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कई रोज से खाली पेट थी
संभाल न सकी भूख
पसीज कर
दया करूणा ने
दो रोटी दस रूपये में
इतना भरा उसका पेट
फिर नौ माह
फूला रहा 


वो कुत्ता बिल्ली नहीं थी
बिना किसी एवज
भूख मिटा दी जाती
विक्षिप्त थी तो क्या
थी तो स्त्री न 

*******************************

आशा पाण्डेय ओझा 

मौलिक अप्रकाशित 

Views: 864

Comment

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Comment by Usha Choudhary Sawhney on February 11, 2015 at 6:51pm

आदरणीय आशा पाण्डेय जी ,थी तो स्त्री ...  में इस मार्मिक बिंदु को इतनी शालीनता व् खूबसूरती से प्रस्तुत करने के लिए हार्दिक बधाई।   

Comment by Dr Ashutosh Mishra on February 8, 2015 at 3:45pm

अन्तः मन को झकझोरती इस शानदार रचना के लिए ढेरों बधायी स्वीकार करें  सादर 

Comment by Reenu Pathak "Roop jaisi-Roopsi" on January 29, 2015 at 10:11am

Bahot Hi sundar 

Comment by VIRENDER VEER MEHTA on January 23, 2015 at 4:41pm
......भूख मिटा दी जाती
विक्षिप्त थी तो क्या
थी तो स्त्री न.......
Hamaare vikshipt samaaz ka ek aisa satya jo inn do pankatio me ubhar kar saamne aa jaata hai......BAHUT SUNDAR LEKHAN
Comment by kanta roy on January 23, 2015 at 12:37pm
बहुत बहुत बधाई इस रचना के लिए आ. आशा पाण्डेय ओझा जी
Comment by kanta roy on January 23, 2015 at 12:35pm
स्त्री में स्त्रीत्व को ढुंढना चाहे वह विक्षिप्त ही क्यों ना हो , बेहद मार्मिक प्रसंग ।
स्त्री का स्त्रीत्व ही स्त्री को कमजोर बना जाता है । क्यों स्त्री एक जन मानुष के रूप में कायम नहीं रह सकती है समाज में ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on January 17, 2015 at 12:24pm

उफ्फ्फ़ दिल चीर कर रख दिया इस प्रस्तुति में चंद शब्दों ने वो सब कह दिया जो एक समाज के एक घ्रणित चेहरे को कटघरे में खड़ा करने के लिए काफी हैं दिल से बधाई इस प्रस्तुति पर |

Comment by asha pandey ojha on January 15, 2015 at 12:10am

आदरणीय प्राची जी बहुत शुक्रिया यह भारत की वह सच्चाई है जो हर शहर की दो चार गलियों में रूबरू हो जाती है यह वह पीड़ा है स्त्री अपनी अस्मिता बचाने के प्रयत्न में जितनी छटपटा रही है दुचेष्टाओं के दुर्योदन उतना ही जकड रहे हैं हार्दिक धन्यवाद आपकी कीमती प्रतिक्रिया के लिए


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on January 14, 2015 at 11:32pm

आ० आशा जी
अभिव्यक्ति की विषयवस्तु को इतनी सांद्रता से आपने शब्द दिए हैं... मन सन्न है वेदना की तहें खोल कर.
चुभते सत्य के धरातल पर बहुत ही प्रभावी रचना हुई है
शुभकामनाएं स्वीकारें
सस्नेह

Comment by asha pandey ojha on January 14, 2015 at 11:30pm

आदरनीय सौरभ पाण्डेय जी भाईसाहब स्त्रियों की स्तिथि बहुत भयानक है इक्कसवी सदी में भी वो कॉलेज , बस,ट्रेन ,स्कूल ,बचपन जवानी बुढ़ापा ,यहाँ तक की पागलपन की स्तिथि में भी सुरक्षित नहीं .. स्त्री अस्मिता .. उसकी सुरक्षा के दावे सब खोखले घोषित हो रहे हैं .. वो पगली पागलखाने में डाली गई बच्चे सहित .. पर वो दानवीर वो तो कहीं समाज सेवा का तमगा लेकर सम्मानित हो रहा होगा .. हार्दिक आभार भाईसाहब आपकी इस चिंतन परक गंभीर प्रतिक्रिया के लिए

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