंवारा नहीं

मगर जो गिरने पे आऊँ, संभाल दे मुझको

वाह वाह .. .

शुभम्

Comment by बसंत नेमा on July 4, 2013 at 11:05am

आ0  श्री सुशील जी बहुत खुबसूरत गजल  बधाई  

Comment by Sushil Thakur on July 4, 2013 at 12:49am

आदरणीय  योगराज साब , मुझसे टाइप   भूल हुई.   शेर है
ज़ुबान  साफ़ औ'  सदा  ख़याल दे  मुझको .
मैं क्षमा प्रार्थी हूँ . तथा इस्लाह  के लिए बहुत शुक्रिया .

Comment by वीनस केसरी on July 3, 2013 at 11:41pm

वाह वा जनाब,
आला दर्जे की ग़ज़ल कही है  
ढेरो दाद पेश करता हूँ

तेरे लिए भी ये आसां नहीं है फिर भी कभी

तू आके चुपके से हैरत में डाल दे मुझको .... जिंदाबाद भई क्या रवां दवां शेर है ...



एक छोटा सा ब्लंडर काफ़िया को ले कर हो गया है उस पर ध्यान दीजिए...


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by अरुण कुमार निगम on July 3, 2013 at 8:50pm

सुंदर गज़ल कही गई,बधाई.  आदरणीय योगराज प्रभाकर जी की सलाह पर गौर फरमाइयेगा.गज़ल और भी हसीन हो जायेगी.

Comment by रविकर on July 3, 2013 at 8:17pm

आमीन
बधाईयाँ आदरणीय -

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