दीवारों में दरारें-1
दीवारे और दरारें-1
“कभी सोचा था कि ऐसे भी दिन आएँगे |हम लोग इनके फंक्शन में शामिल होंगे !”मि.सुरेश ने कोलड्रिंक का सिप लेते हुए पूरे ग्रुप की तरफ प्रश्न उछाला |
“मुझे लग रहा है इस वाटिका की सिचाईं नाले के गंदे पानी से करते हैं |कैसी अज़ीब सी बदबू आ रही है !”नाक पे हाथ रखते हुए राजेश डबराल बोले |
“पैसे आ जाने से संस्कार नहीं बदलते जनाब !इन्हें तो गंदगी में रहने की आदत है|” मि.सुरेश ने जोड़ा |
“सी S S ई |किसी ने सुन लिया तो - - - ?”नरेश पांडेय ने ऊँगली मुँह पर रखने का ईशारा किया |
थोड़ी ही देर बाद –“आशा,बहू तो बहुत सुंदर पाई है|एकदम बड़े लोगों सी |”
“बेटा क्या कम है !वो सीता तो ये राम|”
“आशा को क्या कम समझ रहे हो ?जब ये जवान थी तो बला की खुबसूरत थी | जिस रोज़ ज्वाइन करने आई हमें तो लगा कोई नई साथिन आ गई |पर बाद में - - - - “ मि.सुरेश ने चेहरे के बदलते भावों से अपने मनोभाव जताए |
“सर,कितना मुशकिल था उस समय- - - - पूरा मेल स्टाफ और एक अकेली औरत -- - -आप तो जानते ही हैं उस समय की दशा को !”उसने प्रश्नसूचक निगाह से मि.सुरेश की ओर देखा |
“वो तो परिवार वालों का साथ था कि - - - - खैर वो सब पुरानी बात है - -- -- मुझे तो लग ही नहीं रहा था कि आप लोग मेरे यहाँ - - -“उसने हाथ जोड़ते हुए भावुक होकर कहा |
“कैसी बात कर रही है ! हम सब स्कूल में एक परिवार ही तो हैं |एक-दुसरे के सुख-दुःख में भी शामिल ना हों तो इतने लंबे परिचय का क्या अर्थ |” पांडेय जी बोल उठे |
“पैसा तो बहुत खर्च किया लगता है |बहुत कम देखने को मिलती है ऐसी तैयारी |”डबराल बोल उठा
“सब भगवान का दिया है |बाप-बेटे दोनों का प्रोपर्टी का काम अच्छा चल जाता है |”
“सब किस्मत का खेल है |”मि.सुरेन्द्र बोले
“अच्छा ये शगुन पकड़ |” लिफ़ाफ़ा उसकी तरफ बढ़ाते हुए पांडे बोले
“आप लोग खाना-पीना करके जाना |- - - -मैं जरा दूसरे मेहमानों को देख लूँ |”कहती हुई वो दूसरी तरफ बढ़ गई
उसके जाने के बाद
“ये लोग तो जाने क्या-क्या खाते हैं ?मैं अपना धर्म नहीं बिगाड़ने वाला |” पांडेय जी ने नाक-भौं सिकोड़ते हुए कहा |
“पांडेय जी,आप तो कलिया-मछली - - - -“डबराल ने धीरे से पूछा
“तो - - - वो तो तुम लोगों के साथ न!क्या तुम आशा की तरह सफ़ाई वाले हो ?”पांडेय ने बिगड़ते हुए कहा |
“अरे बैरे !खाने में मीट वैगरह तो नही है ना “
“नहीं ,सर,प्योअर वैजिटेरियन है |”
सब खाने के हॉल में पहुँचते हैं
“खाना तो बहुत लज़ीज़ बना है !”
