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अतुकान्त/ अपना गांव

आज

बहुत दिनों बाद आया गांव

अपना गांव

जहां हुआ करते थे

महुआ, कटहल, आम

एक बाग भी।

खेलते थे गुल्ली डंडा

कभी कभी क्रिकेट भी।

अब वहां बाग नहीं है

उग आए हैं मकान।

 

एक नदी बहती थी

शांत, निर्मल।

ऊंचे कगारों पर

ढेर सारे जामुन के पेड़।

कगारों से फिसलते

हम पहुंच जाते किनारे

नदी में नहाते।

अब नदी सूख गयी

सिर्फ शेष रेत।

 

हथपुइया रोटी बनाती थीं

बड़ी अम्मा

नून, तेल चुपड़कर।

वह सोंधा स्वाद

अब भी है मुंह में।

लेकिन अब अम्मा नहीं।

 

अब कुछ भी नहीं

आम, जामुन, कटहल

अम्मा, बाग

कुछ नहीं।

सिर्फ हैं

ईंटों के मकान

सरपत और बबूल

ढेर सारे।

-        बृजेश नीरज

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 7, 2013 at 10:07pm

ओह.. . !   शिल्प में ऐसी नम्रता और कहन में इतनी तल्ख़ी !.. आह, तल्ख़ी भी नहीं, कचोटपन का इंतिहा.. .

जिन हालात को आपने अपनी कलम से गूँधा है उस हालात के नज़ारे अब जोड़ते नहीं तोड़ते हैं, भाईजी. बस ज़िन्दा बचे लोगों के सपनों में है वो गाँव. अगली पाढ़ी सभवतः इन सपनों को भी न जी पायेगी.

मन भर आया, बृजेश भाई. आँखों की कोर नम हो गयी.

आपकी इस संवेदनापूरित रचना को मैं अपने एक शब्द-चित्र का सम्मान देता हूँ, विश्वास है स्वीकार्य व समीचीन होगा-

मरे हुए कुएँ..
उकड़ूँ पड़े ढेंकुल..
करौन्दे की बेतरतीब झाड़ियाँ..
बाँस के निर्बीज कोठ.. . ढूह हुए महुए..
एक ओर भहराई छप्परों की बदहवास खपरैलें..
सूनी.. सूखी आँखों ताकती हैं एकटक..
एक अदद अपने की राह.. चुपचाप..
कि.. कुछ जलबूँद

और दो तुलसीपत्र जिह्वा पर रख.. त्राण दे जाए .
लगातार मर रहा है इन सबको लिए.. निश्शब्द
मेरा गाँव.

Comment by D P Mathur on June 7, 2013 at 9:59pm

आप किस्मत वाले हैं जो अपने गावंँ जा पा रहे हैं
हमने तो जन्म से इन ईंट पत्थरों के जंगल को ही अपना गावंँ देखा है।
भावनाओं से ओतप्रोत रचना के लिए धन्यवाद !

Comment by बृजेश नीरज on June 7, 2013 at 6:51pm

आदरणीय राजेश जी आपका आभार!

Comment by बृजेश नीरज on June 7, 2013 at 6:44pm

आदरणीया शालिनी जी आपका हार्दिक आभार! आपको रचना पसन्द आयी मेरा लिखना सार्थक हुआ।

Comment by बृजेश नीरज on June 7, 2013 at 6:44pm

आदरणीय अमन जी आपका आभार!

Comment by वेदिका on June 7, 2013 at 6:42pm
ये तो आपका बडप्पन है आदरणीय बृजेश जी! अन्यथा लोग भावुकता की जमीं पे लिखने वालों को शब्दों का जादूगर ही समझ पाते है। 
आदर करती हूँ, आपके सानिध्य का और ओ बी ओ पर सभी सुधिजनो का!
सादर !   
Comment by बृजेश नीरज on June 7, 2013 at 6:40pm

आदरणीय प्रदीप जी आपका हार्दिक आभार!

Comment by राजेश 'मृदु' on June 7, 2013 at 6:07pm

छूटे गांव की व्‍यथा कथा बताती एक सुंदर रचना हेतु आपका हार्दिक आभार ।

Comment by shalini rastogi on June 7, 2013 at 6:07pm

आदरणीय बृजेश जी .. आधुनिकता के दौड़ में अपनी पहचान, परम्पराओं और अपनी ज़मीनी सच्चाई को त्यागते गाँवों की मार्मिक व्यथा का चित्रण किया है आपने .. बेहद हृदय स्पर्शी !

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on June 7, 2013 at 5:43pm
जी, आदरणीय ब्रजेश जी, "मैं आप लोगो से अपनी भावना या विचार लिखते समय, इसलिए माफी मांग लेता हूँ कि मै वास्तविकता की जमीं से जुड़ा हूँ , शब्दों की ज्यादा जानकारी नहीं, परन्तु उनमें छुपी भावनाओ को समझने की कोशिश कर लेता हूँ ।इसलिए मै आप सभी साहित्य के जानकारों से नम्रतापूर्वक, अपना विचार रखकर माँफी भी मांग लेता हूँ । मैं बड़ा सौभाग्यशाली हूँ जो आज आप जैसे व्यक्ति ने यह कह दिया कि मैं आपकी भावनाओं को समझ गया " आपका बहुत बहुत शुक्रिया...आदरणीय ब्रजेश जी । मै इस मंच से कुछ दिनो से ही जुड़ा हूँ, क्योकि कहीं कहीं कुछ इंसान मेरी भावनाओं को भी समझ सकें....-शुभकामनाऐं आदरणीय

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