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रात में, मैं कतई अकेला होता हूँ..
और निर्जन अकेले में जो सभा जुटती है ..
उसमे जो कहते - कहते थकता नहीं है.
और सुनते - सुनते चीखने नहीं लगता है .
वह केवल में है होता हूँ...
क्यूंकि, मुझे अपने हिस्से करने आते हैं ..
और बांटने के सिवाय हार के और क्या है..
मेरे साथियों के पास ...
मेरे लिए कोई नहीं जी सकता ..
सब अपने लिए .. आकर जाने की तयारी करते हैं.. ..
रात में, मैं कतई अकेला होता हूँ..



"मौलिक व अप्रकाशित"

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Comment by vijayashree on June 15, 2013 at 6:17pm

रात में , मैं कतई अकेला होता हूँ ... 

सुंदर भाव /बधाई

Comment by Shyam Narain Verma on June 15, 2013 at 12:55pm

आदरणीय...उम्दा रचना के लिए शुभकामनाऐं

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on June 15, 2013 at 8:51am

आ0 आमोद भाई जी, ‘और बांटने के सिवाय हार के और क्या है..‘ सुन्दर भाव, बधाई स्वीकारें।  सादर,

Comment by Abid ali mansoori on June 15, 2013 at 8:42am
वाह आदरणीय अमोद जी क्या खूब लिखा है आपने बधाई!

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