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अश्रुओं से सींचता 

हर स्वप्न मन का ,

प्रेम का प्रारब्ध 

परिवर्तित विरह में ,

इन्द्र धनुषी हास 

अधरों के निकट आ,

दे रहा प्रतिक्षण 

प्रशिक्षण वेदना को !

आद्यंत डूबी श्रष्टि 

मोही विवश सी,

मात्र आकर्षण -

विकर्षण की कहानी,

प्राण का उद्गम यही 

आनंद प्रियतम,

प्रीति के अस्तित्व की 

दुनिया दीवानी !

भोग से प्रारंभ होती 

योग की यह यात्रा है ,

मैं नहीं सक्षम मिटाऊँ ,

किस तरह इस चाहना को,

किस तरह आलोचना 

कर दूं ह्रदय के समर्पण की,

हारता मस्तिष्क अंतिम 

विजय मिलती भावना को.....!!


मौलिक/अप्रकाशित 

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Comment

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Comment by Pankaj Trivedi on May 2, 2013 at 8:39am

सम्माननीय भावना जी,

प्रेम के आकर्षण-विकर्षण, भोग-योग और विविध आयामों को लेकर विजय तक की यात्रा को पेश किया है. अच्छी रचना बन पडी है.

कृपया ध्यान दे...

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