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चल मेरे मन चलें वहाँ..


चल मेरे मन चलें वहाँ..                                       

झर झर झरना करे जहाँ..

नदियाँ कल कल शोर करें..
पक्षी कलरव चहुन ऑर जहाँ..
चल मेरे मन..



सर सर चलती पुरवाई हो...
पुष्पों की सुगंध भी छाई हो..
वृक्षों की घानेरी छाँव जहाँ..
चल मेरे मन ..

सोंधापन हो जहाँ माटी में..
भ्रमारों का मीठा गुंजन हो..
मन क्रंदन हो शांत जहाँ..
चल मेरे मन..

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Comment by Lata R.Ojha on December 24, 2010 at 2:33pm
धन्यवाद गणेश जी :) 
Comment by Lata R.Ojha on December 24, 2010 at 2:30pm
आभार भास्कर जी :) 
Comment by Lata R.Ojha on December 24, 2010 at 2:29pm
'सलिल' जी बहुत ही सुंदर पंक्तियाँ जोड़ी हैं आपने ..आपका बहुत बहुत धन्यवाद :) 

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on December 24, 2010 at 10:04am
लता जी, प्रकृति के आँचल पर लिखा यह खुबसूरत कविता बहुत ही मनमोहक है | बधाई ...
Comment by Bhasker Agrawal on December 24, 2010 at 8:53am
मनभावन प्रस्तुति
Comment by sanjiv verma 'salil' on December 24, 2010 at 8:49am
सरस गीति रचना...
समर्पित कुछ पंक्तियाँ-
*
नेह नर्मदा बहती हो,
आत्मा निर्मल रहती हो.
निर्बल पीड़ित हो न जहाँ
चल मेरे मन चलें वहाँ...
*
वीर शहीदों का वंदन,
देश की मिट्टी हो चंदन.
उड़े तिरंगा उच्च जहाँ
चल मेरे मन चलें वहाँ...
*
'लता' सुनाती हो नगमे,
भँवरे गीत सुनाते हों.
'सलिल' सियासत हो न जहाँ
चल मेरे मन चलें वहाँ...
*

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