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अर्चक, 

अर्चना करता है !

अर्धांगिनी से,

अराग होकर !

अल्लाह,

दे दे अवकाश मुझे,

इस अवदशा से !

अवर्ण्य हैं,

इनके अत्याचार,

अप्रासंगिक-अपार !

हे असुरारी,

अनुग्रह करो !

अभ्यार्थी की, 

पीड़ा हरो !

(मौलिक एवं अप्रकाशित ) -- राजू आहूजा 

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Comment by Dr. Vijai Shanker on April 13, 2015 at 6:57pm
आभार , आदरणीय राजकुमार आहूजा जी , सादर।
Comment by rajkumarahuja on April 13, 2015 at 5:25pm

@ डा.विजय शंकर जी ! माननीय डा. साहब, बहुत सुन्दर एवं भाव-पूर्ण रचना ! संदर्भित प्रश्न अनादी-काल से दृष्टाओ-मनीषियों को बेचैन करता रहा है ! सूफी फकीर बुल्ले- शाह ने फरमाया है " बुल्ला की जाणा मैं कौन " !  ....सादर   

Comment by rajkumarahuja on April 13, 2015 at 5:08pm

ज़नाब " शकूर " साहब प्रतिक्रया हेतु साधुवाद !


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on April 12, 2015 at 1:00pm

आदरणीय राजकुमार जी इस सारगर्भित रचना के लिये बहुत बहुत बधाई

Comment by Dr. Vijai Shanker on April 11, 2015 at 10:15pm
आदरणीय राजकुमार आहूजा जी ,
वाह, बहुत ही दार्शनिक विचार हैं , शायद यह प्रश्न मुझे भी कई-कई तरह से सोचने पर विवश करता रहता है। पर यह प्रश्न सदैव अनुत्तरित रह जाता है , शायद यह भी जीवन का ही लक्ष्य है , जिस दिन लोग जान जाएंगे , जीवन की जिज्ञासाएँ ही समाप्त हो जायेंगीं। फिर भी मन कहाँ मानता है ,आठ माह पूर्व ( 10 अगस्त 2014 ) इसी मंच पर मैंने इसी प्रश्न पर यह रचना लिखी थी , आप देखें ,

कोई तो मकसद होगा दुनियाँ में हमारा -डा० विजय शंकर

लोगों ने तेरी दुनियाँ को
क्या से क्या बना दिया
हम तुझे ही बनाते
और तराशते रह गए ॥

लोगों ने तेरी दुनियाँ को
गुल-गुलिस्तां बना दिया
हम जो फूल मिले वो भी
तुझे ही चढ़ाते रह गए ॥

तुमने हमें क्यों भेजा था
इस दुनियाँ जहाँन में
वो सब छोड़ हम तुझे
ही तलाशते रह गए ॥

कोई तो मकसद होगा
दुनियाँ में हमारा भी
हम उसको छोड़ तुझको ही
मकसद समझते रह गए ||

तेरी जो उम्मीदें रही होंगी हमसे
उनको तो हमने जाना नहीं
हर बात पे हम तेरी ही
उम्मीदों पे बैठे रह गए ||

लगा बनाने वाले ने हमें
कुछ काम दिए थे ,जिन्हें
छोड़ अपने सारे काम हम
उसी पे छोड़ बैठे रह गए ॥

मौलिक एवं अप्रकाशित.
डा० विजय शंकर
मिलते रहेंगें ,
सादर।
Comment by rajkumarahuja on April 11, 2015 at 4:32pm

माननीय डा विजय शंकर जी , आपका हार्दिक अभिनन्दन ! हर दृष्टा ने जीवन को अपने ढंग से देखा है और जीया है !किन्तु विडम्बना यह है कि जीवन से स्वम के सम्बन्ध का समाधान शायद ही कोई ढूंड पाया हो !स्वयम के होने का उद्देश्य एक अनुत्तरित प्रश्न सा है ,,,,,,,सादर !   

Comment by Dr. Vijai Shanker on April 10, 2015 at 9:49pm
प्रथम दृष्ट्या अच्छी है , आदरणीय राजकुमार आहूजा जी ,
पर एक निवेदन है ,
सादर ,
जिंदगी एक बोझ है
पर सोचो जब यह
बोझ नहीं रह जाएगा ,
तब क्या रह जाएगा।
आपको आपकी रचना हेतु बधाई , सादर।

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