मैं मूक बन जाती हूँ …।
नहीं, अब मैं इस गहन तम में नभ को न निहारूंगी
अपनी अभिलाषाओं को तम के गहन गर्भ में दबा दूंगी
दर्द की नमी को पलकों में ही दफना दूंगी
अपने गिले -शिकवों का बवंडर अपने दिल के किसी कोने में छुपा लूंगी
कितना विशवास था
तुम तो मेरे हृदय की टीस को पहचानोगे
यौवन की दहलीज़ पर पाँव रखते ही
हर निशा मैं तुम्हें निहारती थी
शशांक मेरे पागलपन पर मुस्कुराता था
पवन मुझे समझाती थी
मगर मैं स्वयं में खोई थी
सलौने सपनों में सोई थी
न जाने किसके लिए दिल धड़कता था
मेरा ख्वाब सवेरा होने से डरता था
हर बार सोचती थी मेरी मुराद पूरी होगी
लोग कहते हैं तो सही कहते होंगे
यही सोच सोच मैं
सुबह से शाम तक रात की प्रतीक्षा करती थी
रात आते ही बहुत प्रसन्न होती थी
गहन अन्धकार में नभ को एकटक निहारती थी
तारे के टूटते ही
हाथ जोड़ कर
अपने हृदय के आँगन में बसी छवि की गुहार करती
तारे टूटते रहे
हर तारे के साथ मेरे ख्वाब भी टूटते रहे
बेमन से मैं आज भी रात निहारती हूँ
मगर किसी तारे के टूटने पर
कुछ भी नहीं मांगती
अतृप्ति के गंभीर परिणाम से घबराती हूँ
इसीलिए मैं मूक बन जाती हूँ
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी रचना पर आपकी मधुर प्रशंसात्मक अभिव्यक्ति का हार्दिक आभार
आपकी इस संवेदनशील अभिव्यक्ति के लिए हृदय से धन्यवाद आदरणीय.
शुभ-शुभ
आदरणीया गिरिराज भंडारी जी रचना पर आपकी स्नेहिल प्रशंसा का हार्दिक आभार
आदरणीया विंदू जी रचना पर आपकी स्नेहिल प्रशंसा का हार्दिक आभार
आदरणीया कल्पना रमानी जी रचना पर आपकी स्नेहिल प्रशंसा का हार्दिक आभार
आदरणीया मीना पाठक जी रचना पर आपकी स्नेहिल प्रशंसा का हार्दिक आभार
आदरणीया कुंती मुख़र्जी रचना पर आपकी मधुर प्रशंसा का हार्दिक आभार
आदरणीय , बहुत सुन्दर , लगातार के निराशा से उपजे भावों की सुन्दर अभिव्यक्ति हुई है , आपको बधाइयाँ ॥
गहन और मार्मिक रचना हुई है आदरणीय सुशील जी।
नारी हृदय की वेदना को अभिव्यक्त करना आसान नही है लेकिन अपने बड़ी सहजता से अभिव्यक्त किया है।
हार्दिक बधाई आपको।
सादर
मगर किसी तारे के टूटने पर
कुछ भी नहीं मांगती
अतृप्ति के गंभीर परिणाम से घबराती हूँ
इसीलिए मैं मूक बन जाती हूँ......बहुत सुंदर पंक्तियाँ, आदरणीय, हार्दिक बधाई आपको
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