“ये तो सब हलवाई का कमाल है !मेरा तो ये खानदानी काम है |वैसे ये लोग तो भोंदू होते हैं |हलवाई लोग इसी बात का फ़ायदा उठाते हैं और ज़्यादा तेल-मसाला ले लेते हैं |हलवाई तो वही रहता है बस किसके यहाँ काम करना है उसी हिसाब से हाथ चलते हैं और माल-मजदूरी तय होती है |”मि.सुरेश ने अपना जातीय ब्रह्मज्ञान उड़ेला |
“हमारे फ़्लैट के निचले फ्लोर पर 6 रोज़ पहले एक फंक्शन था |बारिश हो जाने के कारण उन्होंने हमारी पार्किंग में हलवाई बिठाया था |घर पर कह भी गए थे कि मास्टर जी भाभी और बच्चों समेत शामिल होना है |हमारे हाथों का कुछ नहीं है सब हलवाई बना रहे हैं |पर पत्नी ने बच्चों को नीचे भी नहीं उतरने दिया |आज जब चलने लगे तो बच्चों ने पूछ लिया कि पिताजी अब !” पांडेय जी ने कुछ निराशा से कहा
“भाई जाति क्या होती है !सब पैसे और पद का खेल है |” राजेश डबराल ने कहा
“देखा नहीं उत्तरप्रदेश में जब दलित मुख्यमंत्री बनी थी तो सारे सुवर्ण अपने कामों के लिए उसके पैर छू रहे थे और जयजयकार कर रहे थे |”
“दिल्ली में ही देख लो,मजाल है किसी की कि बड़ी कार-बंगले वाले को ‘रे’-‘तू’ कह दे| और बेचारे रिक्शेवाले,मजूरी करनेवाले पूर्वीओं को कितने भद्दे ढंग से ‘बिहारी-बिहारी’ कहकर बुलाते हैं और खुद को कहते हैं –जाटा का छोरा,पंजाबी मुंडा आदि-आदि |”खिन्न होते हुए पांडे ने कहा
“वही तो मैं भी कह रहा था कि अगर आशा हमारी सफाईकर्मी ना होकर साथी अध्यापिका होती तो - - -“ऐसा कहते हुए उन्होंने गहरी साँस ली और आँखे बंद कर ली |जैसे किसी शिकार के सामने से निकल जाने पर शिकारी आत्मचिंतन कर रहा हो |
मौलिक एवं अप्रकाशित (संसमरणात्मक कथा )
Comment
शुक्रिया जितेन्दर भाई ,महऋषि त्रिपाठी जी एवं आ.शिज्ज् शक्र जी
सही विषय लिया है, सोमेशजी लेकिन कहानी थोड़ी उलझी हुई सी लगी आपकी। कोशिशों के लिये बहुत बहुत बधाई चूँकि इससे पहले भी आपकी कई अच्छी रचनायें आ चुकी हैं इसलिये और बेहतर की उम्मीद है।
काफी अच्छी रचना हुई है ,,,प्रयासरत रहे ,,आपको शुभकामनाये आ. somesh kumar जी |
अपना संदेश छोड़ने में , सफल संस्मरण साझा किया , आदरणीय सोमेश जी. बधाई
nidhi plus जी ,शायद कहानी में थोड़ी सी कसाव की कमी है जिसे दुरुस्त करने की कोशिश करता हूँ |पर कहानी को हडबडी में ना पढ़े |
अब आपके सवालों का जवाब -पांडेय जी सार्वजनिक तौर पर शाकाहारी हैं और आयोजन /फंक्शन में केवल शाकाहार की व्यवस्था थी |इसलिए वे खाने पहुँचे |मि.सुरेश स्वयं खानदानी हलवाई हैं और वे ही अपने समाज की बघिया उधेड़ रहे हैं |
फंक्शन में वे लोग आशा के निमन्त्रण पर गए हैं |यानि फॉर्मल में इनफॉर्मल सम्बन्धों को निभाने की विवशता के कारण -आशा उसी जगह सफाईकर्मी है |आप की अमूल्य प्रतिक्रिया और सवाल के लिए धन्यवाद |
बड़े भाई हरिप्रकाश जी ,भंगी शब्द पात्रों के दिमाग में फिट जातीय मानसिकता का द्योतक है जबकि सफाईकर्मी एक व्यवसाय-आधारित शब्द है |इसलिए इस शब्द का प्रयोग किया गया है |इसलिए आप फिर से इस शब्द के उपयोग पर अपनी राय दें |
shyam mathpal ji evm krishna mishra ji thanks for aproving the socail relevance of the story
सन्देश साफ़ है पर कहीं कहीं पर लिंक टूट रही है कहानी में .. जैसे पाण्डेय जी जो खाने के लिए मना कर रहे थे .. फिर क्यों खाने लगे... और हलवाई के बारे में किसने कहा था पाण्डेय जी को .. और सफाई कर्मचारी के घर क्यों गए थे सब विवाह के आमंत्रण पर ये बातें क्लियर नहीं है
वाह! सोमेश भाई! क्या सुन्दर चित्रण किया है आपने पात्रों का! समाज की सच्चाई लिए!सार्थक रचना पर साधूवाद!!
सोमेश भाई इस सुन्दर प्रस्तुति के लिए आपको दिल से बधाई , चौथी पंक्ति में भी ..भंगी ..शब्द की जगह सफाईकर्मचारी कर लीजिये ! सादर
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