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कँपकपी - एक अतुकांत चिंतन ( गिरिराज भंडारी )

कँपकपी

********

तुम कौन हो भाई ?

जो शीत से कँपकपाती मेरी देह की कँपकपी को झूठी बता रहे हो

शीत एक सत्य की तरह है

और कंपकपी मेरी देह पर होने वाला असर है

शीत-सत्य पर मेरा अर्जित अनुभव , व्यक्तिगत  , सार्वभौमिक तो नहीं न

 

क्या तुम्हारे माथे पर उभर आयीं पसीने की बून्दें भी झूठी है

क्या मैने ऐसा कहा कभी ?

ये तुम्हारा व्यक्तिगत अनुभव है , इस मौसमी सच की आपकी अपनी अनुभूति

तुम्हारी देह की प्रतिक्रिया पसीना है , तो है , इसमे गलत क्या है ?

 

इससे मेरी कँपकपी झूठी तो नहीं हो जाती , और न ही पसीना झूठा है

कम से कम इतना ज्ञान तो आपेक्षित ही है , सभ्य मनुष्यों से 

 

सत्य कभी खुद बोला ही कहाँ , वो तो सदा से मौन है

 

बोलते तो हमारे अनुभव हैं ,

जितनी देह उतने अनुभव , उतने सत्य

जो एक व्यक्तिगत सच से जादा महत्वपूर्ण कभी नही रहा , और न कभी होगा

और अनुभव , जिसकी गहराई तुम्हारी स्मृति से जादा नहीं है

और स्मृतियाँ, सत्य की गहराई के मुकाबले बहुत उथली होतीं है

क्योंकि सत्य का कोई संबन्ध स्मृति से है ही नहीं  , वो स्मृतियों से परे हैं

स्मृतियाँ जब भी बात करेगी अर्जित अनुभवों से ही करेगी

सत्य याद करने की वस्तु नहीं , दुहरा लिये और यादों में शामिल कर लिये ,

वक़्त ज़रूरत मे उगल दिये , स्मृतियों के सहारे

 

मैने सुना है ,

सत्य उद्घाटित होता है , अनुसंधान किया जाता है सच का

मौन में , मौन के अन्धकार में , एक प्रकाश की तरह उदित होता है सत्य

और उद्घाटित करने वाला कभी भी बता नही पाया /पाता , सत्य क्या है ,  

क्योंकि , बताने के लिये तो स्मृतियों से ही शब्द लिये जायेंगे न

और स्मृति बहुत उथली है , सत्य के मुकाबले तो और भी जादा उथली

फिर मेरी कँपकपी तो मेरा सत्य है , केवल मेरा

फिर तुम कौन हो भाई ?

मेरी देह की कँपकपी को झूठी बताने वाले ॥

****************************************

मौलिक एवँ अप्रकाशित ( संशोधित )

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Comment

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Comment by Dr Ashutosh Mishra on July 28, 2014 at 3:54pm

आदरणीय भाईसाब ..आप तो दार्शनिक हो गए ..क्या कमाल का बिचार है ..बिलकुल सही कहा है आपने जिसने जो जाना उसे सत्य मन बैठा ..सत्य तो सत्य है अत्यंत गंभीर बिषय पर इस अत्यंत सहज चिंतन के लिए आपको ढेरों बधाई सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 28, 2014 at 11:39am

आदरणीय जितेन्द्र भाई , रचना की सराहना के लिये आपका हृदय से आभारी हूँ ॥

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on July 28, 2014 at 12:12am

एक बहुत गहरी सोच लिए चिंतन ,साझा किया है आपने आदरणीय गिरिराज जी. सत्य कभी खुद  बोला ही कहाँ ,वो तो सदा से मौन ही है . इस पंक्ति में शायद सारी रचना का सार है. बहुत -२ बधाई आपको इस श्रेष्ठ रचना पर


