2122 2122 2122 212
मैं अँधेरी रात हूंँ और शम्स के अनवर-से आप
शाम-सी मुझ में उदासी, सुब्ह के मंज़र-से आप
जाने कैसे मिलना होगा अपना इक मे'यार पर
मैं ज़मीं की ख़ाक-सी हूंँ चर्ख़ के मिम्बर-से आप
जो भी आया चल दिया वो मुझ से हो कर आप तक
मैं अधूरी रहगुज़र हूँ और मुकम्मल घर-से आप
क्यों पसंद आये किसी को भी कभी होना मेरा
मैं कि अनचाही सी बेड़ी क़ीमती ज़ेवर-से आप
आपके बिन इस जहांँ में कुछ नहीं मेरा वजूद
मैं हूंँ मानंद-ए-मुजस्सम और मेरे आज़र-से आप
तिश्नगी सबकी मिटा कर भी रही मैं तिश्ना लब
मैं कि इक प्यासी नदी हूँ और मेरे सागर-से आप
मैं नहीं हसरत किसी की, आप सब की 'आरज़ू'
मैं हूँ इक मा'मूली पत्थर और हैं गौहर-से आप
स्वरचित व मौलिक
Comment
आदरणीय SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR जी, ग़ज़ल तक पहुंचने और हौसला अफ़जाई के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया
आ. अंजुमन जी, अभिवादन। अच्छी गजल हुई है । हार्दिक बधाई।
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