काफिया: अल ;रदीफ़ :गया
बह्र : २२ २२ २२ २२ २२
नव यौवन चंचल चितवन फिसल गया
यौवन की धूप खिली मन पिघल गया |
तेरे नैनों ने किया इशारा कुछ
निश्छल मृदु दिल तो मेरा मचल गया |
मखमल सी आवाज़ की तारीफ करूँ
कर्ण प्रवेश से पत्थर दिल पिघल गया |
हम कैसे कह दे के तू बेवफ़ा है
तेरा गफलत ही प्यार को कुचल गया |
आक्रोश भरा रूप कभी न दिखाओ
देख रौद्र रूप मेरा दिल दहल गया |
है मंदहास तेरा मीठा मंजुल
हँसता चेहरा देखा, डर निकल गया |
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी सराहना के लिए हार्दिक आभार |यह एक प्रयास था |ओ बी ओ का अगला प्रोग्राम इसी बहर पर है | उसका अभ्यास था यह |
आदरणीय तस्दीक अहमद खान साहिब आदाब ,सराहना के लिए हार्दिक धन्यवाद | बहर तो ऊपर लिखा हुआ है २२*५
आदरणीय कालीपद प्रसाद जी, ग़ज़ल पर बढ़िया प्रयास हुआ है. हार्दिक बधाई.
इस बहर में ग़ज़ल कहने के लिए शब्द कलों की तरफ ध्यान देना जरुरी है. सादर
जनाब कालीपद प्रसाद साहिब , ग़ज़ल की अच्छी कोशिश , दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं --
आपकी ग़ज़ल में बहर का अंदाज़ा नहीं हो पा रहा है ------सादर
आदरणीय सुरेन्द्र नाथ सिंह जी ,आदाब सराहना के लिए तहे दिल से शुक्रिया | आपको पसंद आया मेरा लिखना सफल हुआ | साभार
आदरणीय समर कबीर साहिब ,आदाब सराहना के लिए तहे दिल से शुक्रिया | बहर ठीक है २२*५ है | सादर
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