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 26, 2014 at 6:14pm

आदरणीय बड़े भाई , रचना पर आपकी उत्साह वर्धक प्रतिक्रिया केलिये आपका आभारी हूँ ॥

टंकण की गलती के लिये क्षमा ! आपके इंगित जगह के अलावा एक जगह और भी है गलती , मै अभी संशोधित कर ले ता हूँ ।सादर आभार

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 26, 2014 at 5:27pm

मित्र

आपके विचारो की परिपक्वता असंदिग्ध है  i बहुत ही तन्मय और गहरी सोच -----i एक टंकण की त्रुटि खटकती है - एक सभ्य  मनुष्यों से i  हम सभी टाइप की गल्ती  कर जाते हैं i  यह आपकी एक और श्रेष्ठ  रचना है i


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 26, 2014 at 4:23pm

आदरणीय सौरभ भाई , रचना को आपका अनुमोदन मिलना मेरे लिये बड़ी खुशी की बात है , अनकहा सच तक पहुँचने के लिये और रचना की  सराहना के लिये आपका हृदय से आभारी हूँ ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 26, 2014 at 4:20pm

आदरणीय विजय भाई , रचना के उन्मुक्त भाव से सराहना के लिये आपका आभारी हूँ । आदरणीय , रचना के सम्रर्थन  मे दी गई  सुन्दर रचना के लिये आपको बधाइयाँ ॥


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 26, 2014 at 3:44pm

बोलते तो हमारे अनुभव हैं ,

जितनी देह उतने अनुभव , उतने सत्य

जो एक व्यक्तिगत सच से जादा महत्वपूर्ण कभी नही रहा , और न कभी होगा

और अनुभव , जिसकी गहराई तुम्हारी स्मृति से जादा नहीं है

और स्मृतियाँ, सत्य की गहराई के मुकाबले बहुत उथली होतीं है

क्योंकि सत्य का कोई संबन्ध स्मृति से है ही नहीं  , वो स्मृतियों से परे हैं

स्मृतियाँ जब भी बात करेगी अर्जित अनुभवों से ही करेगी

सत्य याद करने की वस्तु नहीं , दुहरा लिये और यादों में शामिल कर लिये ,

वक़्त ज़रूरत मे उगल दिये , स्मृतियों के सहारे ..

इन पंक्तियों के माध्यम से बहुत कुछ अनकहा साझा हुआ है आदरणीय गिरिराज भाई.

दिल से बधाई स्वीकार करें..

Comment by Dr. Vijai Shanker on July 26, 2014 at 1:31pm
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी ,
बधाई . आप सत्य की खोज में निकल पड़े . बधाई . आप ने सही लिखा , " सत्य कभी खुद बोला ही कहाँ , वो तो सदा से मौन है " . यह शिकायत तो संभवतः बहुतों को होगी कि सत्य मौन रहता है। बहुत अच्छी रचना है , बधाई. लगभग तीन माह पूर्व सत्य पर कुछ पंक्तियाँ लिखी थी, अन्यत्र प्रकाशित , यहां आपके समर्थन में रख रहा हूँ .
सच
कोई आश्चर्य नहीं है|
सच कुछ है
कि नहीं है
प्रश्न यह भी नहीं है |
प्रश्न तो यह है कि
लोग जिसे सदियों से
ढूंढ रहे है , वो सच
है कि नहीं है |
ये झूठ है, वो झूठ है ,
सब जो हम जानते है ,
वो सब झूठ है |
हजारों हजार साल से
हम जो सच खोज रहें हैं ,
मिला नहीं , मिलता नहीं |
सच यह भी है कि
हजारों हजार साल से
हम करोंड़ों झूठ में जी रहें हैं |
कहते हैं कि सच में
बड़ी शक्ति होती है
अगर वो इतना शक्तिमान है ,
तो क्यों छुपा बैठा है हमसे ?
क्यों नहीं सामने आता और
कमजोर झूठ को मिटा देता है. |

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