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"ऊपरवाले, नीचेवाले" (लघुकथा)

"अब हमसें और न हो पेहे! दो-दो बोरे गेहूं तुम दोनों भाइयों और दो बोरे तुमाई बहना को भिजवा दये हते! अब मुंह फाड़के फिर आ गये गांव घूमवे के बहाने!"

"जे मत भूलो कि हमने अपने हिस्से के बड़े-बड़े बढ़िया खेत तुमें सस्ते में बेच दये हते! फसलों के ह़िस्से बिना मांगे हमें मिलते रहना चईये न! बड़े भाई हैं हम तुमाये; तुमाओ परिवार अकेले इते मजे करत रेहे का!"
"कौन ने कई हती कि अगल-बगल के शहरन में बस जाओ! पैसों से तो तुम औरन के मज़े हो रये हैं! हमारी मिहनत और हालात तुम कभऊं न समझ पेहो! सारी फसल तुम औरन में बंट जेहे, तो इते हम औरें हवा-पानी से पेट भर हैं का?"
"शुद्ध हवा-पानी, घी और खाना खा-खा के तो सांड़ हो रये तुम और तुमाई अनपढ़ औलादें! बहोत इतरान लगे हो!"
"औलाद पे मत जाओ! हमें मालूम है कि तुमाई हाई-फाई औलादें कहां का गुल खिला रईं हैं और तुम नौकरन के भरोसे कैसे जी रये हो! ... और सुन लो हमें पैसन की ज़रूरत है! खेत सूख रये! बारिश ढंग की नहीं होत सही वक़्त पे! .. अब हम औरें कछु और काम शुरू कर हैं इतई रहके!"
"का कर लै हो अब! खेती के अलावा आत-जात का है तुम लोगन खों!"
"हमें गंवार न समझो! ज़िला उद्योग विभाग और रोज़गार दफ़्तर वालन ने हमें बहोत से रास्ते बताये हैं! मुर्ग़ा-मुर्ग़ी पालन, मछली पालन, मधुमक्खी पालन या गौ-पालन कछु न कछु हम औरें कर ही लैहें! लोन की जुगाड़ करवा दो या पैसे उधार दे दो हमें!"
"जानवरन को भी खाली हवा-पानी खिलाहो का! हाल देख लये हमने सूखे गाँव के! दम घुट रओ! पहले जैसी बात नहीं रही! हम तो कल ही वापसी करहें! तुमें हमारे शहर में ही बसने हो, तो बताओ!"
"न भैया न! हम तो पिताजी की बात मानहें! जितनी मिहनत-मशक्क़त और टेंशन शहर में होये, उत्ते में तो हम सभईं मिलके ई गांव को ही संवार देहें! हरियाली हो या खेती-बाड़ी! देश की ज़मीन और आसमान सभईं को माहौल हम लोगन के हाथ में है; देश को हमाई ज़ादा ज़रूरत है! नेता भी लौट के हमईरे पास आत हैं! धीरज वाले हैं हम औरें! तुमें जहां चैन मिले, उतई रहो!.. लेकिन हिस्सा-बांट की बात अब तो न करो! हिस्सा-बांट तो अब ऊपरवालो ही करहे या सरकार!"

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by Sheikh Shahzad Usmani on September 13, 2018 at 8:48pm

मेरी इस रचना पटल पर समय देकर अपनी राय साझा करने और मुझे प्रोत्साहित करने हेतु हार्दिक धन्यवाद आदरणीया नीता कसार जी,  आदरणीय समर कबीर साहिब और आदरणीय सुरेन्द्र नाथ सिंह 'कुशक्षत्रप'  साहिब। आजकल क्षेत्रीय भाषा में खड़ी बोली और अंग्रेज़ी के शब्द मिला कर स्थानीय लोग बोलने लगे हैं न, इसी लिए वैसे शब्द प्रयुक्त हो गये। बढ़िया सुझाव के लिए शुक्रिया।

Comment by नाथ सोनांचली on August 27, 2018 at 6:21pm

आद0 शेख़ शहज़ाद उस्मानी जी सादर अभिवादन। बढ़िया लघुकथा गढ़ी आपने। इस प्रस्तुति पर मेरी बधाई स्वीकार कीजिए।

Comment by Nita Kasar on August 27, 2018 at 6:17pm

स्थानीय भाषाशैली पर आधारित सुंदर कथा ।बारिश की जगह बरसात ।हाईफाई की जगह ऊँचई पहुँच वाले ।संदेशप्रद कथा के लिये बधाई आद० शेख़ शहज़ाद  उस्मानी जी ।

Comment by Samar kabeer on August 27, 2018 at 4:48pm

जनाब शैख़ शहज़ाद उस्मानी जी आदाब,अच्छी लघुकथा हुई है,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

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