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मीत बनाते बस इक अपना दुश्मन सौ खुद मिल जाते है
गुल को पाने की चाहत में खारों से तन छिल जाते हैं
हम तो उसको भाई कहते वो हमको कमजोर बताता
नहीं समझता जब हम अपनी पे आते सब हिल जाते है
बसें चलाते गले लगाते क्या क्या नहीं किया करते हम
पर जिस वक़्त गले मिलते दुश्मन को मौके मिल जाते हैं
हम पूरब के बासी हमको मत तहजीब सिखा उल्फत की
यहाँ जमाने से उल्फत में बदले दिल से दिल जाते हैं
जहरीले कुछ नाग वतन में सरहद से छुप छुप घुस आते
फिर ये इच्छाधारी अपना भेष बदल हिल मिल जाते है
अरे दरिंदों आकाओं से कह दो खौफ नहीं हम खाते
हम तो उस बगिया के गुल जो खारों पे ही खिल जाते हैं
कितना भी मारों पीटो पर ये कुछ भेद नही खोलेंगे
शैताँ इतनी नफरत भरता लव ही इनके सिल जाते हैं
मौलिक व अप्रकाशित
E34
Comment
आदरणीय अशोक जी रचना पर आपकी प्रतिक्रीय से मैं उत्साहित महसूस कर रहा हूँ ..हार्दिक धन्यवाद के साथ सादर
आदरणीय रवि सर ..रचना को आपका अनुमोदन मिला ..मेरे लिए अत्यंत प्रशन्नता का बिषय है .स्नेह बनाए रखें सादर प्रणाम के साथ
आदरणीय समर कबीर सर ..नेट की समस्या के कारण आपके मशविरे पर त्वरित अमल न कर सका .टाईप करते समय न जाने कैसे गलती हो गयी थी ..मैंने सुधार कर लिया है .रचना पर आपकी प्रतिक्रिया और मार्गदर्शन के लिए ह्रदय से आभारे हूँ सादर प्रणाम के साथ
आदरणीय डॉ. आशुतोष मिश्रा जी सादर, अच्छी गजल कही है. बहुत-बहुत बधाई स्वीकारें.आदरणीय समर कबीर साहब ने इशारा किया ही है सातवे शेर के दोनों ही मिसरे जांच लें. सादर.
आदरणीय आशुतोष जी अच्छी ग़ज़ल हुई है दाद क़ुबूल करें
।
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