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एक गजल पेश है, वज्न २ २ २ २ २ २ २ २ २ २ २ २ २ 
.
फिर सूने दिल का सूना पन उफ़ तौबा तौबा 
सूखा अम्बर बंजर आंगन उफ़ तौबा तौबा 
.
दिल बेचारा हारा हारा सौतन जीती फिर 
मेरे भोले सैयां का मन उफ़ तौबा तौबा 
.
एक चौराहा चारों राहें मन भटकाती है
मंजिल गुम बेमतलब जीवन उफ़ तौबा तौबा  
.
हम तो बिसरी सूरत फिर से लेके बैठे है 
उनका नादाँ जिद्दी बचपन उफ़ तौबा तौबा 
.
चंदा मामा सूरज काका सब रिश्ते झूठे 
अब तो अपना सा हर दुश्मन उफ़ तौबा तौबा 
.
ऊँचाई पे जाकर सब कुछ छोटा दिखता है 
कैसा नजरों का पागलपन उफ़ तौबा तौबा 
खेतों की हरियाली में मौसम मौसम हम  
औ पीली चूड़ी की छनछन उफ़ तौबा तौबा 
(मौलिक/अप्रकाशित)

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Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on July 5, 2013 at 11:15am
सुंदर गजल प्रस्तुति..बधाई
Comment by Devendra Pandey on July 5, 2013 at 11:04am

Bahut Sundarr 

Comment by Abhishek Kumar Jha Abhi on July 5, 2013 at 10:55am

बहुत सुन्दर गज़ल...सुन्दर प्रस्तुति

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on July 5, 2013 at 9:39am

आ0 वेदिका जी,    सुन्दर प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई।   सादर,


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on July 5, 2013 at 9:32am

वो शोखी वो मस्ती इन लफ़्ज़ों की तौबा तौबा, अल्फ़ाज़ नही हैं तारीफ़ के लिए वेदिका जी बढ़िया ग़ज़ल, नटखट भाव, वाह


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on July 5, 2013 at 9:30am

प्रिय गीतिका जी 

बहुत सुन्दर गज़ल हुई है..

दर्द की इन्तेहाँ को भी एक ताजगी के साथ साफदिली के साथ प्रस्तुत किया है.

ऐसी भावदशा की ज़मीन पर मैं चाह कर भी नहीं लिख पाती....अक्षर भाव पीछा छुडा कर भागते हैं.  :))

 

एक चौराहा चारों राहें मन भटकाती है

मंजिल गुम बेमतलब जीवन उफ़ तौबा तौबा .....जब तक मन भटकता है जीवन बेमतलब ही है,  सहमत हूँ 
गज़ल के लिए आपको ह्रदय से शुभकामनाएं 

Comment by वेदिका on July 5, 2013 at 8:49am

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय अमन कुमार जी!

Comment by वेदिका on July 5, 2013 at 8:48am

आपके उत्साह वर्धन का शुक्रिया आदरणीय रविकर जी! 

Comment by वेदिका on July 5, 2013 at 8:47am

आपका बहुत बहुत आभार आदरणीया वंदना जी! आदरणीय सुशिल जी!

Comment by Sushil Thakur on July 5, 2013 at 8:16am

ati sunder, congrts

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